Monday, January 12, 2015

पत्रकारों का उन्मुखीकरण एक सार्थक पहल

पत्रकार मित्र अनुराग हर्ष की पहल पर कल पत्रकारों के ओरियेन्टेशन (उन्मुखीकरण) का पहला आयोजन हुआ। हर्ष की पहल पर ही कुछ दिन पूर्व कुछ हमपेशा जुटे और इस तरह के कार्यक्रमों की जरूरत पर बातचीत कर तय किया कि प्रत्येक माह के दूसरे रविवार को इस हेतु सम्बन्धित विषयों पर सभा-गोष्ठी करेंगे। उन्मुखीकरण की इस पहल से उम्मीद की जानी चाहिए कि जरूरत समझे जाने तक ऐसे आयोजन नियमित जारी रहेंगे।
कल हुए पहले आयोजन में वक्ता के रूप में जिला पुलिस अधीक्षक संतोष चालके आमन्त्रित थे। संतोष की बात है कि अपनी भूमिका को दक्षता से निभाने के लिए वे तैयारी के साथ आए और सहजता के साथ आयोजन के उद्देश्य को पूर्ण किया।
चालके ने कुछ उदाहरणों के साथ पत्रकारिता पेशे से पुलिस महकमे की कुछ अपेक्षाएं बताईं, उन्होंने अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए चाहा कि कम से कम किशोरियों और युवतियों से सम्बन्धित अपराध के समाचारों में सनसनी का पुट देने से बचना चाहिए। इसके अलावा उन्होंने पत्रकारों से आग्रह किया कि प्रशासनिक और कानून व्यवस्था से जुड़े अधिकारियों से सम्बन्धित व्यक्तिगत खबरों को सुर्खियां दी जाय। उनका मानना था कि इससे अधिकारी धीरे-धीरे हतोत्साहित हो जाते हैं। इसी का नतीजा है कि लगभग सत्तर प्रतिशत उच्चाधिकारी ऊर्जाहीन होकर अपने शेष सेवाकाल में 'टाइमपास' प्रवृत्ति को हासिल हो जाते हैं, जिसका बड़ा नुकसान समाज को भुगतना पड़ता है अन्यथा वे समाज के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। सूचना के तौर पर तो उन्होंने इस सामान्य धारणा को पुष्ट ही किया कि सामान्यत: अधिकांश अधिकारी कामचलाऊ स्थिति में जाते हैं, जिसके चलते इन महती प्रशासनिक और पुलिस सेवा का वह लाभ समाज को नहीं मिलता जो उसे मिलना चाहिए। उनके सत्तर प्रतिशत के इस आंकड़े को पुष्ट माना जाय तो यह एक बड़ी सामाजिक क्षति है। ऐसी मन:स्थितियां अधिकांश अफसरों में महसूस की जाती रही हैं। लेकिन चालके ने जिस तरह इसे रखा उससे लग रहा है कि इस 'पाप का भागी' केवल मीडिया है, जिसे पूरी  तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। मानते हैं अन्य सभी तरह के पेशों की तरह पत्रकारीय पेशे में भी अदक्ष लोग हैं और चुनिंदा ऐसे भी होंगे जो इसका दुरुपयोग भी करते होंगे। इसे महसूस किया तभी इस तरह आयोजनों जरूरत समझी गई लेकिन यह मानना कि अफसरों की इस उदासीनता के लिए केवल मीडिया ही जिम्मेदार है, उचित नहीं
इसे खोलने के उद्देश्य से ही राजनीतिक और राजनेताओं के हस्तक्षेप से सम्बन्धित प्रश्न चालके से पूछा गया. एक सेवारत अधिकारी से जैसी उम्मीद थी वैसा चतुराई पूर्ण जवाब आया कि राजस्थान और खासतौर पर बीकानेर में ऐसा हस्तक्षेप न्यूनतम है। प्रदेशों में उत्तरप्रदेश, बिहार और जिलों में सीकर, झुंझुनूं, भरतपुर जैसे क्षेत्रों की तुलना के हिसाब से चालके की बात तार्किक और उचित ही लगेगी। चालके जिम्मेदार सरकारी पद पर हैं, वे अधिकृत तौर पर राजनेताओं के हस्तक्षेप को स्वीकार करेंगे भी कैसे?
बावजूद इसके पत्रकारों को बिना ग्लानि चालके की कुछ बातों पर गौर करना चाहिए। इनमें स्त्रियों से संबंधित खबरों को लेकर उनके सुझाव, अपराधियों और सबूतों की बरामदगी से सम्बंधित पुलिस के अभियानों से सम्बंधित ऐसी खोजी खबरें जिनके चलते संचार विस्फोट के इस युग में पुलिस को परेशानियां उठानी पड़ सकती हैं या उनके काम में बाधा आ सकती है, सावचेती बरतनी चाहिए अफसरों की व्यक्तिगत खबरों आदि में भी संयम की जरूरत है। इस के साथ-साथ पत्रकारों की जिम्मेदारी यह भी बनती है कि पुलिस महकमे में बढ़ते राजनीतिक और राजनेताओं के हस्तक्षेप को प्रकारान्तर से लगातार जाहिर करना चाहिए अन्यथा सत्तर प्रतिशत अफसरों की निष्क्रियता के काले हाथ अकेले उनके इस पेशे से ही पोंछे जाते रहेंगे जबकि अफसरशाही की इस उदासीनता के बड़े जिम्मेदार यह राजनेता ही हैं। अधिकृत तौर पर चालके ही क्यों कोई भी अधिकारी इसे स्वीकार नहीं करेगा। राजनेताओं की करतूतों को सिपाही से लेकर पुलिस अधीक्षक तक व्यक्तिगत तौर पर यदा-कदा अपने आत्मीयों को बताते ही हैं। अलावा इसके इन राजनेताओं ने भी काम के अनुसार छोटे-बड़े अफसरों का उपयोग करना बखूबी सीख लिया है।

12 जनवरी, 2015

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