Friday, October 4, 2013

पप्पू और फेंकू उपमाओं के बीच फंसा लोकतंत्र

वर्तमान को देश के लोकतंत्र का विडम्बित काल भी कह सकते हैं। देश के दो प्रमुख दलों कांग्रेस और भाजपा ने जिन्हें शीर्ष पर थोपा है वे दोनों ही अलग-अलग कारणों से इसके अयोग्य हैं। देश का लोकतंत्र इससे पहले भी पिछली सदी के आठवें दशक में दूसरी तरह से तब छला गया जब तब की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया, लेकिन अब वैसा इसलिए संभव नहीं है कि अभिव्यक्ति के इतने माध्यम और साधन हो गये कि कितनों को कैसे-कैसे बन्द करेंगे? तब केवल अखबार थे अब तो टीवी के साथ सोशल मीडिया भी सक्रिय है।
यह बेलगाम सोशल मीडिया अपने प्रारम्भिक काल में है इसलिए इसकी अराजकता घातक और विस्फोटक प्रतिक्रियाओं को प्रेरित कर सकती है, कभी-कभार कर ही रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका उपयोग करने वालों में धीरे-धीरे एकसेल्फ सेंसविकसित हो जायेगा और वे खुद तय कर सकेंगे कि क्या सही है और क्या गलत, लेकिन फिलहाल ऐसी उम्मीद संभव नहीं है।
प्रारम्भिक बात पर लौट आते हैं। पिछले एक अर्से से जब से भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की औपचारिक और कांग्रेस ने राहुल की अनौपचारिक थरपना की तभी से इस सोशल मीडिया में इन्हें फेंकू और पप्पू से भी सम्बोधित किया जाने लगा। जब यह उपमाएं दी गईं तब लगा कि इस तरह की शब्दावली का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए और आज भी लगता है कि ऐसी नौबत नहीं आनी चाहिए। पर इन दोनों नेताओं की कही-अनकही करतूतों से जैसे-जैसे दो-चार होते गये तो लफंदर-मन ना केवल इन उपमाओं की पुष्टि करने लगा बल्कि लगने लगा कि थोपे गये इन दोनों नेताओं के लिए पप्पू और फेंकू से बेहतर उपमाएं हो ही नहीं सकती थी, और तो और लगता है ये दोनों ही नेता खुद इन उपमाओं की पुष्टि करने की होड में भी लगे हैं।
मोदी लोकप्रियता के लोभ में अकसर भूल जाते हैं कि उन्हें अब भारत जैसे देश कापीएम इन वेटिंगघोषित कर दिया गया है और कुछ मुद्दों पर बोलते हुए जहां उन्हें सावधानी बरतनी चाहिए वहीं फौज, रक्षा, सीमा और पड़ौसी देशों जैसे अति संवेदनशील मुद्दों पर वे लापरवाही से बोले। प्रतिद्वंद्वियों के उल्लेख के समय भी वे सामान्य सावधानियों का निर्वहन नहीं करते। उक्त मुद्दों के नेपथ्यों की जानकारी मोदी को नहीं होगी, ऐसा मानना मोदी को कुछ ज्यादा ही कम आंकना हो जायेगा।
इसी तरह राहुल गांधी चालीस पार की इस उम्र में बचकाना कहते और करते अकसर दिख जाते हैं, सफाई में यह कहते भी नहीं चूकते की उनकी मंशा ऐसी नहीं थी, तब यह भूल जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन में अच्छी मंशा के साथ-साथ उसे जाहिर करने का उचित तरीका भी होना जरूरी होता है।
आम सभाओं में भाषण देते वक्त दोनों नेताओं की भाव-भंगिमाओं को आत्मविश्वासहीनता की चुगली करते देखा जा सकता है।
तीसरी किसी भी पार्टी या मोर्चे में देशीय स्तर पर क्षमता और लक्षण फिलहाल दिखाई नहीं दे रहे हैं। इसीलिए प्रारम्भ में वर्तमान को विडम्बित काल बताया और ऐसे काल में प्रत्येक की नागरिक की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह किसी माहौल और लहर से चौकस रहे और सभी उम्मीदवारों का नापसंद करने का (राइट टू रिजेक्ट/नोटा) का जो हक देश की सर्वोच्च कचहरी ने हाल ही में आम मतदाता को दिया है, ना केवल उसकी ताकत का आकलन करें बल्कि उसके दूरगामी ऐसे सकारात्मक परिणामों की कल्पना भी करे जिनसे लोकतंत्र को मजबूती मिल सके।

4 अक्टूबर, 2013