Thursday, October 20, 2016

रोटरी क्लब के आयोजन के बहाने कुछ यूं ही और कुछ राजस्थानी पर

अक्टूबर की 19 और 20 तारीख को रोटरी क्लब की ओर से राजस्थानी भाषा पुरस्कार समारोह आयोजित किया जा रहा है। चार विभिन्न परिवारों के प्रायोजन से राजस्थानी में सृजनरत तीन लेखकों और एक शोधार्थी को तय राशि और विभिन्न औपचारिकताओं के साथ सम्मानित किया जायेगा। सृजनात्मक विधाओं के ऐसे सामाजिक संज्ञान के लिए प्रायोजक परिवार धन्यवादी इसलिए भी हैं कि उन्होंने अपने अर्जित में से विसर्जन के लिए सृजनात्मक विधाओं को चुना है।

जैसी कि जानकारी है कि इन पुरस्कारों के चयन प्रक्रिया की शुरुआत सृजक के आवेदन से होती है। यदि सचमुच ऐसा है तो भविष्य में प्रक्रिया की इस अशालीन शुरुआत से बचना चाहिए। चाहें तो साहित्य अकादमी, दिल्ली की चयन प्रक्रिया को कुछ पेचीदगियों को छोड़ अपनाया जा सकता है। अलावा इसके इस बार तीन पुरस्कार राजस्थानी साहित्यकारों और एक राजस्थान के शोधार्थी को दिया जा रहा है। आगे से इसमें यह हो सकता है कि साहित्यकारों को दिए जाने वाले तीन में से एक पुरस्कार अन्य सृजनात्मक विधाओं के लिए और एक भाषा पर विशेष काम करने वाले को दिया जाय। बल्कि सर्वोच्च सम्मान राजस्थानी भाषा के लिए उल्लेखनीय काम करने वाले सृजक को ही दिया जाना चाहिए। साहित्यकारों के लिए राजस्थानी में पुरस्कार पहले से ही इतने हैं कि हिन्दी को छोड़ दें तो किसी भी अन्य भारतीय भाषा के साहित्कारों के लिए शायद ही हो। राजस्थानी को भाषा के रूप में प्रतिष्ठ करने का कोई महत्ती काम इस कालखण्ड में हो रहा है तो प्रकाश में नहीं है। यदि नहीं हो रहा है तो उसके लिए साहित्य अकादेमी, दिल्ली की राजस्थानी समिति, सूबे की राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी और राजस्थानी के नाम पर चल रही अन्य अनेक संस्थाएं भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। खैर, चर्चा का यह दूसरा मुद्दा है जिन पर विस्तार से बातें पहले भी की जा चुकी हैं।

इस आयोजन के पुरस्कार प्रदान सत्र में मुख्य और विशिष्ट अतिथियों के तौर पर रियासतकालीन जोधपुर के शासकों के उत्तराधिकारी दम्पती को बुलाया गया है। इन्हें बुलाए जाने पर कोई ऐतराज भला क्यों करेगा। यह आयोजकों के निजी विवेक का मसला है, वे चाहे जिन्हें आमंत्रित करें। खटकने वाली बात निमन्त्रण पत्र में उन्हें दिए गए सम्बोधनों से है। हिज हाइनेस महाराजा और हर हाइनेस महारानी जैसे सम्बोधन बीते युग की बात हो गए हैं। आश्चर्य की वजह यह भी है कि यह क्लब संस्कृति जिस पश्चिम से आई, उसी पश्चिम से शेष दुनिया तक आधुनिक दौर की लोकतांत्रिक बयार भी पहुंची है, बावजूद इसके इन क्लबों के आयोजनों में लोकतांत्रिक मूल्यों का कोई ख्याल नहीं रखा जा रहा। तथ्यों पर गौर करें तो अपने देश में ही राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए महामहिम जैसे सामन्ती सम्बोधन वर्जित कर दिए गए हैं। ऐसे में इस तरह के हास्यास्पद और चापलूस सम्बोधनों से आयोजक बचते तो ज्यादा गरिमामय होता। जिन्हें तब सेठ कहकर सम्बोधित किया जाता था उनके लिए  इस निमंत्रण पत्र में उद्योगपति और समाजसेवी जैसे संबोधन काम में लिए ही गये हैं। देश को आजाद हुए सत्तर वर्ष हो रहे हैं, नहीं जानता हमारा यह तथाकथित पढ़ा-लिखा और समृद्ध समाज गुलामी की इस तरह की खुमारियों से कब मुक्त होगा।

इसी तरह आयोजन के निमन्त्रण पत्र में पदनाम परिचय के साथ दो विशिष्ट व्यक्तियों को जिस तरह 'फिट' किया गया है उससे साफ लगता है कि क्षेत्र के दो बड़े अखबारों के प्रभारी संपादकों को तुष्ट केवल इसलिए किया जा रहा है कि आयोजन को पूरा कवरेज मिल सके। आयोजक चाहते तो कार्ड में इनके पदनाम ना देकर इनकी निजी सृजनात्मक और पत्रकारीय उपलब्धियों पर आधारित विशेषण देने की चतुराई बरत सकते थे, जो उल्लेखित महानुभावों ने अर्जित कर ही रखी है। वैसे भी किसी महत्त्वपूर्ण आयोजन की व्यवस्थित विज्ञप्ति यदि मीडिया तक पहुंचती है तो उसे सामान्यत: प्रकाशित-प्रसारित किया ही जाता है। हां, यह जरूर है कि डेस्क संभालने वाला या प्रभारी संपादक का आयोजन से कोई निजी दुराग्रह नहीं हो। इस दूसरे उल्लेख से समाज के मोजिजों को आगाह करने का आग्रह बस इतना ही है कि पत्रकार-पेशेवरों के तालवे में गुड़ चिपकाने से परहेज करना चाहिए। समाज में जब टोका-टोकी और आलोचना सामान्यत: गायब होती जा रही है, ऐसे में मीडिया मालिकों के पूर्ण व्यावसायीकारण के बावजूद पत्रकारीय पेशे में जो आलोचक भाव थोड़ा-बहुत बचा है, उसे बचाए रखने की जिम्मेदारी इस समाज की भी है। अन्यथा सभी एक-दूसरे को चाटने में लग गये तो स्वाद बताने वाला ही नहीं मिलेगा। समाज में मिनखों की समझ को बचाए रखना अब ज्यादा जरूरी लगने लगा है।

यह आलेख जब तक लोगों की नजरों में आयेगा तब तक यह आयोजन लगभग पूर्ण हो लेगा। इसलिए यह मान लेना व्यक्तिगत संतोष की ही बात है कि रंग में भंग डालने के आरोप से तो बच ही गया होऊंगा।

20 अक्टूबर, 2016

4 comments:

Hariish B. Sharma said...

मेरे मन की बात, इससे बेहतर तो मैं कभी भी नहीं समझा पाता जैसे आपने अभिव्यक्त की। बधाई तो क्या दूं...प्रणाम!

Deep Chand Sankhla said...

😊

amit sharma said...

नि:शब्द। सटीक विश्लेषण। राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए पाश्वात्य संस्कृति की तर्ज पर जो तंज आपने कसा है....। इस मामले में मैं नाबालिग हूं, फिर भी पूर्णत: सहमत।

Rajendra said...

बहुत हई उम्दा टिप्पणी। राजा महाराजाओं को इतिहास के कूड़ेदान से निकाल कर फिर से प्रतिष्ठित किया जा रहा है। इसकी फ़िक्र जताने के लिए अआभार।