Thursday, October 13, 2016

कांग्रेस : बींद रे मूंडे सूं लार पड़े तो जानी बापड़ा कांई करे

इसी 13-14 अक्टूबर को प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेता बीकानेर में हैं। प्रदेश कार्य समिति की बैठक और सेवादल का प्रदेश सम्मेलन जैसे कार्यक्रम बीकानेर में रखे गये हैं। दरअसल कांग्रेस की फिलहाल स्थिति वैसी है जैसी लोक में प्रचलित कैबत के हवाले से उक्त शीर्षक में बताई गई है।
पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को इतनी समझ है कि पार्टी हित में उन्हें किस तरह के लोगों की सलाह पर चलना है। अस्वस्थता के चलते सोनिया लम्बे समय से पार्टी की नीति निर्धारण प्रक्रिया से लगभग अलग हैं। ऐसे में पार्टी की कमान उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हाथ ही है। पिछले चालीस वर्षों से बजाय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के वंशानुगतता से ग्रसित कांग्रेस की इस समय सबसे बड़ी प्रतिकूलता यही है कि उसे विरासत में मिले राहुल गांधी को ना व्यावहारिक राजनीति की समझ है और ना ही लोक के मिजाज की। ऐसे में उनसे यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि पार्टी में ऐसे लोगों को पहचानने की समझ उनमें होगी जिससे पार्टी के हित साधे जा सकें। देश हित की बात तो दूर की है। यही वजह है कि पार्टी के वे सब नेता निष्क्रय हैं जो विपक्ष की भूमिका संजीदगी से निभा सकें। भाजपा सरकारों की अकर्मण्यता, आवाम के खिलाफ उनकी करतूतों और देश की तासीर को बदलने की हरकतों और बयानों का सटीक तरीके से जवाब देने और उघाडऩे जैसी सक्रियता के मामले में कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व और उसके प्रवक्ता पूरी तरह असफल हैं।
देशीय फलक पर देखें तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं इस समय उस दोराहे के केन्द्र बिन्दु पर ठिठकी हुई हैं जिस पर भाजपा और कांग्रेस जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियां लौट कर आ ठहरती हैं। तीसरे विकल्प की ना उम्मीदी की ऐसी पस्थितियों में विकास के मुद्दे पर शासन में आई भाजपा देश की तासीर के उलट जहां संकीर्णता के असल ऐजेन्डे को लागू करने जुटी है वहीं कांग्रेस राहुल गांधी के नाकारा नेतृत्व में लोकतांत्रिक व्यवस्था में जरूरी विवेकी और मजबूत विपक्ष की भूमिका में कहीं नजर नहीं आ रही। कांग्रेस से ऐसी उम्मीदें तब दूर की कौड़ी लगने लगी जब वह अपने अस्तित्व को बचाए रखने तक के लिए तर्कसंगत व्यवहारिक राजनीति करती भी नजर नहीं आई।
भाजपा जिसे अब मोदी पार्टी कहना ही उचित होगाजिन वादों और उम्मीदों के बूते सत्ता में आई उन पर खरी उतरना तो दूर की बात, उन्हें पूरा करने की कोशिश करती भी नजर नहीं आती। मोदी सरकार ने अब तक जो किया उसे पिछली सरकार के समय की अपनी करतूतों को धोना ही कहा जायेगा। जिन-जिन विधेयकों का संपं्रग की सरकार पर्याप्त बहुमत के अभाव तथा भाजपा के नकारात्मक रवैये के चलते पारित न करवा पायी उन्हें इस राज में पारित करवाने को भाजपा उपलब्धियों माने तो भले ही माने। इस उल्लेख के ये मानी कतई नहीं कि वे सारे विधेयक कांग्रेस भी अवाम हित में लाई हो। अलावा इसके वर्तमान सरकार ने पिछली सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं को नाम बदल कर पुन: प्रस्तुत इस तरह किया मानों अब सचमुच उन पर पर्याप्त अमल होगा। लेकिन जनधन, सब्सिडी का खातों में सीधा ट्रांसफर, स्वच्छ भारत को बदले नाम से और मनरेगा तथा आधार जैसी योजनाओं का नाम भले ही ना बदला हो, इन सब का हश्र क्या हुआ, जानना ज्यादा मुश्किल नहीं है। भाजपा के शासन के बाद देश में किसानों की आत्महत्याओं और स्त्रियों के साथ दुष्कर्मों में बढ़ोतरी, सरकारी कार्यों के लिए रिश्वत की दरें लगभग दोगुनी होना और महंगाई से कोई राहत ना मिलना भाजपा सरकारों के शासनिक और प्रशासनिक निकम्मेपन की बानगियां हैं। मोदी और अमित शाह के चहेते औद्योगिक घरानों को फलने-फूलने की भारी अनुकूलताएं देना जैसे मुद्दे हैं जिन पर कांग्रेस या अन्य विपक्ष शासन पर दबाव बना सकता है। लेकिन इन सब पर कांग्रेस सहित विपक्ष की चुप्पी यह सन्देश देने के लिए पर्याप्त है कि वे भी ऐसा ही चाहते रहे हैं लेकिन उनमें यह सब बेधड़क करने का साहस नहीं है। यह भी कि सामाजिक समरसता वाली देश की तासीर को बदलने के कुत्सित प्रयासों में इस शासन में जिस तरह बढ़ोतरी हुई, ऐसी करतूतों पर भी कांग्रेस और अन्य विपक्ष की चुप्पी उनके असल चरित्र पर संदेह पैदा करती है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास ऐसे नेता और प्रवक्ता नहीं हैं जो सशक्त, तार्किक और विवेकमयी विपक्ष की भूमिका निभा सकें बल्कि राहुल गांधी जैसे नेता के पास वैसे पार्टीजनों को पहचानने की कुव्वत ही नहीं। कांग्रेस को डूबते देखना लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण इसलिए कह सकते हैं कि ऐसी शासन प्रणालियों में विपक्ष की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती।
राहुल गांधी यदि कांग्रेस पार्टी की मजबूरी हैं तो कांग्रेस को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा। हां, यह बात अलग है कि देश वर्तमान शासन की करतूतों से भी गले तक वैसे ही धाप जाए जैसे 2013-14 के चुनावों में कांग्रेस से धापा हुआ था और मोदी जैसे नेता के भ्रमों में आ जाए। वैसी ही मजबूरी में अगले चुनावों में जनता यदि राहुल गांधी के अधकचरे नेतृत्व में कांग्रेस को फिर चुन लेगी तो उसे आदर्श विकल्प ठीक वैसे ही नहीं कहा जायेगा जैसे वर्तमान में मोदी सरकार को नहीं कहा जा सकता।
गेंद अब जनता के पाले में है। ऐसे में उसे या तो कोई तीसरा विकल्प खड़ा करना होगा, तीसरा विकल्प यदि नहीं दिखता है तो 'नोटा' का प्रयोग कर दोनों को नकारना होगा। लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने का रास्ता इसी से होकर निकलेगा, समय भले ही लगे। अन्यथा देश जिन परिस्थितियों को भुगत रहा है, उससे भी ज्यादा भयावहता सामने आएगी जिन्हें भी भुगतने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होगा।

13 अक्टूबर, 2016

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