Thursday, January 8, 2015

पेरिस हमले के बहाने आत्मावलोकन

फ्रांस की राजधानी पेरिस में कल हुए आतंकी हमले में दस पत्रकारों सहित बारह व्यक्तियों की मौत हो गई, अन्य दो मृतक पुलिसकर्मी थे। कार्टून पत्रिका 'चार्ली हेब्डो' के मुख्यालय पर हुए इस ताबड़तोड़ हमले के तीनों आरोपियों की पहचान कर ली गई है। इनमें से एक अठारह वर्षीय युवक ने आत्मसमर्पण भी कर दिया।
कार्टून पत्रिका 'चार्ली हेब्डो' 2012 में विश्व पटल पर तब विवादों या चर्चा में आयी जब उसने इस्लामिक पैगम्बर मुहम्मद साहब की आकृति के साथ एक कार्टून प्रकाशित किया था। इस पत्रिका का कार्यालय और इससे जुड़े लोग तभी से इस्लामिक अनुदारवादियों के निशाने पर थे। हिंसा कहीं भी हो, अमानवीय कृत्य है। जीवन को बचाये रखने के लिए मांसाहारी बने मनुष्यों ने भी की अपनी आमिषाशी (मांसाहारी) मर्यादायें तय कर रखी थी।
कल की घटना के बाद से ही इस्लामिक कट्टरपंथियों को भुंडाया जा रहा है, भुंडाना ही चाहिए। इस तरह की आतंकी कार्यवाहियों की भर्त्सना नहीं करेंगे तो शह माना जायेगा। इस हिंसक कार्रवाई को अभिव्यक्ति पर हमला भी बताया जा रहा है। पत्रकारिता के विकास को पूरी दुनिया में लोकतंत्र का पोषक सहायक माना गया और कार्टून विधा का भी पत्रकारिता के एक आयाम के रूप में ही विकास हुआ है। कार्टून व्यंग्य की विधा है। न्यूनतम शब्दों के साथ उकेरे गये चित्रों के माध्यम से मानव समाज की विसंगतियों पर हलकी चिकुटी काट कर अवगत करवाया जाता है। चिकुटी या चूंटिया भरने की इस विधा से अभिव्यक्त करने वालों में इतना विवेक तो होना ही चाहिए कि तर्जनी और अंगूठे में कितना दबाव बनाना चाहिए और इस दबाव के साथ कलाई को कितना घुमाना चाहिए। चूंटिया काटते समय सामने वाले की दैहिक सामथ्र्य का खयाल नहीं किया जायेगा तो वह असहनीय भी हो सकता है।
ईश्वर होने होने की अवधारणा और इसमें आस्था के प्रकार हमेशा समान नहीं रहे हैं। मनुष्य ने अपनी अक्षमताओं को  आड़ देने के लिए जिस तरह ईश्वर की कल्पना की और उसे विभिन्न नामों और श्रद्धा प्रकट करने के तौर तरीकों से अस्तित्ववान किया उसमें बदलाव की संभावनाएं हमेशा से रही है अन्यथा दुनिया में तो इतने प्रकार के धर्म होते और ही एक ही धर्म में अलग-अलग पंथ। कट्टर माने जाने वाले धर्मों में भी एकाधिक पंथ और आस्था के तौर तरीके रहे हैं।
धर्म को मूल रूप से धारण करने की योग्यता से जोड़ा गया है यानी धर्म वह जो धारण करने योग्य है। यानी देश, काल, परिस्थिति और विकसित समझ के अनुसार इसमें व्यवहारगत अन्तर की गुंजाइश भी है। मनुष्य के सहज अस्तित्व को बचाये रखना ही धर्म का अन्तिम उद्देश्य माना गया है तो फिर इनमें आपसी तनाव की गुंजाइश कहां, अपनी हेकड़ी के पोषण के लिए मनुष्य ने गुंजाइश निकाल ली और यही बड़ी समस्या है।
चूंकि आज की दुनिया में यह धारण पुष्ट होती जा रही है कि अधिकांश आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले अपने को इस्लाम का अनुयायी बताते हैं। अत: इस धर्म के आस्थावानों की ही यह जिम्मेदारी ज्यादा बनती है कि उन्हें अपने पूरे समुदाय की बिगड़ती इस छवि के लिए चिन्तित होना चाहिए। सोशल साइट्स पर बहुत से इस्लामिक धर्मावलम्बी ऐसे भी हैं जो इस तरह की प्रत्येक आतंकी घटना के बाद केवल उसकी भर्त्सना करते हैं बल्कि अपनी यह तकलीफ भी जाहिर करते हैं कि इस्लाम में इस तरह की हिंसक गुंजाइश होने के बावजूद ऐसा इस्लाम के नाम पर क्यों हो रहा है! लेकिन इस तरह के धर्मावलम्बियों की तादाद बहुत कम है। ऐसा इसलिए जरूरी है कि इस्लाम की गलत व्याख्या करने वाले लगातार प्रभावी होते जा रहे हैं। बहुत से मुसलमान ऐसे भी हैं जो इस तरह की घटनाओं को गैर इस्लामी मानते हैं लेकिन इस्लाम की अपूर्ण जानकारी के चलते वे खुलकर नहीं बोलते। मुसलमानों में अब भी असल चेतना जागृत नहीं होती है तो यह मानव सभ्यता अपने सबसे बुरे समय से बच नहीं सकेगी और मनुष्य ही नही बचेगा तो धर्म का बटेगा क्या!
रही बात मुहम्मद साहब की आकृति के विरोध की तो जब उन्होंने इस धर्म की आवश्यकता समझी तब वह दौर था जब लोग उनसे पहले के पैगम्बरों के उपदेशों पर ध्यान देने के बजाय उनकी छवि को मान देकर आस्था और इबादत की इतिश्री मानने लग गये थे। इसीलिए मुहम्मद साहब ने किताब का यानी कुरान का यानी उनके माध्यम से कही अल्लाह की बात के महत्त्व को शाश्वत रखने के लिए ही अपनी छवि को प्रचारित करने से इनकार किया होगा। लेकिन छवि बनना और बनाना भर प्रलयंकारी हो जायेगा ऐसा तो स्वयं मुहम्मद साहब ने भी नहीं चाहा होगा।
रही बात धार्मिक आलोचना की तो वह तो होनी ही चाहिए अन्यथा पैगम्बरों के कहे की सही व्याख्या नहीं हो पायेगी और रूढिय़ां दीमक के रूप में विकराल हो जायेंगी जो लगभग सभी धर्मों में कमोबेश सक्रिय हैं ही। हां, दूसरे के धर्म और आस्था की निन्दा से बचना चाहिए, क्योंकि ऐसे मसले सर्वाधिक संवेदनशील माने गये हैं। निन्दा भी वाचा हिंसा में ही आती है और वाचा हिंसा भी हिंसा की अंगुली पकडऩा ही माना जायेगा जो कलाई पकडऩे की गुंजाइश देती है।

8 जनवरी, 2015

1 comment:

Www.nadeemahmed.blogspot.com said...

aapne ek sach ko ujagar kiya h .aapka aaj ka sampadkiy sanulit h .ye bat sahi h ki bodik musalmano ko purjor tarike se hinsa ka virodh asardar tarike karna hi hoga rasmi virod manya nahi h .dipchandji aapke vicharo ja to m pehle se hi murid hu