Thursday, November 10, 2016

नोटबंदी : पाँच सौ और हजार के नोट खारिज करने से असल प्रभावित सामान्यजन ही

'मैं धारक को एक हजार/पांच सौ रुपये अदा करने का वचन देता हूं।' कागज के एक टुकड़े पर भारतीय रिजर्व बैंक के गर्वनर के हस्ताक्षरों के साथ छपी यह वचनबद्धता ही उसकी कीमत तय करती है। 8 नवम्बर, 2016 की रात भारत सरकार ने एक झटके में ही एक हजार और पांच के सौ नोटों को तत्काल प्रभाव से खारिज कर दिया। बिना यह समझे कि उनके इस कदम से देश की आबादी का एक बड़ा और अनुमानत: 35 से 40 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी अपराध के अपने को बमचक ठगा-सा महसूस करने लगा, केवल इसलिए कि देश की आबादी का अधिकतम 5 प्रतिशत हिस्सा है जो अवैध धन बनाने और उससे मौज मस्ती-अय्याशी करने और जमा बढ़ाने में लिप्त है। सभी राजनीति दलों के अधिकांश राजनेता इस गोरख धंधे में न केवल शामिल हैं बल्कि इन करतूतों के लिए अनुकूलता भी बनाते रहते हैं।
यह सब लिखने का आशय कृपया यह कतई न निकालें कि यह आलेख अवैध धन की पैरवी करने के लिए लिखा जा रहा है। अवैध धन मानवीय समाज के लिए कोढ़ का काम करता है जिसे जड़ से समाप्त किए बिना आमजन न सुकून से जीवन-बसर कर सकता है और ना सम्मान से। और इस अवैध सम्पत्ति को समाप्त करने के लिए जो भी कानूनी कदम उठाए जा सकते हैं उठाए जाने चाहिए। लेकिन एक लोक कल्याणकारी शासक से उम्मीद यह की जाती है कि ऐसे कदम ऐसी सावधानी से रखें जिससे वह अवाम पीडि़त ना हो जो मासूम है या कहें जो उस अपराध में निर्दोष है।
यह बात फिलहाल रहने देते हैं कि देश और प्रदेशों में शासन करने वाले और सदनों में उनके पक्ष विपक्ष में बैठे अधिकांश राजनेता अपनी हैसियत को बिना अवैध धन के नहीं पा सके हैं। और यह भी कि वह सब छोटे-बड़े सरकारी कारकून जो ऊपर की कमाई में लगे हैं और जो कूत-अकूत चल-अचल संपत्ति के मालिक बने बैठे हैं और कई बनने को लगे हुए हैं। फिर भी किसी देश का शासन कम से कम परेशानियों के साथ किसी को चलाना होता है तो उसे अपनी फितरत से अलग कुछ करना उसकी मजबूरी हो जाता है और इसी मजबूरी के चलते अवैध धन पर कुछ नियन्त्रण के वास्ते अर्थशास्त्र के विमुद्रीकरण के उपाय को कोई भी शासन अपना सकता है, भारतीय और वैश्विक परिदृश्य में बात करें तो पहले भी इस उपाय को अपनाया जाता रहा है। भारत के संदर्भ में बात करें तो अर्थशास्त्रीय राय यह है कि पांच सौ और हजार के नोटों को बन्द करने से मात्र 3 प्रतिशत ही कालाधन इसकी जद में आ पायेगा।  इसीलिए ऐसे उपाय लक्ष्य से बहुत कम कारगर होते देखे गये हैं। क्योंकि अवैध धन को रखने का एकमात्र उपाय नोटों के रूप में रखना ही नहीं है, उसका बड़ा हिस्सा, जमीनों, भवनों, आभूषणों, सोने-चांदी और शेयरों के रूप में जमा किया जाता रहा है। भारत में जब 1978 में इसी तरह बड़े नोटों को चलन से बाहर किया गया, वर्तमान वित्तमंत्री के कहे को ही उद्धृत करें तो तब बड़े नोटों की देश की कुल अर्थव्यवस्था में मात्र 2 प्रतिशत ही हिस्सेदारी थी लेकिन अब खारिज किए बड़े नोटों की वह हिस्सेदारी 86 प्रतिशत हो गयी है। मतलब तब बड़े नोट 'बड़े' लोगों के पास ही थे लेकिन अब वह उस प्रत्येक सामान्य जन के रोजमर्रा के लेनदेन और एडे-मौके के लिए उनकी घरेलु बचत का हिस्सा है जो तथाकथित गरीबी रेखा के आस-पास या ठीक-ठाक जीवन-बसर कर लेते हैं।
अवैध धन के बड़े ठिकाने अवैध व्यापार करने वाले, रिश्वत लेने वाले सरकारी अधिकारी-कर्मचारी और ऐसे लगभग सभी राजनेताओं को शामिल मान लें जो प्रभावी हैं और आएं-बाएं से वसूली में लगे रहते हैं, ये सभी मिला कर कुल आबादी का 5 प्रतिशत भी नहीं होंगे, मात्र इन्हें सबक सिखाने को की गई बड़े नोट बन्द करने की इस कवायद में सामान्यजन कितने प्रभावित होंगे, थोड़ी इसकी भी पड़ताल कर लेनी चाहिए। अवैध धन अर्जित करने वाले सभी लोगों की संपत्ति में नकद नोटों का हिस्सा 25-30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा, इनके अवैध धन का मोटा हिस्सा तो जमीनें-भवन, सोना-जवाहरात और शेयरों आदि में निवेश के रूप में होगा। ऐसी अवैध सम्पत्ति पर सरकार की इस कवायद से कोई असर नहीं होना है, ऐसों की पूरी नकद जमा पूंजी भी यदि रद्दी हो जाती है तो ऐसे लोग इस स्थिति में तो रहेंगे ही कि इस प्रशासनिक पोल में उसे पुन: अर्जित कर सकें। शासन और सरकार के टैक्स उगाई महकमों की हरामखोरी-और निकम्मेपन का ही नतीजा है कि अर्थव्यवस्था में अवैध धन पनपता है। लेकिन इसका खमियाजा उस आम जनता को भुगतना पड़ता है जो देश की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा यानी जो लगभग 35 से 40 प्रतिशत हो सकता है, यह वर्ग जो बैंकिग प्रणाली के साथ सामान्यतय: अपने को सहज नहीं पाता और अपनी छोटी बचतों को या तो सामान्यत: अपने पास ही रखता है या उसे अनाधिकृत ठिकानों पर रखना उचित समझता है, इस वर्ग के ऐसे सभी लोग अचानक आई इस आर्थिक आपदा के शिकार हो गए हैं। इनमें वह भारतीय पत्नियां भी शामिल हैं जो जीवन के बड़े हिस्से को व्यक्तिगत अभावों में जीकर अपनी गोपनीय बचत इसलिए सहज कर रखती हैं कि कभी परिवार पर कोई आर्थिक संकट आ जाए तो कम से कम वह अन्नपूर्णा की अपनी जिम्मेदारी को तो निष्ठा से निभा सके।
अलावा इसके अभी शादियों का मौसम है, लोग-बागों ने विवाह के खर्चों के लिए अपनी औकात अनुसार नकद रकम घर में रख छोड़ी है, इस 8 तारीख को नोट खारिज करने का जो वज्रपात हुआ उसमें वह अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। भारत के असंगठित रोजगार क्षेत्र में अधिकांश मासिक वेतन सात तारीख को दिया जाता। नकद वेतन की रकमों में अधिकांश पांच सौ और हजार के नोट होते हैं, कोई दिहाड़ी मजदूर कुछ कमाकर सप्ताह का भुगतान लाया होगा तो वह यदि ऐसे ही बड़े नोटों में हो, दो पांच-दस हजार रुपये बड़े नोटों की शक्ल में लेकर यात्रा पर निकले लोग, परिजनों की हारी-बीमारी के इलाज लिए अपने घर-बार से दूर आ गये लोग, ऐसे लोग सुविधा के लिए बड़े नोट लेकर ही घर छोड़ते हैं, इन सभी लोगों के साथ सरकार ने अपने इस फैसले से क्या कर दिया, इसका अंदाजा है किसी को। घर में छिपाकर कुछ रकम रखने वाली स्त्रियों की साख दावं पर लगवा दी, गरीब के पास बड़े नोटों में रकम है लेकिन वह आटा तक नहीं खरीद सकता। यात्रा में गया व्यक्ति ना गंतव्य तक लौटा सकता है और ना ही पेट की आग बुझा सकता है। यात्रा करने वालों में 60 से 80 प्रतिशत तक लोग बिना रिजर्वेशन के तत्समय टिकट लेकर ही यात्रा करते हैं। पैसा है लेकिन दवाई नहीं खरीद सकते। बिना इन सब पर विचार किए सरकार ने अपनी 'सनक' में यह फैसले कैसे ले लिया? सरकार को कम से कम सामान्य और जरूरी खरीद-फरोख्त के लिए एक महीने का समय तो देना ही चाहिए था, चाहे इस समय का दुरुपयोग अवैध धन वाले लोग थोड़ा-बहुत भले ही कर लेते। ऐसे चन्द लोगों को सबक देने भर को आबादी के एक बड़े हिस्से को सरकार ने किस विकट अवस्था मैं पहुंचा दिया, ऐसे समय का फायदा उठाकर कुछ लोग नोटों की कालाबाजारी में लग औने-पौने दामों में नोट लेने लगे हैं। बावजूद इस सबके अवैध धन उपार्जन में लगे लोगों का कुछ बड़ा बिगाड़ नहीं होगा।
यह सारी कही के बावजूद जिस देश की आबादी का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा वैसा है जो ऐसे आदेशों से पूरी तरह अप्रभावित है क्योंकि उनके पास ना तो रहने को छत है ना दूसरे दिन शाम के लिए तय कि वे क्या खाएंगे और अपने बच्चों को क्या खिलाएंगे, बावजूद इसके आबादी का वह पांच-दस प्रतिशत हिस्सा सरकार के इस कदम से  इसलिए खुश और सहज है, उनका तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन अवैध धन-पिशाच संकट में आ गये। ऐसे लोगों के लिए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी मानसिकता कुएं के मेंढक सी बना ली है इसलिए वे बाहर का असल देख ही नहीं पाते या कहें ऐसे लोगों की नजर आबादी के असल पीड़ितों और प्रभावित पर पड़ती ही नहीं है।
सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि ऐसे फैसलों की क्रियान्विति ऐसे सनकी तरीकों से नहीं करें। ये सरकारें वोटों के जिस बड़े हिस्से से चुनकर आई हैं, उनमें यदि लोक कल्याण की भावना नहीं भी है तो कम कम से कम यह ख्याल तो रखें कि आबादी का बड़ा हिस्सा इस तरह पीड़ित तो न हो।
                                                         --दीपचंद सांखला
10 नवम्बर, 2016

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