Saturday, March 14, 2015

जाकी रही भावना जैसी, सोशल साइट्स देखी तिन तैसी

यद्यपि देश की तीन चौथाई आबादी इस क्षमता में ही नहीं है कि वे सोशल साइट्स जैसे नये मीडिया को काम में ले सके, फिर भी सुकून वाली बात यह है कि इन सोशल साइटों में बहुत से ऐसे सक्रिय मिल जाएंगे जो देश, समाज या कहें इसी बहाने पूरी मानवीय सभ्यता पर सकारात्मकता से विचारते हैं। बावजूद इसके कि इन सोशल साइटों पर प्रत्येक की रुचि-कुरुचियों से संबंधित पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। यह भी कि उनसे अपने विवेक को पुष्ट करने वाले भी मिल जाएंगे तो अपने लालचों, लालसाओं और बीमार मन का कुपोषण करने वाले भी।
ऐसे में ज्यादा विचलन उनमें देखा गया जिनका अपना कोई विवेक नहीं होता, जिस रेले में शामिल हो लिए उसी दिशा में अग्रसर होते रहते हैं। अचानक कोई ठिठकन आई तो ठीक, अन्यथा उसी दिशा में ठरकीजते भी रहते हैं।
कुछ ऐसे भी धीर-गंभीर होते हैं जो मर्यादा विशेष में बंधे होने के चलते मुखर तो नहीं हो पाते लेकिन इन सोशल साइटों ने इतनी गुंजाइश तो दी ही है कि व्यक्तिगत सन्देशों के जरिए कोई अपनी अमूजणी से हल्का हो सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के साथ इन दिनों जो घटित हो रहा है, उसके लिए उन्हें निर्दोष नहीं ठहराया जा सकता लेकिन उनकी भलमनसाहत ही है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उनसे काव्यात्मक तुलना हमें एक सोशल साइट्स मित्र की इन पंक्तियों में नजर आई
दो दल आमने-सामने थे
दोनों में अबोलेपन बनाम बड़बोलेपन की तकरार थी
वह सत्ता बनाम जनता की भी थी
वह नये बनाम पुराने की भी थी
युवा बनाम प्रौढ़ की भी थी
बहुचर्चित सरल बनाम शोशे के परिधान की भी थी
बहुत शिक्षित के ठेठ बनने या ठेठ के संभ्रान्त दिखने की भी नहीं थी
वरन् छवि गढऩे-टूटने की थी।

पहले वाले
स्वयं की छवि के लिए बहुत कुछ छोडऩा जानते थे
दूसरे वाले
स्वयं की छवि के लिए
किसी के लिए कुछ भी नहीं छोडऩा चाहते थे।

दोनों अपने शीर्ष काल में थे
परंतु दोनों में सद्य-संकट शुरू हो गये
दोनों के दावँ गलत जा रहे थे।

जो दूसरे थे
वे बहुत एकरूप विचार होने का संकट पा रहे थे
जो पहले थे
वे बहुत बहुरूप विचार होने का संकट पा रहे थे
फ्लेचर कह गए हैं
'राज चलाना राजनीति चलाने से कठिन है
क्योंकि
तब सामंजस्य जनता से नहीं, जननेता से करना पड़ता है।'

जो हो
पहले ने निराभिमानता का संकल्प लिया था
अपने संघर्ष में सीपी का संयम सहेजा
इसलिए सत्ता का मोती सहज ही पा लिया
परंतु
दूसरे सब्र की बजाय गुमान के पुरोधा थे
बहुत आत्मविश्वास रखते-दिखाते थे
पुराने संघर्ष को नये शंखनाद का स्वर बनाया था।

बड़बोलेपन और मसखरेपन में बहुत फर्क नहीं होता
कम से कम
मसखरेपन में बोलनेवाले को तो पता होता है कि
बात हँसने की है
मगर
बड़बोलेपन में बोलनेवाले को पता ही नहीं होता कि
जो शंखनाद वे कर रहे हैं
वह अब आह्लाद जगा रहा है, उन्माद।

एक पुरानी कहानी है, शंख की
किसी साधक ने तप कर भगवान को प्रसन्न किया
भगवान ने उसे एक शंख दिया
जो उसकी हर जरूरत को पूरा कर सकता था।

वह शंख लेकर चला ही कि
राह में कोई भगवद्-गण मिल गया
विष्णु के नारद की तरह
शिव के भैरव की तरह
उसने समझाया
भगवान का शंख तो जरूरत भर का देता है
मगर उसके पास दूसरा शंख है
वह मुँहबोला है
जो माँगो दुगना देता है
चाहे तो उससे बदल ले।

साधक बहलावे में गया
उसने भगवान के शंख को उनके गण के शंख से बदल लिया।

घर पहुँच कर जब उसने शंख से माँगा
'एक नया घर दे दो'
तो शंख से आवाज आई
'दो घर ले लो'
खुश साधक ने कहा
'अच्छा दो दे दो'
शंख से आवाज आई
'चार ले लो'

साधक जान गया
वह अपने मुँहबोले शंख के बड़बोलेपन से ठगा गया है,
वह जो गण कुछ बेहतर देने आया था
बस, दगा देकर गया है।

जनमानस जाने कब जान पाएगा
लेनिन कह गए हैं
जो भी निर्वाचित होते हैं
वे जनता के वर्ग के नहीं रह जाते,
वरन् सत्ता के वर्ग के हो जाते हैं
और
लोहिया के शब्दों में
क्रांति के जननायक सब कुछ करते हैं,
बस जनता की पीठ से उतरना भूल जाते हैं।

14 मार्च, 2015

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