Wednesday, October 15, 2014

रातबासे पर अशोक गहलोत

प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों की करारी हार के बाद पूर्व मुख्यमंत्री आज दूसरी बार बीकानेर में होंगे। इससे पहले 21 मार्च, 2014 की रात में आए और 22 की सुबह उन्होंने कांग्रेस नेता रामरतन कोचर के स्मृति कार्यक्रम में शिरकत की। दिसम्बर, 2013 के उक्त चुनावों के बाद देश और सूबे में वैसा बहुत कुछ अब नहीं रहा जो पहले था। सूबे में भारी बहुमत से वसुन्धरा राजे सत्ता में काबिज हुईं और देश में अप्रत्याशित बहुमत के साथ नरेन्द्र मोदी।
कांग्रेस की बात करें तो लड़कपनीय हाइकमान ने प्रदेश की राजनीति में अनुभवी अशोक गहलोत को हाशिए पर कर युवा और ऊर्जावान सचिन पायलेट को कमान सौंप दी। अप्रैल में हुए लोकसभा चुनावों से यद्यपि सचिन पर मालीपाने नहीं लगे लेकिन पिछले ही माह हुए विधानसभा उपचुनावों के परिणामों ने उनकी हैसियत के टगें जरूर लगा दी है। इन वर्षों में होने वाले चुनावों में जनता सकारात्मक वोट करके नकारात्मक वोट करने को मजबूर होने लगी हैं। टूटती उम्मीदों के चलते ही इन उपचुनावों में उस भाजपा को नकार दिया जिसे दिसम्बर, 2013 में अपूर्व बहुमत से शासन सौंपा था। कांग्रेस की यह अनुकूलताएं उसके आप बूते नहीं बनी हैं, परिणाम भाजपा की प्रतिकूलता के प्रमाण हैं, ठीक वैसे ही जैसे पिछले वर्ष दिसम्बर में विधानसभा के और इस वर्ष हुए अप्रैल-मई के लोकसभा चुनावों में जनता ने केन्द्र की कांग्रेसनीत सप्रंग सरकार से धाए-धापे वोट डाले थे।
खैर। इस कौथिणे का महत्त्व सबक जितना ही है। बात अशोक गहलोत के आज के रातबासे के मद्देनजर मुखातिब होगहलोत राजस्थान की राजनीति के धुरन्धर हैं, बावजूद इसके वे पिछले विधानसभा चुनावों में ढंग के परिणामों के साथ चौदहवीं विधानसभा में अपनी पार्टी के विधायक दल को सम्मानजनक रूप से सजा भी नहीं पाए। यह मानें कि इसके लिए अकेले गहलोत जिम्मेदार हों तो उनके साथ ज्यादती होगी। प्रदेश की कांग्रेस सरकार को केन्द्र की बट्टे खाते साख वाली सरकार का खमियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन गहलोत को पूरी तरह बरी भी नहीं किया जा सकता। इन विधानसभा चुनावों के संभावित परिणामों और उनके कारणों का जिक्र विनायक ने अपने 4 अक्टूबर, 2012 के सम्पादकीय में ही कर दिया था। उस सम्पादकीय का एक हिस्सा अवलोकनार्थ फिर प्रकाशित है
देशव्यापी कांग्रेस विरोधी माहौल को भुनाने की क्षमता राजस्थान में केवल वसुन्धरा के पास है। और यह आकलन लगभग सही भी है, तभी वसुन्धरा राजनाथसिंह से लेकर नितिन गडकरी तक किसी को भाव नहीं देती, अरुण चतुर्वेदी जैसे तो उनकी गिनती में आते ही नहीं हैं। अशोक गहलोत अपनी इस दूसरी पारी की शुरुआत से सिर्फ रक्षात्मक मुद्रा में ही देखे गये हैं, या कहें छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं यद्यपि गहलोत का राज ज्यादा मानवीय, लोकतान्त्रिक है और यह भी कि लोककल्याणकारी योजनाएं लाने वाले राज्यों में राजस्थान हाल-फिलहाल अग्रणी है।
पर इस सबके बावजूद माहौल यह नहीं कह रहा है कि राजस्थान की जनता अगले चुनावों मेंं गहलोत को फिर मौका देगी, जबकि प्रमुख विरोधी दल भाजपा में आज भी यह शत-प्रतिशत निश्चिंतता नहीं है कि कमान वसुन्धरा ही सम्भालेंगी। वसुन्धरा राजनीति को जहां केवल हेकड़ी से साधती हैं वहीं गहलोत इस मामले में राजस्थान के अब तक के सबसे शातिर राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित हो चुके हैं। वे राजनीति को चतुराई से साध तो लेते हैं, लेकिन उनके पास जनता को लुभाने के वसुन्धरा के जैसे लटके-झटके हैं और इस नौकरशाही से काम लेने की साम-दाम-दण्ड-भेद की कूवत। वसुन्धरा राज में खर्च किया एक-एक रुपया भी वसुन्धरा के गुणगान के साथ खनका है, गहलोत के उससे कई गुना खर्च की खनक खोटे सिक्के की सी आवाज भी पैदा नहीं कर पा रही है। इसके लिए जिम्मेदार कांग्रेसी भी हैं, जो सभी धाए-धापे से रहते हैं, इनके ठीक विपरीत भाजपाई कार्यकर्ता चुनाव आते और चामत्कारिक नेतृत्व मिलते ही पूरे जोश-खरोश के साथ छींके तक पहुंचने की जुगत में लग जाते हैं।
गहलोत का मीडिया मैनेजमेंट भी बेहद कमजोर रहा है, वे अपने 'भोंपू अखबारों' को पोखते हैं और उनमें छपे गुणगानों से संतुष्ट हो लेते हैं, मिशन से शत-प्रतिशत व्यापार बन चुके इस मीडिया को साधना अब नामुमकिन तो क्या मुश्किल भी नहीं है। आजकल का अधिकांश मीडिया अपनी हेकड़ी चलनी में लिए घूमता है और इस चलनी के नीचे हथेली राज की है!
दूसरी बात यह भी देखी गई है कि गहलोत अपने प्रशासनिक अमले पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर रहे हैं। प्रबन्धकीय आयाम से तो यह अच्छी बात होती है लेकिन राज चलाना है तो देखना यह भी होता है कि इस तरह का भरोसा करने जैसा यह प्रशासनिक अमला है क्या, क्योंकि शासन आपको इन्हीं के माध्यम से चलाना है। कुछेक भरोसे के अधिकारियों को छोड़ दें तो सभी अपने-अपने तरीके और बल पड़ते जाली-झरोखे से प्रशासन चला रहे हैं, उनमें से अधिकांश में इस बात की चेष्टा कहीं नहीं दीख रही कि राज की साख भी बने। वसुन्धरा के समय ऐसा नहीं था, वह जब चाहे तब लगाम खींच कर इन अफसरों को जांचती और चौकस रखती थीं।
प्रशासनिक अमले पर गहलोत के इसी अति भरोसे के चलते उनकी सभी फैलोशिप योजनाएं बेरंगत हैं और रंगत नहीं आयेगी तो अगले चुनावों के बाद राज भी नहीं रहेगा, जमाना दिखावे का है, केवल अच्छी मंशा से काम करना ही पर्याप्त नहीं है, उसका क्रियान्वयन होते दीखना भी जरूरी है।
विनायक, 4 अक्टूबर, 2012
गहलोत के आज के रात्रि विश्राम के मौके पर उनकी 21-22 मार्च की पिछली बीकानेर यात्रा पर लिखे विनायक सम्पादकीय का उल्लेख भी जरूरी इसलिए है कि बीकानेर के खरे-खरे उलाहनों को गहलोत भाव देना शुरू करें। गहलोत पर जोधपुर-जयपुर का विशेष ध्यान रखने और बीकानेर की उपेक्षा को आरोप भी मानें तो नजरअंदाजी तो कह ही सकते हैं। इस उल्लेख पर अपना हक बीकानेर वालों ने 14वीं विधानसभा के चुनाव परिणामों में ठीक 13वीं विधानसभा की तरह सात में से दो कांग्रेसी विधायक क्षेत्र से कायम रखकर जता दिया। जबकि गहलोत ने अपने दूसरे कार्यकाल में जयपुर, जोधपुर और कोटा पर जो मेहरबानी की वह किसी की नजर लगने जैसी ही थी। लेकिन वहां के मतदाता ने कांग्रेस को क्या परिणाम दिए यह एहसास कराने के लिए उक्त उल्लेखित सम्पादकीय के अंश को दोहराया जा रहा है-
बीकानेर जिले से 2008 के चुनावों में सात में से दो कांग्रेस के विधायक थे और पार्टी की केन्द्रीय स्तर पर साख लगभग खत्म होने के बावजूद 2013 के चुनावों से दो ही विधायक जीते हैं। समग्रता से देखें तो जिले में कांग्रेस ने यथास्थिति बनाए रखी। रही बात दोनों शहरी सीटों की तो ये दोनों ही सीटें पहले भी भाजपा के पास थीं। देखा जाए तो इन दोनों सीटों पर जीत-हार का अन्तर कम हुआ है यह अन्तर और भी कम या कहें पासा पलटू हो सकता था यदि नगर विकास न्यास के पूर्व अध्यक्ष मकसूद अहमद कल्ला बन्धुओं के कर्जे से मुक्त होने में लगे होकर आम-आवाम की असल जरूरतों को पूरा करते और भानीभाई महापौरी भोगने से मुक्ति पाते। गहलोत के नजदीकी होने की छाप के बावजूद स्थानीय निकायों के इन दोनों सर्वेसर्वाओं ने जनाकांक्षाओं पर खरे उतरने का कोई जतन नहीं किया। खैर लोक में कहा जाता है कि 'गई बात ने घोड़ा ही कौनी नावड़ेÓ यानी जो बीत चुका उसे बदला नहीं जा सकता।
उक्त सब उल्लेख आज गहलोत के बीकानेर प्रवास पर यह बताने के लिए किया कि जिले में उनकी पार्टी की जड़ें पुख्ता हैं। इस विपरीत माहौल और भानीभाई और हाजी मकसूद की अकर्मण्यताओं के बावजूद कांग्रेस की जड़ें कमजोर नहीं हुई हैं। खुद गहलोत के अपने मुख्यमंत्री के दोनों कालों में बीकानेर की सामान्य जरूरतों पर ध्यान नहीं देने का कारण यह हो सकता है कि उन्होंने इसकी जिम्मेदारी अपने समकक्षी डॉ. बी.डी. कल्ला की मान ली हो। लेकिन सरकार के मुखिया होने के नाते उन्हें कम से कम यह तो देखना ही चाहिए था कि क्षेत्रविशेष की जिम्मेदारियां जिनके जिम्मे हैं या जिन्होंने मानली, वे खुद अपनी जिम्मेदारी निभाने की कूवत रखते हैं कि नहीं? गहलोत से यह उलाहना इसलिए भी बनता है कि जयपुर-जोधपुर जैसे जिन दो जिलों के शहरी विकास पर गहलोत ने अपने दोनों ही कार्यकाल में सर्वाधिक या कहें दूसरे जिलों के शहरी विकास की कीमत पर ध्यान दिया, उन जिलों के मतदाताओं ने कांग्रेस और गहलोत सरकार में कितना भरोसा जताया? पिछले विधानसभा चुनावों में जयपुर जिले से कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता और जोधपुर जिले से कांग्रेस के जीतने वाले एकमात्र खुद गहलोत हैं। जाहिर है कि महामन्दिर, जोधपुर से कांग्रेसी उम्मीदवार गहलोत नहीं होते तो यह सीट भी भाजपा जीतती। इन दोनों ही शहरों के विकास में गहलोत ने धन खरचने में विभिन्न जिलों पर बराबर खर्च की धारणा को नजरअन्दाज कर न्यायप्रियता नहीं दिखाई थी। गहलोत को अब तो यह समझ लेना चाहिए कि उनकी पार्टी की जड़ें बीकानेर में गहरी हैं। वे यदि यहां के हकों का ध्यान रखकर इन जड़ों को सींचते तो कम से कम यहां के परिणाम ज्यादा भिन्न होते।
विनायक, 22 मार्च, 2014
हो सकता है यह आलेख गहलोत को कुछ असहज करे। वस्तुस्थिति से अवगत होना उनके लिए जरूरी इसलिए है कि गहलोत राजनीति को जीते हैं। अन्यथा दिसम्बर और मई की हार के बाद शौकिया और भोगिया राजनीति करने वाले सीपी जोशी जैसे नेता जिस तरह दड़बा-ध्यानस्थ हुए हैं वैसे ही गहलोत भी हो लेते!

14 अक्टूबर, 2014

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