Wednesday, October 1, 2014

स्वच्छ भारत मिशन की नियति

स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत कल गांधी जयंती पर होनी है लेकिन इसके लिए अभियान की शुरुआत हो चुकी है। विभिन्न शिक्षण संस्थाएं, गैर-सरकारी संगठनों से लेकर सरकारी, अर्ध-सरकारी कार्यालयों तक में इसी अभियान की रमक-झमक है। कई बाबू-अधिकारी खीजते देखे गये तो कुछ इसे कर्तव्य मानकर अंजाम दे रहे हैं। सरकारी कारकुनों का बड़ा रोवणा इस बात को लेकर है कि उनके अच्छे-खासे राष्ट्रीय अवकाश का कबाड़ा कर दिया। वैसे इन कार्यालयों में छुट्टी होने के बावजूद दो अक्टूबर को कोई काम होगा, लगता नहीं है। सरकारी गलियारों से जो फुसफुसाहट रही है उसका कुल लब्बो-लवाब यही है कि अधिकांश में इस बहाने छूं-छां हो रही है। और तो और कमरों को साफ सुथरा दिखाने के नाम पर अतिरिक्त फाइलें और सामान को मुकर्रर किसी एक कमरे में ठूंसा जा रहा है। बेतरतीब हो रहे इस काम को भुगतेंगे वे जिनकी फाइलें जरूरत पर नहीं मिलेंगी।
कहने को कहा जा सकता है कि कुछ हो उससे तो अच्छा है कि ऐसे अभियानों के माध्यम से कुछ तो होगा। होगा ही इससे इनकार किसे है लेकिन क्या गारन्टी इन अभियानों को हम अपनी आदतों में रूपान्तरित कर पाएंगे! ऐसे अभियान प्रतीकात्मक होते हैं और सामान्य प्रेरणा से क्रियान्वयन में परिवर्तित नहीं हो पाते। सफाई और स्वच्छता तभी रह सकती है जब गन्दगी करना बन्द कर दिया जाय। अभियान चलना यह चाहिए कि गन्दगी करना ही बन्द किया जाय।
उदाहरण के तौर पर गंगा सफाई अभियान को लें। पिछले तीस वर्षों से इस मद में करोड़ों रुपये खर्च किए जा चुके हैं, पर गंगा दिनो दिन ज्यादा गंदी होती जा रही है। यदि गंगा को गंदा करना बन्द कर दें तो वह स्वत: ही साफ बहने लगेगी। गोमुख से निकली गंगा के पहले चरण भागीरथी को गंगोत्री से ही गन्दा करना शुरू कर दिया जाता है। तीर्थ स्थल से पर्यटन स्थल में परिवर्तित गंगोत्री के गटर और कचरापात्र दोनों ही भागीरथी हैं, जो देवप्रयाग में गंगा बनने तक पूरी तरह गन्दी की जा चुकी होती है। गंगोत्री से गंगासागर तक के लगभग 2500 किलोमीटर के सफर में गंगा एक नाले से कम नहीं रह जाती है। जरूरत इतनी है कि इन नदियों को गन्दा मत करो साफ और स्वच्छ ये आपमते बह लेंगी।
यही स्थिति गांव-कस्बे और शहरों की है। पहले जब पर्याप्त संख्या में सफाईकर्मी थे तब सूखे शौचालयों के बावजूद वे साफ सुथरे थे। तब हो सकता है गन्दगी फैलाने की हमारी प्रवृत्तियां भी कुछ सीमित हों। आजादी बाद लगभग तीन गुना हो चुकी इस आबादी पर सफाईकर्मी उतने भी नहीं हैं जितने शुरू के वर्षों में थे-सरकारी घाटे की पूर्ति नौकरियां देकर होने लगी है। अलावा इसके भ्रष्टाचार के चलते सेवाओं के प्रत्येक क्षेत्र में हरामखोरी भी बढ़ी है। ऐसे में स्वच्छता तभी बनाई रखी जा सकती है जब गन्दा करने की प्रवृत्ति कम हो। पांच लाख की आबादी यदि गन्दा करने में लगी हो तब पचास हजार सफाईकर्मी भी नाकारा ही साबित होंगे। कोढ़ में खाज यह कि पॉलीथिन और प्लास्टिक डिस्पोजल इसे और भी दुरूह बना देते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी हर समस्या का समाधान हुड़े और हबीड़े से करवाना चाहते हैं जो मानवीय फितरत में स्थाई तौर पर संभव ही नहीं है। कहा जाता है कि 'स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन' का वास होता है लेकिन असल में इससे उलट है। मन स्वस्थ होगा तो शरीर से लेकर शहर तक सभी अपने-आप स्वच्छ और साफ-सुथरे रहने लगेंगे। मन की मैल का एक बड़ा कारक है-भ्रष्टाचार, जिसे नीचे से नहीं शीर्ष से खत्म करना जरूरी है। अन्यथा इन अभियानों में धन का धूणा ही होना है।
कुछ दिन बाद फिर किसी बड़े के हबीड़ा उठेगा, फिर किसी मिशन और अभियान की घोषणा होगी। हुड़ा भी लगाया जायेगा, कुछ होता दीखेगा भी। कुछ दिन बाद देखेंगे कि लौट कर पहले से बदतर स्थितियों में गये हैं।
गंगा  इसका बड़ा प्रमाण है जिसमें अभियानों के बावजूद प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है।

1 अक्टूबर, 2014

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