Wednesday, January 7, 2015

राजनीति, राजनेता और अपराध

यह राजनीतिक समय है। अच्छा तो कम अधिकांशत: बुरा सब इस ही के इर्द-गिर्द घटित होने लगा है। हत्या, लूट-पाट, घोटाले, मिलावट आदि-आदि सभी में या तो इसी राजनीति से सम्बन्धित लोगों का सीधा हाथ होता है या अप्रत्यक्ष। राजनीति और राजनेताओं ने अपना चकारिया ऐसा बना लिया है कि क्या तो व्यापारी और क्या उद्योगपति यहां तक कि साधु-संत बने लोग भी इन्हीं की ओर मुंह बाए खड़े रहते हैं। राजनीति ने तो सिद्ध-साधक जुमले का अर्थ ही बदल दिया है। इस जमाने में सिद्ध और साधक एक दूसरे के नहीं होकर सिद्ध की भूमिका में राजनीतिज्ञ ही रह गये हैं। शेष सभी साधक की भूमिका में, यहां तक कि संत-साधु और धर्मगुरु तक।
खबरियां चैनल देखें या अखबार यहां तक कि धार्मिक चैनलों में भी प्रवचनकार के दाएं या बाएं ये राजनीतिज्ञ ही बैठे मिलेंगे। देश या भू-भाग पर पहले भी कभी ऐसा रहा हो, कह नहीं सकते। ज्ञात हजार-बारह सौ वर्ष के इतिहास में जीवन के सभी क्रिया कलापों पर सीधी पकड़ शासकों की ही रही हो, नहीं लगता। हो सकता है संचार साधनों का विस्फोटक रूप आज की तरह नहीं होने से तब के असल कार्यव्यापारों की जानकारियां नहीं मिलती होंगी।
अधिकांश साधु-संत-इनके मठ, सभी खिलाड़ी सही पर सभी खेलसंघ इन राजनेताओं की छाया से अछूते नहीं हैं। बल्कि खेलसंघ तो लगता है इनके बिना चल ही नहीं सकते। ये चल भी कितने रहे हैं सब जगजाहिर है। क्रिकेट में इतना पैसा नहीं होता तो इसका हश्र भी वही होता जो अन्य खेलों का इस देश में हुआ है।
अब तो कैसी भी बदमजगी हो, हत्या हो या लूट-पाट यहां तक कि अन्य दुष्कर्मों की पड़ताल के परिणाम इन नेताओं की छाया से मुक्त नहीं पाये जाते। पर होता यही है कि पड़ताली दस्तावेजों में ऐसी छायाओं को दर्ज ही नहीं किया जाता। ऐसे किसी पुलिस निरीक्षक से कभी बैठकर गाथा सुनो जो ऐसी पड़तालों में लगा हो। एक-एक मामले के बारे में बता देगा कि किस घटना को अंजाम देने वाले के पीछे किस नेता की शह थी। शह नहीं भी थी तो घटना के बाद उसे बचाने और उसे सफाई पूर्वक आरोपों से मुक्त करवाने में किन-किन राजनीतिज्ञों ने जोर आजमाइश की।
पिछले दो दशकों से पहले अपराधी, राजनेता के साधक की भूमिका में देखे जाते थे, सामान्यत: तो दिखाई भी नहीं देते थे। क्योंकि उन्हें हिदायत थी कि वे चौड़े-धाड़े उनके लिए कुछ नहीं करेंगे। तब के नेताओं को अपनी छवि की चिंता थी। धीरे-धीरे चौड़े-धाड़े समर्थन होने लगा, यानी नेता चौड़े-धाड़े ही अपराधियों की सेवाएं लेने लगे। बस इसे ही नेताओं की चूक कहा जा सकता है। अपराधियों को लगने लगा कि जब हमारे बिना इनका काम नहीं चलता तो क्यों हम ही यह काम शुरू कर लें-वेश-भूषा ही तो बदलनी है।
इसीलिए पिछले दो दशकों से राजनीति में इन अपराधियों की आमदरफ्त बढ़ी और पुलिस सरकारी महकमों को इन नेताओं ने अपना गुलाम ही बना लिया। पुलिस तो अब हर प्रभावशाली अपराधी से इसलिए सहमती है कि पता नहीं कब वह नेता बन कर धमके और खसमाई लगाने लगे। गर्त में जाता राज और उसकी व्यवस्था पहले कभी रुकी जो अब रुकेगी।
लोकतंत्र में आपके पास वोट है जिसकी जरूरत इन नेताओं को एक निश्चित अंतराल के बाद पड़ती है। ये चुनाव फिर पंचायत के हों या जिला परिषदों के, स्थानीय निकायों का हो या विधानसभा, लोकसभा के, आपके वोट के बिना ये नेता चार्ज नहीं हो सकते। मतदाताओं को अपना लोकतांत्रिक विवेक जगाना होगा। वोट उसी को दें जो खरा हो। कम बुरे को चुनना भी अब छोड़ देना चाहिए। आपके लोकतांत्रिक विवेक में कोई भी उम्मीदवार फिट नहीं बैठता हो तो वोट देने की मशीन और मतपत्र में आपको नोटा का अधिकार मिल गया है, निस्संकोच इसे उपयोग में लेवें। कम और बुरे, दोनों ही तरह के लोगों को नकारना शुरू करिए तभी सुधारे की प्रक्रिया शुरू होगी।

7 जनवरी, 2015

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