नोटबंदी के अनाड़ी क्रियान्वयन के इस दौर में कुछ संवेदनहीनता भी दिखने लगी है। आम आदमी कुछ करता है तो नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन चुने हुए जनप्रतिनिधि और मीडिया के दिग्गज अखबार तथा चैनल ऐसी दुस्साहसिकता पर मसखरी करे तो अखरता है। ऐसा चिन्ताजनक भी इसीलिए लगता है कि फिर उम्मीदें किन से की जाए।
हजार और पांच सौ की नोटबंदी के बाद जैसे ही 2000 के नये नोट जारी हुए वैसे ही किसी सिरफिरे ने एक पुराने नोट पर लिखे वाक्य की सनद के साथ ठीक वैसे ही 'सोनम गुप्ता बेवफा है' इस नये नोट पर भी लिखा और दोनों नोटों को साथ रख कर फोटो खींच सोशल साइट्स पर डाल दिया। जिसने भी यह निन्दनीय कृत्य किया, उसने यही जाहिर किया कि किसी सोनम गुप्ता से वह तिलमिलाया हुआ है, उसके इनकार से उसकी मर्दवादी हेकड़ी को चोट लगी है। लेकिन इस पोस्ट को साझा करने और सुर्खियां देने वालों को क्या कहेंगे? ऐसे सभी लोग संवेदन शून्य हैं जिन्हें यह भान ही नहीं कि देश में कितनी सोनम गुप्ता होंगी और उनमें से कुछेक को जीवन में कभी ऐसे सिरफिरों से सामना भी करना पड़ा होगा। अगर आपके परिजनों और प्रियजनों में कोई सोनम गुप्ता नहीं है तो क्या इस नाम की महिलाओं और युवतियों का मजाक सरेआम बनाने का हक हासिल हो गया? अनजाने ही सही, इस तरह से किसी अनजान को उत्पीडि़त करने का हौसला उसी समाज में हासिल होता है जो संवेदनहीन होने के कगार पर खड़ा है। मनीषी डॉ. छगन मोहता के हवाले से बात करें तो ऐसे लोगों की संवेदनाओं में आइठांण (गट्टे : कुहनियों और टखनों पर सख्त हुआ चमड़ी का वह हिस्सा जिस पर सूई चुभोने पर भी एहसास नहीं होता) पडऩे लगे हैं।
ऐसी गैर जिम्मेदाराना हरकत के दोषी महाराष्ट्र से कांग्रेसी विधायक और वहां के नेता प्रतिपक्ष आरके विखे पाटिल अकेले ही नहीं हैं। उनके इस बयान को सुर्खियां देने वाले मीडिया के विभिन्न माध्यम भी हैं। इतना ही नहीं, ऐसे कई अखबार, चैनल भी गैर जिम्मेदार हैं जो सोशल साइट्स पर सक्रिय ऐसे संवेदनहीन लोगों की 'सोनम गुप्ता बेवफा है' से संबंधित पोस्टें प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं। ऐसा करके ये लोग और अन्य माध्यम अपनी उस पुरुष मानसिकता को ही जाहिर कर रहे हैं जिसने सदियों से मान रखा है कि स्त्री को न तो ना करने का अधिकार है और ना ही उसे अपना मन और पसंद बदलने का हक है।
कम से कम मीडिया को तो ऐसे सिरफिरों को सुर्खियां देने से बाज आना चाहिए क्योंकि थोड़ी बहुत उम्मीदें समाज को जिन विवेकशीलों से है—वे मीडिया और न्यायालय ही हैं।
17 नवम्बर, 2016
हजार और पांच सौ की नोटबंदी के बाद जैसे ही 2000 के नये नोट जारी हुए वैसे ही किसी सिरफिरे ने एक पुराने नोट पर लिखे वाक्य की सनद के साथ ठीक वैसे ही 'सोनम गुप्ता बेवफा है' इस नये नोट पर भी लिखा और दोनों नोटों को साथ रख कर फोटो खींच सोशल साइट्स पर डाल दिया। जिसने भी यह निन्दनीय कृत्य किया, उसने यही जाहिर किया कि किसी सोनम गुप्ता से वह तिलमिलाया हुआ है, उसके इनकार से उसकी मर्दवादी हेकड़ी को चोट लगी है। लेकिन इस पोस्ट को साझा करने और सुर्खियां देने वालों को क्या कहेंगे? ऐसे सभी लोग संवेदन शून्य हैं जिन्हें यह भान ही नहीं कि देश में कितनी सोनम गुप्ता होंगी और उनमें से कुछेक को जीवन में कभी ऐसे सिरफिरों से सामना भी करना पड़ा होगा। अगर आपके परिजनों और प्रियजनों में कोई सोनम गुप्ता नहीं है तो क्या इस नाम की महिलाओं और युवतियों का मजाक सरेआम बनाने का हक हासिल हो गया? अनजाने ही सही, इस तरह से किसी अनजान को उत्पीडि़त करने का हौसला उसी समाज में हासिल होता है जो संवेदनहीन होने के कगार पर खड़ा है। मनीषी डॉ. छगन मोहता के हवाले से बात करें तो ऐसे लोगों की संवेदनाओं में आइठांण (गट्टे : कुहनियों और टखनों पर सख्त हुआ चमड़ी का वह हिस्सा जिस पर सूई चुभोने पर भी एहसास नहीं होता) पडऩे लगे हैं।
ऐसी गैर जिम्मेदाराना हरकत के दोषी महाराष्ट्र से कांग्रेसी विधायक और वहां के नेता प्रतिपक्ष आरके विखे पाटिल अकेले ही नहीं हैं। उनके इस बयान को सुर्खियां देने वाले मीडिया के विभिन्न माध्यम भी हैं। इतना ही नहीं, ऐसे कई अखबार, चैनल भी गैर जिम्मेदार हैं जो सोशल साइट्स पर सक्रिय ऐसे संवेदनहीन लोगों की 'सोनम गुप्ता बेवफा है' से संबंधित पोस्टें प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं। ऐसा करके ये लोग और अन्य माध्यम अपनी उस पुरुष मानसिकता को ही जाहिर कर रहे हैं जिसने सदियों से मान रखा है कि स्त्री को न तो ना करने का अधिकार है और ना ही उसे अपना मन और पसंद बदलने का हक है।
कम से कम मीडिया को तो ऐसे सिरफिरों को सुर्खियां देने से बाज आना चाहिए क्योंकि थोड़ी बहुत उम्मीदें समाज को जिन विवेकशीलों से है—वे मीडिया और न्यायालय ही हैं।
17 नवम्बर, 2016
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