देश की शासन व्यवस्था लोकतंत्र की विकेन्द्रित शासन व्यवस्था मानी जाती है। शासन हो या प्रशासन, केन्द्रीय इकाई से लेकर गांव-वार्ड स्तर तक बंटा हुआ है। दिखने में तो इसे एक आदर्श व्यवस्था कह सकते हैं लेकिन, आदर्श यदि होती तो आज जो विभिन्न प्रकार की समस्याएं हैं वह न्यूनतम होतीं उलझाड़ से भरी यह समस्याएं बद से बदतर होती जा रही हैं।
प्रशासन की बात करें तो इसकी सर्वाधिक सुव्यवस्थित इकाई जिला प्रशासन को मान सकते हैं। जिले का प्रशासन देखने के लिए जिला कलक्टर हैं, जिनके पास पूरा प्रशासनिक बेड़ा होता है-वहीं कानून व्यवस्था के लिए पुलिसकर्मियों की फौज के साथ निरीक्षक, उपनिरीक्षक, उप अधीक्षक और अतिरिक्त पुलिस अधीक्षकों के बेड़े के साथ जिला पुलिस अधीक्षक का पद है। जिला कलक्टर और जिला पुलिस अधीक्षक, दोनों ही पदों पर प्रतिष्ठित मानी जाने वाली भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अधिकारी होते हैं जिनका न केवल प्रशिक्षण अति विशिष्ट प्रकार का होता है बल्कि सेवा में आने के बाद भी उन्हें लगातार मांजा जाता रहता है।
इसी तरह शासन की बात करें तो ग्राम पंच, जिला परिषद के सदस्य, वार्ड पार्षद, सरपंच, प्रधान, स्थानीय निकाय अध्यक्ष, महापौर, जिलाप्रमुख, विधायक, सांसद आदि से लेकर देश-प्रदेश के मंत्रिमंडल और उनके मुखिया मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और शोभाऊ राज्यपाल, राष्ट्रपति तक का बड़ा भारी लवाजमा है।
यह सब इसलिए बताया गया है कि अन्दाजा लगाएं कि शासन-प्रशासन के ये सभी खेवनहार यदि अपने-अपने कर्तव्यों के प्रति मुस्तैद हो जाएं तो देश की सभी तरह की समस्याओं से निजात मिलने में कितना समय लगेगा! शायद बहुत ज्यादा नहीं। लेकिन ऐसा हो ही नहीं रहा।
अपनी-अपनी ड्यूटी और अपने-अपने कर्तव्यों के प्रति ये सभी शिथिल क्यों हैं, क्या कभी इस पर भी विचार किया है! शायद नहीं। ये शिथिल इसलिए हुए हैं क्योंकि, देश का आम-अवाम खुद अपने कर्तव्यों के प्रति सचेष्ट नहीं है। है भी तो बहुत कम लोग इस तरह सचेष्ट हैं या जो सचेष्ट होते हैं उनमें शिथिलता आ जाती है। हम अपने मुहल्ले, समाज के प्रति कर्तव्यों में कितने सचेष्ट हैं, अपने प्रतिनिधि चुनने में कितने गंभीर है? कुछ भी गलत हो रहा है उस गलत-शलत से हम यदि सीधे तौर पर प्रभावित नहीं होते तो उस पर प्रतिक्रिया देना तो दूर हम ध्यान तक नहीं देते हैं।
वोट देना सर्वाधिक जिम्मेदारी का काम है। उसे हम उसी तरह 'गिरा' कर आ जाते हैं जैसे घर की कोई फालतू वस्तु को 'अकूर्डी' पर या 'कचरा पात्र' में डालते हैं। देश और समाज के व्यापक हितों पर विचार कर, गहरे मंथन के साथ कभी हमने वोट किया है? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जो हमारे मन मस्तिष्क में आने यदि लगेंगे तो स्वत: ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के एक सभ्य नागरिक के रूप में शिक्षित होने लग जाएंगे। प्रतिकूलता यही है कि इस तरह की प्रेरक प्रवृत्तियां कहीं सक्रिय दिखाई देतीं नहीं। हित समूहों के नाम पर स्वार्थ समूह बनते जा रहे हैं। हर-एक केवल अपने-अपने लिए विचारता है। भूल जाते हैं कि सभी के हितों की बात करेंगे तभी प्रत्येक के हित सधेंगे। अपने-अपने हितों की टकराहट में किसी के हित नहीं सधते।
यह टकराहट उन दो बिल्लियों की टकराहट की तरह है जो अपनी रोटी का फैसला बन्दर से करवाने जाती हैं और बन्दर उनकी टकराहट का फायदा उठाकर खुद का पेट भरने में लग जाता है। यह शासन-प्रशासन दोनों वैसा बन्दर होने की जुगत में लगे हैं। बल्कि शासन संभालने वालों ने उस बन्दर की भूमिका को लगभग लपक ही लिया है।
10 जनवरी, 2015
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