Friday, January 9, 2015

भगतसिंह की शहादत और महात्मा गांधी ---शिवदत्त

यह असत्य एवं भ्रामक प्रचार है कि गांधीजी ने भगतसिंह उनके  साथियों को बचाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। 7 मार्च, 1931 को दिल्ली में आयोजित एक सार्वजनिक सभा में गांधीजी ने स्पष्ट रूप से कहा था किसमझौता (गांधी-इर्विन समझौता) करते समय हम जितना दबाव डाल सकते थे, उतना हमने डाला। हम लोग सत्य और अहिंसा के अपने प्रण और न्याय की सीमाओं को नहीं भूल सकते थे।गांधीजी इसी भाषण में आगे कहते हैंउन सबको अर्थात् भगतसिंह उनके  साथियों को रिहा कराने का रास्ता अब भी खुला है। आप समझौते को कार्यरूप दें तो ऐसा हो सकता है।
भारत की आजादी के लिए गांधीजी देश में अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे और अहिंसा उनके  लिए नीति ही नहीं धर्म भी था इसलिए वे हिंसा का समर्थन भला कै से कर सकते थे? गांधीजी ने यंग इण्डिया नामक युवकों के  संगठन के  प्रश्नों के  जवाब में उपरोक्त भाषण में कहा था किइन चीजों को मांगना आसान है पाना नहीं। आप उन लोगों की रिहाई की मांग करते हैं जिन्हें हिंसा के आरोप में फांसी दी गई है। यह मांग करना कोई गलत बात नहीं है। मेरा अहिंसा धर्म चोर-डाकुओं और यहां तक कि हत्यारों को सजा देने के पक्ष में नहीं है। भगतसिंह जैसे बहादुर आदमी को फांसी पर लटकाने की बात तो दूर रही, मेरी अंतरात्मा तो किसी को भी फांसी के  तख्ते पर लटकाने की गवाही नहीं देती। परन्तु मैं आपको बता दूं कि आप भी जब तक समझौते की शर्तों का पालन नहीं करते, उन्हें बचा नहीं सकते।गांधीजी वायसराय के  साथ हुए समझौते के  अनुसार भगतसिंह उनके साथियों को उस स्थिति में ही बचा सकते थे जबकि भगतसिंह उनके साथी हिंसा छोड़ने का अपना निश्चय सार्वजनिक रूप से प्रकट करतेजिसके लिए वे तैयार नहीं थे।
गांधीजी ने हिंसा के रास्ते पर चलकर अहिंसा के  मार्ग को क्यों अपनाया इसको स्पष्ट करते हुए उन्होंनेयंग इंडियाके  युवकों से साफ तौर पर कहा था कियदि आपको हिंसा पर ही विश्वा है तो मैं आपको निश्चयपूर्वक बता सकता हूं कि आप भगतसिंह को तो नहीं छुड़ा सकेंगे, बल्कि आपको भगतसिंह जैसे और हजारों लोगों का भी बलिदान करना पड़ेगा। मैं वैसा करने को तैयार नहीं था और इसलिए मैंने शांति और अहिंसा का मार्ग ज्यादा बेहतर समझा।गांधीजी ने आगे कहा कियदि आप कैदियों की रिहाई चाहते हैं तो अपने तरीके  बदल डालिए और समझौता मान लीजिए।
गांधीजी जिनके लिए अहिंसा केवल राजनीतिक अस्त्र नहीं था, केवल नीति नहीं थी बल्कि सम्पूर्ण जीवन का धर्म थी, उस समय वायसराय को भला क्या जवाब देते तब वायसराय ने उनसे 18 फरवरी, 1931 की अपनी बातचीत में प्रश्न किया था किभगतसिंह उनके साथियों की फांसी की सजा रद्द करने के बारे में कोई ऐसा तर्क है जिसे इतने ही जोरदार ढंग से किसी अन्य हिंसक अपराध के मामले में पेश किया जा सकता हो। वायसराय आगे कहते हैं ‘वायसराय केवल दया के आधार पर सजा घटाते या माफ करते हैं किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं।और यह सर्वविदित ही है कि भगतसिंह उनके साथियों ने दया की याचना करने से इनकार कर दिया था। इस परिस्थिति में गांधीजी के लिए भला क्या रास्ता बचता?
परन्तु फिर भी उपरोक्त स्थिति के बावजूद गांधीजी ने वायसराय से अपनी बातचीत में कहा था किफिलहाल आप फांसी की सजा को टाल दें मैं उनको हिंसा का मार्ग छोड़ने के लिए तैयार करूंगा।गांधीजी ने वायसराय से कहा किभगतसिंह बहादुर है लेकिन वह हिंसा के मार्ग पर चला गया है। मैं उसके साथियों को समझाने का प्रयास कर रहा हूं।इस पर वायसराय ने फांसी की सजा टालने का आश्वासन दिया और कहा कि इस पर विचार किया जा सकता है।जब काफी समय तक वायसराय की ओर से कोई ठोस सकारात्मक जवाब गांधीजी को नहीं मिला तो भगतसिंह उनके साथियों को फांसी दिए जाने से पहले उन्होंने वायसराय को फिर एक व्यक्तिगत पत्र लिखाजनमत--वह सही हो या गलत सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दावं पर हो तो लोकमत का मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है।
इसी पत्र में गांधीजी आगे लिखते हैं, ‘मैं आपको यह सूचित कर सकता हूं कि क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाए तो यह दल अपनी कार्रवाइयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सजा को--क्रांतिकारियों द्वारा होने वाली हत्याएं जब तक बंद रहती हैं तब तक मुल्तवी कर देना एक लाजिमी फर्ज बन जाता है। राजनीतिक हत्याओं के मामलों में इससे पहले की तरह सजा दी जा चुकी है।भगतसिंह उनके साथियों की फांसी टाल दी जाए इस बात के प्रति गांधीजी कितने गंभीर थे यह उनके द्वारा उपरोक्त पत्र के अंत में यह लिखने से कियदि मेरी उपस्थिति आवश्यक है तो मैं सकता हूंएकदम स्पष्ट हो जाता है।
गांधीजी के उपरोक्त पत्र का जवाब वायसराय द्वारा उसी दिन एक गोपनीय पत्र में यह कह कर दिया गया कि मैंने आपकी हर बात पर दुबारा गौर से विचार किया है। मुझे किसी तरह ऐसा नहीं लगता कि आप जो कुछ करने का अनुरोध कर रहे हैं उसे करना ठीक होगा।वायसराय अपनी इस बात पर दृढ़ थे कि क्रांतिकारी दल हिंसा का रास्ता छोड़ने की सार्वजनिक घोषणा करे। तब तक गांधीजी के लिए भी यह एक कठिन प्रश्न था। क्योंकि हिंसा को प्रोत्साहन समर्थन तो वे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष किसी भी तरह नहीं दे सकते थे।
23 मार्च, 1931 को भगतसिंह को फांसी दे दिए जाने के तीन दिन बाद 26 मार्च, 1931 को कराची कांग्रेस के अपने भाषण में गांधीजी ने भगतसिंह उनके साथियों की फांसी के विषय में बोलते हुए कहा किउन्हें फांसी पर लटकाकर सरकार ने लोगों को गुस्सा होने का जबर्दस्त कारण दिया है। मुझे भी इससे चोट पहुंची है क्योंकि हमारे विचार परामर्श और बातचीत से मुझे धुंधली सी आशा बंध गई थी कि भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव शायद बच जाएंगे पर मैं उन्हें बचा नहीं सका।गांधीजी ने उनका विरोध करने वाले नौजवानों से उपरोक्त भाषण में ही कहा किआपको जानना चाहिए कि खूनी चोर डाकू  को भी सजा देना मेरे धर्म के विरुद्ध है। इसलिए इस शक की तो कोई वजह हो नहीं सकती कि मैं भगतसिंह को बचाना नहीं चाहता था।
कराची कांग्रेस के गांधीजी के भाषण के अंत में सवाल पूछा गया था किआपने भगतसिंह को बचाने के लिए क्या किया?’ इसका उत्तर देते हुए गांधीजी ने कहा, ‘मैं वायसराय को जिस तरह समझा सकता था उस तरह से मैंने समझाया। समझाने की जितनी शक्ति मुझ में थी, स मैंने उन पर आजमा देखी। भगतसिंह के परिवार वालों के साथ निश्चि आखिरी मुलाकात के दिन अर्थात् 23 मार्च के सवेरे मैंने वायसराय को एक (निजी) खानगी पत्र लिखा था उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी थी पर सब बेकार हुआ।
गांधीजी ने आगे कहा, ‘आप कहेंगे कि मुझे एक बात और करनी चाहिए थी। सजा को घटाने के लिए समझौते में एक शर्त रखनी चाहिए थी। ऐसा दो कारणों से संभव नहीं था। पहला कारण यह था कि कोई भी सत्याग्रह जिन मांगों को लेकर शुरू किया जाता है समझौता उन्हीं मांगों के संदर्भ में होता है। ऐसा सत्याग्रह का विज्ञान है, शास्त्र है।’ 1930 का सत्याग्रह प्रारंभ करते समय भगतसिंह की फांसी का सवाल ही गांधीजी के सामने नहीं था तो फिर अब वे इसे समझौते की शर्त में कैसे शामिल कर सकते थे। दूसरा कारण यह था कि यदि समझौते में इस शर्त को शामिल किया जाता तो गांधीजी के अहिंसा धर्म के अनुसार यह कृत्य अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा का समर्थन ही हो जाता क्योंकि भगतसिंह उनके साथियों ने हिंसा का मार्ग छोड़ने की सार्वजनिक घोषणा नहीं की थी, वे इसके लिए तैयार थे। गांधीजी द्वारा प्रतिपादित सत्याग्रह के शास्त्र के अनुसार एक बार समझौता हो जाने पर समझौते के बाहर की किसी चीज के कारण किसी भी पक्ष द्वारा समझौते को रद्द करना या वापस लेना विश्वासघात ही कहा जाएगा।
उपरोक्त बातों के अतिरिक्त गांधीजी के समक्ष भगतसिंह उनके साथियों को फांसी से बचाने में एक बहुत बड़ी कठिनाई यह थी कि भगतसिंह उनके साथियों का फांसी की सजा से बचने या उसे कम करवाने के लिए अनिच्छुक होना था। इन सबका मानना था एक भगतसिंह, राजगुरु या सुखदेव के फांसी पर चढ़कर शहीद हो जाने से देश में हजारों भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव पैदा होंगे। भगतसिंह उनके साथियों की फांसी की सजा से बचने की अनिच्छा ने गांधीजी द्वारा उन्हें बचाने के प्रयासों को और भी जटिल बना दिया था।
26 मार्च, 1931 को कराची में पत्रकारों से बातचीत करते हुए गांधीजी भगतसिंह उनके साथियों के साहस और बलिदान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं पर साथ ही यह भी कहते हैं किमुझे इससे भी बड़े साहस बलिदान को देखने की इच्छा है। इन्हीं पत्रकारों से चर्चा में गांधीजी आगे कहते हैं कि आत्मदमन और कायरता से भरे दब्बूपन वाले इस देश में हमें साहस और आत्मबलिदान का आधिक्य नहीं मिल सकता। भगतसिंह के साहस और बलिदान के सम्मुख मस्तक नत हो जाता है। परन्तु यदि मैं अपने नौजवान भाइयों को नाराज किए बिना कह सकूं तो मुझे इससे भी बड़े साहस को देखने की इच्छा है। मैं ऐसा नम्र, सभ्य और अहिंसक साहस चाहता हूँ जो किसी को चोट पहुंचाए बिना अथवा मन में किसी को चोट पहुंचाने का तनिक भी विचार रखे बिना फांसी पर झूल जाए।
गांधीजी भगतसिंह उनके साथियों के साहस और बलिदान की प्रशंसा करते हैं पर यह बात वे अवश्य कहते हैं किउनका रास्ता अलग है और मेरा रास्ता अलग।लेकिन यहां यह बात ध्यान देने की है कि गांधीजी ने कहीं भी भगतसिंह उनके साथियों के कार्यों की निंदा नहीं की। गांधीजी भले ही उनके तरीकों से सहमत हों पर वे इस बात को तो स्वीकार करते हैं कि वे तथा गरमपंथी दोनों ही समान उद्देश्य के लिए प्रयत्नशील हैं। फांसी से बचने के लिए जिस तरह भगतसिंह उनके साथी अपने विचारों सिद्धांतों से हटने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे उसी तरह गांधीजी की भी अपने विचारों तथा सिद्धांतों के प्रति दृढ़ता किंचित् कम थी।

उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से यह साफ हो जाता है कि गांधीजी ने भगतसिंह को फांसी के फंदे से बचाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया या वे उनको बचाना नहीं चाहते थे आदि बातें असत्य निराधार हैं। जिन लोगों को लगता है कि भगतसिंह उनके साथियों की प्राणरक्षा के लिए गांधीजी यदि अपने सिद्धांतों से थोड़ा हट भी जाते तो कोई बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता, तो उन्हें यह अच्छी तरह याद रखना चाहिए कि अपने तय किए मूल्यों पर चलने की एक अडिग चारित्रिक विशेषता के जिस उच्च शिखर पर गांधीजी खड़े थे वहां उनके लिए सत्य अहिंसा जैसे सिद्धांतों की कीमत पर सम्पूर्ण स्वराज्य तक अस्वीकार था। अपने सिद्धांतों के साथ गांधीजी ने व्यक्तिगत जीवन में या सार्वजनिक जीवन में कभी भी समझौता नहीं किया। इसलिए हमें भगतसिंह को फांसी एवं गांधीजी द्वारा उन्हें बचाने के प्रयासों को सत्य, अहिंसा तथा न्याय जैसे गांधीजी के प्रिय सिद्धांतों के आलोक में देखना चाहिए तभी हम वस्तुस्थिति के यथार्थ को समझ सकेंगे।

1 comment:

Unknown said...

Good One. Mahatma Gandhi is great.

हम अंग्रेजो के गुलाम थे | अंग्रेजो के राजा नहीं | लोग तो ऐसे बोलटे है जैसे गाँधी जी हुकुम कर देते और अंग्रेज मान लेते |
गाँधी को तुमने समझ क्या लिया है भाई, वो भी एक साधारण इंसान ही थे, जिन्होंने देश सेवा के लिए प्रयत्न किये | वो कोई भगवान या चमत्कारी पुरुष नहीं थे |
लोग कहते है, गाँधी चाहते तो देश पहले ही आजाद हो जाता, गाँधी चाहते हो भगत सिह को बचा लेते, गाँधी चाहते तो देश के दो टुकड़े नहीं होते | वाह वाह, जैसे सब कुछ गाँधी के हाथ में ही था, कमाल है यार, गांधी कोई जादूगर था क्या | ऐसे बोलकर तो तुम दिखा रहे हो की तुम गाँधी की अदभुत शक्ति से भली भाति परिचित हो |
मै यहाँ साफ़ कर देना चाहता हु की गाँधी जी के पास कोई खास शक्तिया नहीं थी, न ही उनके पास कोई जादुई छड़ी थी |

गाँधी जी का तरीका था, जब भी अंग्रेज सरकार कोई गलत काम करे, कोई अत्याचार करे तो उसके प्रति शांतिपूर्ण तरीके से आवाज़ उठाना, लेकिन यदि एक आदमी आवाज उठाएगा तो कोई नहीं सुनेगा | इसलिए गाँधी जी कुछ लोग चुनते थे, फिर एक प्लान बनाया जाता था, फिर वो लोग घूम-घूम कर सबको बताते थे की करना क्या है | आख़िरकार जो स्ट्रेटेजी बनी है, उसके हिसाब से लाखो की संख्या में लोग आवाज उठाते थे | इस बात का थी ख्याल रखा जाता था की जो हो रहा है उसकी खबर बने, पत्रकारों और विदेशी मीडिया का भी ध्यान रखा जाता था ताकि इस मामले की जानकारी पूरी दुनिया में फैले, और अंग्रेजो की इज्जत पूरी दुनिया में ख़राब हो, उस पर अन्तराष्ट्रीय दबाव पड़े |
ये था साप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे वाला तरीका |

चलो मान लो तुम्हारे भाई को किसी ने मार डाला | तुमने जाकर उसे मार डाला | अब अदालत क्या करेगी बताओ? क्या अदालत यह कहेगी की, इसने अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए खून किया है, इसलिए इसे बाइज्जत बरी किया जाता है ?
नहीं तुमने गलत किया, तुम्हे सजा मिलेगी |
भगत सिंह ने हमारी नजर में तो सही किया, लेकिन कानून की नजर में तो गलत किया ना | इसकी सजा तो मिलेगी ही |
गाँधी जी का तरीका सत्याग्रह का था | सत्य के प्रति विनम्रता से आग्रह का था | सरदार भगत सिंह ने तो हिंसा का तरीका अपना लिया | गाँधी जी अंग्रेजो को सिर्फ एक पत्र लिख पाए, जिसमे उन्होंने लिखा था की, यदि भगत सिंग को फासी दी गयी, तो देश में हालत बिगड़ जायेंगे | इसलिए इस बारे में फिर से सोच ले |

तुम्हे शायद पता नहीं होगा पर, भगत सिह, राजगुरु और सुखदेव खुद ही फासी पर चड़ना चाहते थे