Saturday, March 28, 2015

आम आदमी पार्टी की गत और चुनौती भरा दिन

दो साल पहले बनी आम आदमी पार्टी की आज राष्ट्रीय परिषद की बैठक थी। आशंका के अनुसार यह बैठक इस पार्टी के लिए ऐतिहासिक रही। ऐतिहासिक इस मानी में कि जब से इस पार्टी ने ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता संभाली तभी से  दो धड़ों में बंटी हुई थी। एक धड़ा वह जो वैचारिक आधार और धैर्य से सब-कुछ करने में विश्वास रखता है, जिनमें योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण और प्रो. आनन्दकुमार जैसे लोग हैं, जिनकी पिछले बीस से चालीस वर्षों से साख और पहचान है। दूसरे धड़े के मुखिया कांग्रेस द्वारा निर्मित और भाजपा द्वारा पोषित शासन व्यवस्था से उकताए ऐसे लोगों का जमावड़ा है जो इस व्यवस्था से छुटकारा चाहते हैं जिनका अविचारी सद्इच्छाई कल्पनालोक है जिन्हें लगता है कि वे सब-कुछ ठीक कर देंगे। इनका नेतृत्व सात-आठ वर्ष पहले तक बड़े अधिकारी के रूप में इसी व्यवस्था के हिस्सा रहे और बंधे-बंधाए भ्रष्ट ढांचे में अपने को फिट नहीं मान कर इस्तीफा दे आए अरविन्द केजरीवाल हैं। 2011 में शुरू हुए अन्ना आन्दोलन से पहले तक केजरीवाल एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से सक्रिय थे। ऐसे एनजीओ को चलाने वाले अधिकांश को ऐसा लगता है कि उनकी नीयत साफ है और अच्छे उद्देश्य के लिए कुछ समझौते करने भी पड़े तो अनुचित नहीं है, गड़बड़ कहें या स्खलन यहीं से शुरू हो जाता है। बिना किसी वैचारिकी आधार के या छिछली वैचारिक समझ के ऐसे लोगों की मंशा शुरूआत में तो ठीक रहती है, लेकिन संगठन को चलाने और खुद को निश्चिंत रखने की फिराक में इनकी कथनी-करनी में अंतर लेता है। ऐसे ही व्यक्तित्व अरविन्द केजरीवाल हैं।
दिल्ली में होने और अन्य अनुकूलताओं के चलते मीडिया के माध्यम से केजरीवाल की ठीक-ठाक हैसियत बन गई। अन्ना आन्दोलन शुरू हुआ तो उससे जुड़ गये। पहले की बनी हैसियत काम आई और मंचासीनों में शामिल हो गये। मनमोहन सरकार की लगातार गिरती साख से उद्वेलित सक्रिय युवकों को दिल्ली में हुए दामिनी कांड ने आक्रोशित कर दिया। ऐसे अधिकांश अन्ना के साथ हो लिए।
आन्दोलन की शुरूआत से ही अन्ना हजारे की मंशाओं में वैचारिक आधार की कमी और उनके साथ जुड़े अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी जैसों की सीमाओं का जिक्र 'विनायक' अपने इसी कॉलम में 2011 से कई बार कर चुका है। इस बात की तकलीफ है कि इन सबके बारे में विनायक की आशंकाएं सच साबित हो रही हैं।
आम आदमी पार्टी का संकट असल में तौर-तरीकों का संकट है। योगेन्द्र, प्रशांत और आनन्द जैसे पुराने लोगों का मानना है कि हम जिन तौर-तरीकों को गलत बता कर इस मुकाम तक पहुंचे हैं, अब जब राज में गये हैं तो हमारी जिम्मेदारी है कि उनसे संक्रमित होने से बचें। इसलिए जरूरी है कि मर्यादाएं तय कर ली जाएं और उन पर कायम रहने को यत्नशील रहें। दूसरी और भारी भरकम जन समर्थन को अपनी व्यक्तिगत उपलब्धि मान बैठे केजरीवाल की 'सुप्रीमो' मानसिकता बलवती हो गई। केजरीवाल का मानना है कि मेरी नीयत ठीक है इसलिए इस तरह के निर्देश और टोका-टाकी बर्दाश्त से बाहर है केजरीवाल भूल रहे हैं ।कि यह सामन्तीराज नहीं है जहां राजा की इच्छा अन्तिम होती थी। शासन संवैधानिक नियम कायदों से मर्यादित है तो प्रशासन को भी न्यायपालिका की ओट मिली हुई। चूंकि एक राजनीतिक पार्टी को जनादेश मिला है तो उसका संगठन हजारों लोगों का समूह है, जिनके विचार, मंशाएं, आशाएं और अपेक्षाएं भिन्न-भिन्न हैं। इनसे ऊपर भी वे आम मतदाता हैं जिन्हें आपने इतनी उम्मीदें दे दीं जो किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं। मान लेते हैं कि अरविन्द केजरीवाल सद्इच्छाई हैं--हालांकि मुख्यमंत्री बनने के बाद से उनके द्वारा ओढ़े घुन्नेपन से यह जाहिर नहीं हो रहा है--अकेले उनके सद्इच्छाई होने से सब कुछ ठीक हो जायेगा ऐसा संभव नहीं, तब और भी नहीं जब उनके साथ मनीष सिसोदिया, संजयसिंह, आशुतोष और गोपालराय जैसे लोग हनुमान की मुद्रा में लिए हैं। राम और हनुमान का युग पौराणिक त्रेता का युग माना गया, व्यवस्था तब पितृसतात्मक सामन्ती थी। आज हनुमानों की नहीं आलोचकों की जरूरत है और केजरीवाल पार्टी में आलोचकों से इतना खीज गये हैं कि अपनी घुन्नी अवस्था में जब बोले तो आपा ही दे दिया। अपने आलोचकों को साला, कमीना कहना केवल अक्षम्य है बल्कि अरविन्द केजरीवाल के उन तथाकथित उच्च संस्कारों को भी दर्शाती है जिनमें स्त्री और कमजोर वर्ग को हेय माना गया है। साला शब्द पत्नी के भाई के लिए उपयोग होता है और पत्नी का भाई है इसलिए वह गाली खाने लायक है। इसी तरह कमीना शब्द कमजोर वर्गों को दुत्कारने या गाली देने का शब्द है।
आम आदमी पार्टी का प्रयोग असफल होता है तो भाजपा और कांग्रेस से उकताए लोगों की उम्मीदें टूटेंगी। जैसा कि 'विनायक' ने पहले भी लिखा है कि यदि ऐसा हुआ तो जनता भाजपा और कांग्रेस को फिर भुगतने की मंशा बनाने को मजबूर होगी और हो सकता है कि कई बरसों तक वह किसी अन्य से उम्मीदें लगाए ही नहीं।
केजरीवाल गुट ने आज की राष्ट्रीय परिषद की बैठक के लिए जिस तरह अपने समर्थक विधायकों को हिदायतें दी उसी तरह वे अपने समर्थकों से भरी बसों के साथ आए और बैठक स्थल पर योगेन्द्र, प्रशान्त और आनन्द जैसे लोगों के खिलाफ केवल नारेबाजी की बल्कि हाथापाई पर ही उतर आए। बैठक में अरविन्द केजरीवाल के अलावा किसी को बोलने नहीं दिया गया। केजरीवाल अपना भाषण खत्म कर तुरन्त रवाना हो लिए। पीछे हंगामें के बीच योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, प्रो. आनन्द कुमार और अजीत झा को परिषद से निकाल देने का प्रस्ताव पारित दिया गया। काश 'विनायक' की यह आशंका तो निर्मूल साबित होती!

28 मार्च, 2015

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