Thursday, March 19, 2015

आइएएस डीके रवि की मौत के सबक

हमारे शासक और सभी राजनेता घरेलू इंडोर खेलों में प्रचलित नीबू दौड़ के प्रतिभागी की स्थिति में हैं चम्मच पर रखे नीबू पर टकटकी की तरह कुर्सी पर नजर रखने के अलावा अन्य कहीं ये अपने को एकाग्र ही नहीं कर पाते हैं। अंग्रेज जब भारत को मण्डी बनाने आए तब भी राजा-बादशाहों और ठाकरों की कमोबेश यही स्थिति थी। क्यों हो, यह कुर्सी है तो साधन है, सुविधाएं हैं और ऐयाशी के सरंजाम हैं। चार सौ साल से पहले ऐसा होता था तब आम-अवाम का इतना बस नहीं था। अब तो शासक को आम-अवाम ही चुनती है, तब भी वह भुगत रही है तो दोष आम-अवाम का ही माना जायेगा।
कहने को शासन को प्रशासन चलाता है यानी देश-प्रदेश की प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारीगण, लेकिन क्या सचमुच ऐसा है जिस तरह की परीक्षाओं और प्रशिक्षणों से निकल कर ये लोग आते हैं उससे उनका मन चाहे संवेदन गति को हासिल हो, चतुर वे सांगोपांग हो लेते हैं, कभी ये चकारिए में फंसते भी हैं तो अति लालच में ही अन्यथा ये यह भली भांति जानते हैं कि इन शासकों और राजनेताओं से अपने को किस तरह हंकवाना है। मान सकते हैं इनमें बहुत से भ्रष्ट भी होते हैं, कुछ ज्यादा तो कुछ कम कुछ जो खुद भ्रष्ट नहीं भी होते लेकिन अपनी तय सीमा में इन शासकों और उनके गुर्गों के किए खरे-खोटे में सहायक हो लेते हैं। कुछ अडिय़ल अधिकारी ऐसे भी होते हैं जो ऐसे 'पापों के भागी' हरगिज नहीं होना चाहते। दरअसल ऐसे ही मानसिक समस्याओं से घिरे रहते हैं। ऐसे नये लगे अफसरों का हश्र कर्नाटक के आइएएस डीके रवि या मध्यप्रदेश काडर के युवा आइपीएस अधिकारी जिन्हें ट्रैक्टर ट्रॉली के नीचे देकर खत्म कर दिए गया, जैसा ही होता है। ऐसे अधिकारी शुरुआती नौकरी से सुरक्षित निकल लिए तो किसी ऐसी पोस्टिंग की फिराक में रहते हैं जिन्हें ठण्ड या बर्फ में लगना बोलते हैं। बावजूद इसके इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका जमीर राज में हो रहे कबाड़ों को बर्दाश्त नहीं कर पाता। इनमें से कई ऐसी अच्छी भली मानी जाने वाली नौकरी ही छोड़ जाते हैं तो कुछ छोडऩे का मन बनाए बैठे रहते हैं। इस तरह उनकी प्रतिभा कुन्द हो लेती है।
डीके रवि का मामला शासकों के लिए खतरे की घण्टी है। वे यदि संयमित नहीं होंगे तो देश नई तरह की गुलामी में फंस जाएगा-यानी सबलों-समर्थों की गुलामी। वह भी तब जब उन्हें चुनने वाले अधिकांश वोटर निर्बल हैं और वोटर  हैं कि अपने वोट के महत्त्व को समझने को तैयार ही नहीं है। वह अपने वोट की ताकत का भान सरकार में दलों को बदल कर जरूर कर लेता है लेकिन जो भी जो भी शाषन में आता है उसकी नजर चम्मच में रखे नीबू की तरह कुर्सी पर ही रहती है।
कर्नाटक जैसे हादसे राजस्थान में होने लगने में सदियां नहीं लगेगी। बीकानेर की ही बात करें तो तो यहां के जिप्सम माफियाओं, और राजनेताओं को इतना दुस्साहस तो हासिल हो ही गया है कि वे कांस्टेबल, इंस्पेक्टर और सामान्य कार्मिक को कुचलने का मन बनाने लगे हैं। ऐसे मैले मन के लोग दुस्साहस की सीढिय़ां चढऩे का हौसला जल्द ही हासिल भी कर लेते हैं। ऐसे में वे मान लेते हैं कि संबंधित अधिकारी, कार्मिक या तो अपनी हिस्सा पांती लेकर इन्हें मनमरजी का काम करने दे अन्यथा जो आज इंस्पेक्टर को कुचलवा सकता है वह कल आइपीएस, आरएएस को कुचलवाने में संकोच नहीं करेगा। कर्नाटक यहां से ज्यादा दूर नहीं है और कहते भी हैं कि बुराई की गति अच्छाई से कई गुना अधिक होती है।
इलाके को लगभग खोद दिया गया है, जिप्सम को पकाने के लिए पेड़ अंधाधुंध कट रहे हैं, सम्बन्धित और जिम्मेदार या तो आंखें मीचे हैं या फिर आंखों पर प्रलोभन की पट्टियां बांधी हुई है। पर्यावरण नष्ट हो रहा हो तो फूटे आने वाली पीढिय़ों के। इस सब के लिए यहां लगे अधिकारियों से ज्यादा यहां के नेता जिम्मेदार हैं, जो ऐसा होने दे रहे हैं या खुद उसमें भागीदार हैं?

19 मार्च, 2015

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