भारतीय जनता पार्टी की सरकार प्रदेश में ऐतिहासिक बहुमत के साथ काबिज है। उपचुनाव बाद 200 में से 163 के 160
विधायक भले ही रह गये हों लेकिन मजबूती इतनी है कि कोई बाहर वाला तो दूर पार्टी के मुगालतेबाज भी इसे हिलाने का वहम शायद ही पालें। अब कहेंगे कि अच्छी भली सरकार चल रही है और बिना वजह संशय खड़े किए जा रहे हैं। सब कुछ दुरुस्त हो ऐसा भी नहीं है, वसुन्धरा राजे को मुख्यमंत्री बने दस माह हो रहे हैं, न मंत्रिमंडल का विस्तार कर पा रही हैं और न ही राजनीतिक नियुक्तियां। वसुन्धरा राजे ने अपने पिछले कार्यकाल में जैसे मिजाज से राज चलाया उसकी छाया तक इस कार्यकाल में नहीं देखी गई।
नौ दिसम्बर
2003 को जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बनीं तो उनके तमगों में यह भी शामिल था कि उन्होंने उन अशोक गहलोत को सत्ता से बाहर कर दिया जिनके कामकाज और छवि को अपने समकक्षों में सिरमौर कहा गया। ठीक-ठाक बहुमत से तब सत्ता में आई वसुन्धरा का मद पूरे पांच साल तक लोगों ने देखा और भोगा भी। ऐसे भोगने वालों में भाजपा के तब के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह भी थे। पार्टी मुखिया को ही ठेंगे पर रखने वाली वसुन्धरा के सामने अन्यों की तो बिसात ही क्या थी। पांच वर्षों के इकबाल और जलवे के पहले कार्यकाल की खुमारी 2008 में तब उतरी जब उनकी उम्मीदों को धराशायी करते हुए जनता ने सत्ता कांग्रेस को फिर सौंप दी। इस दौरान लगभग चार वर्ष तक प्रदेश की ओर वसुन्धरा का न फटकना उनके मिजाज की बानगी समझ सकते हैं।
राजस्थान में वसुन्धरा के सटीक विकल्प के तौर पर 2013 के चुनावों से पहले कोई नजर नहीं आया तो मन मसोस कर लुंज-पुज से पार्टी हाइकमान ने कमान फिर वसुन्धरा को ही सौंप दी। वसुन्धरा ने भी पार्टी की इन परिस्थितियों का भरपूर फायदा उठाया और पूरी मनमर्जी चलाई। दूसरी ओर अशोक गहलोत सरकार का कामकाज ठीक होते हुए भी केन्द्र में कांग्रेसनीत सप्रंग सरकार की साख के बट्टे खाते चले जाने का खमियाजा पार्टी को उठाना पड़ा। रही सही कसर विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आक्रामक चुनाव अभियान ने पूरी कर दी। इस तरह 2013 में 2003 जैसा जलवा न होते हुए भी वसुन्धरा की गुड्डी चढ़ती गई और जनता ने कांग्रेस का लगभग सफाया कर उसे 21 पर ही समेट दिया और भाजपा ने 163 विधायक जितवा कर इतिहास रच दिया।
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं और मन ही मन भाजपा के दिग्गज भी जानते हैं कि प्रदेश और केन्द्र में भाजपा के ऐतिहासिक बहुमत के पीछे केन्द्र की कांग्रेसनीत सरकार की नाकारा छवि बड़ा कारण रही। वसुन्धरा भी यह सब समझती ही हैं। इसे उनकी दस माह की इस बे-जलवा कार्यशैली से अच्छी तरह जान समझ सकते हैं। शेष कभी चार विधानसभा क्षेत्रों के आए उपचुनाव नतीजों ने पूरी कर दी। इन चुनावों के नतीजे यदि थोड़े भी वसुन्धरा के अनुकूल होते तो उनके व्यवहार में घायल शेरनी की छवि दीखती।
हाइकमान अब राजनाथसिंह जैसे धाका-धिकयाने वालों की नहीं रही। मोदी-शाह एसोसिएट फिलहाल न केवल हीक-छडि़ंदे की मुद्रा में है बल्कि इन्होंने मौके का फायदा उठाकर अनुकूलताएं इतनी बना ली कि वे वसुन्धरा जैसों का नखरा भांगने का दुस्साहस भले ही न करें पर उनमें पिंजरे के पंछी की फडफ़ड़ाहट तो पैदा करवा ही सकते हैं।
पिछले कई माह से वसुन्धरा को शासन में आपमते कुछ करने की छूट न देकर हाइकमान ने अपनी हैसियत जता ही दी है। मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों की सूची लेकर पखवाड़े भर पहले गई वसुन्धरा को इसके लिए पहले तो डेरा डालने को मजबूर कर दिया और फिर बैरंग लौटा दिया। यह वसुन्धरा के लिए बर्दाश्त के बाहर था। बटबटीजती वसुन्धरा ने इशारों-इशारों में ही सही कल पहली बार यह कह कुछ साहस दिखाया कि पिछले चुनावों में पार्टी की सफलता का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। राजे का इशारा सीधे-सीधे नरेन्द्र मोदी की ओर है। वसुन्धरा शायद महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणामों का इन्तजार कर रही हैं। परिणाम यदि पार्टी के अनुकूल नहीं रहे तो हो सकता है वसुन्धरा अपना असल तेवर दिखाना शुरू कर दे। यदि ऐसा होता है तो सम्भव है पार्टी अपनी लगाम कुछ ढीली करे। ऐसे में हो सकता है अगले कुछ दिनों में प्रदेश राजनीति के भाजपाई परिदृश्य में वसुन्धरा और पार्टी हाइकमान के बीच सांप-छछूंदर की लड़ाई-सा कुछ देखने को मिले। पिछले दिनों सीकर जिले के श्रीमाधोपुर में कुछ महिलाओं के द्वारा अपनी समस्याओं के समाधान के लिए वसुन्धरा को रोके जाने के बाद वहां के कलक्टर, एस.पी. को तलब करना और चार अधिकारियों को पदस्थापन की प्रतीक्षा में रखना राजे की खिसियाहट का ही प्रमाण है। जो भी हो आर-पार हो जाना चाहिए नहीं तो कहते हैं न गोधों (सांडों) की लड़ाई में चिगदीजते टोगडिय़े ही हैं और टोगडिय़ों की स्थाई भूमिका में आम-आवाम ही है।
10 अक्टूबर, 2014
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