Wednesday, January 21, 2015

जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल के बहाने सृजनात्मकता पर बात

सृजनात्मक विधाओं में साहित्य ऐसा क्षेत्र है जिसे संगीत, नाटक, पेन्टिंग और मूर्तिकला आदि-आदि से ज्यादा प्रतिष्ठा हासिल है। संभवत: ऐसा इसलिए है कि सम्प्रेषण का बड़ा माध्यम बने मीडिया यानी अखबारों और खबरियां चैनलों से जुड़े लोग भाषा के मामले में साहित्य सृजकों के मुखातिब रहते आए हैं और सामान्यत: यह भी देखा गया है कि साहित्य सृजक आजीविका के लिए मीडिया को पेशे के रूप में भी अपना लेते हैं। पिछले बीस वर्षों में जब से खबरियां चैनल और अखबारों के संस्करण बढ़े हैं तब से मीडिया के दोनों अंगों में मजबूरी में भाषा-दक्षता को नजर अन्दाज किया जाने लगा है। यानी जितने लोग चाहिए उतने मिल नहीं रहे हैं। इसीलिए भाषाई दरिद्रता का दरसाव मीडिया में जब तब क्या प्रतिदिन ही देखने पढऩे को मिल जाता है। स्मार्ट व्यक्तित्व या दंद-फंद वाले भाषाई कम दक्षता के बावजूद मीडिया के माध्यम से प्रतिष्ठा अर्जित कर लेते हैं। इसका बड़ा कारण मीडियाई पेशेवरों और समाज के सर्वाधिक प्रभावी राजनेताओं प्रशासनिक अधिकारियों का अन्योन्याश्रित हो जाना है। 'अन्योन्याश्रित' शब्द जानबूझ कर काम लिया गया है क्योंकि मीडिया से जुड़े लोग भी प्रतिष्ठ होने के लिए राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के कांधे काम लेने से गुरेज नहीं करते।
इस विमर्श की जरूरत इसलिए लगी कि पांच दिवसीय जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल आज शुरू हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों से प्रतिवर्ष होने वाले इस आयोजन को अखबारों और खबरिया चैनलों में जिस तरह से कवरेज दिया जा रहा है वह ठिठकने को मजबूर करता है। हिन्दी-अंग्रेजी और विभिन्न कलारूपों से गड्ड-मड्ड ऐसे आयोजन देश के विभिन्न क्षेत्रों में होने लगे हैं। चूंकि ऐसे आयोजन किसी किसी प्रायोजक के मुहताज होते हैं सो सुर्खियां हासिल करना इनकी मजबूरी होती है। इसलिए आप देखेंगे कि इन आयोजनों में अधिकांशत: उन्हीं सृजकों को आमन्त्रित किया जाता है जो या तो सेलिब्रिटि हो लिए हैं या सेलिब्रिटि होने की तिकड़मों में लगे रहते हैं। सामान्यत: दक्ष सृजकों को आमन्त्रित ही नहीं किया जाता, किया जाता भी है तो इनमें से कई ऐसे आयोजनों में आने को उत्साही ही नहीं होते और भी जाते हैं तो नेपथ्य में ही रख दिए जाते हैं या फिर उनकी उपस्थिति की गत 'फ्लैश' से ज्यादा की नहीं होती।
सृजनात्मक विधाओं पर इनसे बेहतर आयोजन भी यदा कदा होते ही हैं। लेकिन उन्हें मीडिया वह सुर्खियां नहीं देता जैसी दी जानी चाहिए। ऐसे आयोजनों को कसौटी पर लगाये जाने पर कहा जाता है कि कुछ तो अच्छा हो रहा है! जितना हो रहा है उसे स्वीकारना ही चाहिए। ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि इस तरह से कम दक्ष सृजकों को लगातार प्रतिष्ठा मिलते रहने से होगा यह कि जो इनके मुकाबले ज्यादा दक्ष हैं वे कुंद होने लगेंगे और परिणामस्वरूप हमारी अगली पीढिय़ां सृजनात्मक दक्षता को ताकती रह जायेंगी। जो लोग सृजनात्मक क्षेत्रों में लोकप्रियता के पैमाने की बात करते हैं वह प्रकारान्तर से सृजनात्मकता में बाधक ही साबित होंगे। हमारे पूर्वज यदि ऐसी ही मानसिकता रखते तो हमें महाभारत मिलती रामायण। वेद व्यास वाल्मीकि और कालिदास और वात्स्यायन आदि प्रतिष्ठा पाते। ही अजन्ता, एलोरा, खजुराहो, कोणार्क हमें धरोहर के रूप में हासिल होते और ही शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परम्पराएं। क्या इन सबके सृजन समय में लोकप्रियता नदारद थी या कम दक्ष और अदक्ष सृजन नहीं होता था। होता ही होगा लेकिन वह काल को जीत नहीं पाए होंगे। यह भी हो सकता है कि दक्षता से सृजित भी बहुत कुछ नष्ट हो गया होगा। इस आलेख का मकसद इतना ही है कि प्रतिष्ठा योग्यता-पात्रता अनुसार मिले। इसके लिए इसके जिम्मेदार लोगों को भी लगातार दक्षता की ओर प्रवृत्त रहना होगा। पात्रता से ज्यादा मिली सुर्खियां इस प्रवृत्ति में बड़ी बाधक होती है।

21 जनवरी, 2015

1 comment:

सुनील गज्जाणी said...

sahi baat , sahi vivechan kiyaa . sadhuwad