Wednesday, October 8, 2014

श्रीडूंगरगढ़ : यूं लगता है सामाजिक सद्भाव के पलीता

बीकानेर जिले का श्रीडूंगरगढ़ कस्बा इन दिनों अशान्त है। वजह वह सात बीघा भूमि है जो राष्ट्रीय राजमार्ग पर महाविद्यालय के सामने है। कहते हैं इस राजस्व भूमि को पिछली सदी के नवें दशक में नगरपालिका प्रशासन के सुपुर्द कर दिया गया। तभी से अल्पसंख्यक समुदाय इस भूमि को ईदगाह के नाम पर चाह रहा है। सन् 1980 से 1990 तक यहां से विधायक रहे रेंवतराम महिया बाद के किसनाराम नाई और गत विधायक मंगलाराम गोदारा ने इस भूमि को ईदगाह हेतु आवंटन के लिए अनुशंसा पत्र राज्य सरकार को तो भेजे लेकिन इनमें से किसी ने पीछे लग कर यह आवंटन नहीं करवाया और लगता है अल्पसंख्यक समुदाय ने भी कोई उच्चस्तरीय प्रयास नहीं किए अन्यथा शासन में जहां आले-गीले सभी बळते हैं, इस भूमि का आवंटन हो चुका होता।
अल्पसंख्यक समुदाय का दावा है कि इस भूखण्ड पर पिछले साठ-सत्तर वर्षों से उनका कब्जा है और प्रमाण के रूप में वे वहां मौजूद पुरानी मजार का हवाला भी देते हैं। अलावा इसके मुसलिम समाज के लोग इस भूखण्ड पर वर्षों से दोनों ईद की नमाज भी अता करते रहे हैं।
कागजों की बात करें तो कांग्रेस और भाजपाई, दोनों के विधायक मुसलिम समुदाय को इस भूमि के आवंटन की सिफारिशें अपनी-अपनी सरकारों से करते आए हैं और शायद इसी बिना पर इस समुदाय के वोट पाने का हक भी जताते हैं। लेकिन देखा जाय तो काम करवाने की मंशा थी ही नहीं, अन्यथा पार्टी की सरकार होते यह इतना मुश्किल भी नहीं था।
ताजा बखेड़ा तब शुरू हुआ जब भाजपा में वर्तमान विधायक किसनाराम के विरोधियों ने इस बार अचानक ईद की नमाज का विरोध करते हुए इस भूमि पर दशहरे की शस्त्र पूजा का कार्यक्रम घोषित कर दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुवर्ती संगठनों की घोषणा से प्रशासन चौकन्ना हुआ और टकराव को टालने के लिए संघ के पथ संचलन को इस भूमि के पास से गुजरने की इजाजत नहीं दी।
जैसा कि चुनावी राजनीति में होता आया है, किसनाराम को लगता है कि उनकी जीत में अल्पसंख्यकों का योगदान है वैसे ही मंगलाराम को भी अपनी हार में इस समुदाय का एकमुश्त वोट मिलना कारण लग सकता है। इसलिए फिलहाल किसनाराम का झुकाव मुसलिम समुदाय के दावे की ओर है। शायद इसीलिए पार्टी में उनके विरोधी गुट ने ये बखेड़ा खड़ा किया। ऐसे लोग ये भूल जाते हैं कि कुछ लोगों के अहम् की तुष्टि के लिए कितने लोगों का सुख-चैन वे छीन रहे हैं।
आजादी बाद से सार्वजनिक भूमि की लूट का जो सिलसिला शुरू हुआ उसमें जमीनों की बढ़ती अनाप-शनाप कीमतें भी उत्प्रेरक का काम करती हैं। यही कारण है कि आजादी बाद बने धार्मिक स्थलों में से ऐसे बहुत कम उदाहरण होंगे कि जिन्हें बाकायदा पट्टेशुदा जमीन पर खड़ा किया गया हो। यही होता आया है कि सड़क के किनारे और किसी भी सरकारी भूमि पर आस्था का ढांचा खड़ा कर दिया जाता है। प्रशासन मौन रहता है, धीरे-धीरे ऐसे कब्जे हक में तबदील हो जाते हैं और पट्टे भी बन जाते हैं। ऐसे में यदि श्रीडूंगरगढ़ का मुसलिम समुदाय उक्त भूमि पर हक जताता है तो उसे कैसे 'नाजायज' ठहरा सकते हैं? बहुसंख्यक समुदाय ने ऐसे जितने कब्जे किए हैं, आबादी के अनुपात से ही सही अल्पसंख्यक कुछ भूमि अपने धार्मिक स्थल के लिए चाहता है तो इसे गलत किस तर्क पर ठहरा सकते हैं। आजादी बाद से ही सभी सरकारी सम्पत्तियों के खुर्द-बुर्द हो जाने देने की लापरवाही समाज ने बरती उसी के ये परिणाम हैं लेकिन इसे साम्प्रदायिक रंग देना सर्वथा अमानवीय है प्रशासन भी यदि किसी दबंग समूह के दबाव में आता है तो गलत है। लेकिन दबाव आना प्रशासन की नियति है, अन्यथा कौन-सा बड़ा कारण था कि वहां के थानाधिकारी को कल अचानक बदला गया जबकि यदि सरकारी स्तर पर कुछ गलत हुआ हो तो सारे निर्णयों का तात्कालिक जिम्मेदार उपखण्ड अधिकारी और उपाधीक्षक को क्यों नहीं माना गया।
समाज के हेकड़ीबाज और संकीेर्ण मानसिकता वाले लोग अच्छे-भले माहौल को किस तरह खराब करवा देते हैं, श्रीडूंगरगढ़ कस्बा इसका ताजा उदाहरण है। केवल इस अनुमान पर कि थानाधिकारी का झुकाव अपने समुदाय की तरफ हो सकता है, उन्हें हटा देना प्रशासनिक तौर पर कितना उचित है? और क्या गारन्टी है कि जिस भी दूसरे को लगा रहे हो वह ऐसा कुछ नहीं करेगा। हबीड़े में लिए ऐसे निर्णयों का हमेशा नकारात्मक असर हुआ है ये राजनीतिज्ञ इसे समझना कब शुरू करेंगे।

8 अक्टूबर, 2014

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