Wednesday, October 2, 2013

गांधी के बहाने कुछ यूं ही!

आज 2 अक्टूबर है, ईस्वी सन् 1869 को आज ही के दिन मोहनदास कर्मचंद गांधी का जन्म हुआ था। पैंतीस की उम्र में इंग्लैण्ड होते हुए दक्षिण अफ्रीका पहुंचे गांधी जब मानवीय गरिमा की जद्दोजेहद में लगे थे तभी 1904 में 2 अक्टूबर के ही दिन लालबहादुर शास्त्री का जन्म हुआ। दोनों का परिचय देने की जरूरत नहीं है। गांधी के विचारों में जबरदस्त भरोसा करने वाले लालबहादुर शास्त्री बहुत थोड़े समय के लिए देश के प्रधानमंत्री रहे और माना जाता है कि यदि उनका असमय निधन नहीं हुआ होता तो अपने देश का रंग-ढंग और चाल-चलन कुछ दूसरा होता। इन दोनों का आज के दिन स्मरण करना अच्छे और भले लोगों को महत्त्व देना है। प्रकारान्तर से पूरा विश्व गांधी का स्मरण अहिंसा दिवस के रूप में करने लगा है और अपने देश में शास्त्री को इस दिन भुलाने की कृतघ्नता बहुत कम लोग करते हैं!

सोशल साइट्स यथा फेसबुक आदि पर सक्रिय लोगबाग विभिन्न तरीकों से इन दोनों विभूतियों को याद करते हैं तो कुछ को गांधी को याद करना बर्दाश्त नहीं होता ऐसे लोगों में अधिकांशत: वे लोग हैं जो इन सोशल साइट्स पर नरेन्द्र मोदी का झण्डा फहराते रहे हैं। गांधी के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नापसन्दगी आज की नहीं है? कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि संघ का गठन ही गांधी विरोध के लिए हुआ था, हालांकि यह पूर्ण सत्य नहीं है बल्कि कहा यह जाना चाहिए कि कुछ संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों ने मिलकर अपनी घृणा का पोषण करने के लिए एक संगठन की स्थापना की और उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम दिया। तब से लेकर आज तक ये लोग केवल और केवल सत्य को झुठलाने के प्रयास में ही लगे हैं और इसके लिए वे किसी भी हद तक जाने से नहीं चूकते। संघानुगामियों द्वारा बहुत बनावटी विनम्रता के साथ प्रचारित ऐसी घृणाओं, विरोधाभासों और झूठे इतिहास कथनोंं की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि इनका सार-संक्षेप में जिक्र करें तो पुस्तक तैयार सकती है? कांग्रेस ने जहां अपने लाभ के लिए अब तक गांधी का उपयोग किया वहीं भाजपा के गठन के बाद संघ भी गांधी नाम का दुरुपयोग करने में लग गया है। पिछली सदी के नवें दशक में दिखावे भर को प्रात: स्मरणियों की सूची में गांधी को डाल तो दिया पर उनके बारे में संघियों का अनर्गल प्रचार बादस्तूर जारी है। अक्षम्य ना कांग्रेस है और ना ही भाजपा-संघ।

आज के दिन होना तो यह चाहिए कि यहां अहिंसक शब्दावलि में कुछ चर्चा होती, गांधी का अनुसरण मुश्किल है पर असंभव नहीं। हाड़मांस के होकर  भी स्वयं गांधी ने अपनी कही पर जी कर दिखाया था। चूंकि हमने असल मुश्किलों से दो-चार होना छोड़ दिया इसलिए बद से बदतर मुश्किलों के लगातार सृजन में ही लगे हैं। इसे हम एक दृश्य के माध्यम से समझ सकते हैं, तालाब के ठहरे पानी में एक कंकर फेंकने से पत्थर के लक्ष्य से बाहर की ओर जो घेरे बनते हैं उन्हें वलय कहा जाता है, संकीर्ण से व्यापकता की ओर बनते चले जाकर यह वलय शान्त हो जाते हैं। इसके उलट मनुष्य ने अपना गन्तव्य वलय के उस केन्द्र को मान लिया जहां कंकर गिरता है, वलय की गति के विपरीत। ऐसे गन्तव्य के चलते उसे हासिल सबसे संकीर्ण वलय या घेरा ही होना है। कहने का भाव यही है कि हम अपनी इच्छाओं को संकीर्ण करते चले जा रहे हैं मनुष्य--मनुष्य भी अपने देश का, अपने धर्म और जाति का, धर्म और जाति में भी अपने प्रदेश का, शहर और मुहल्ले का, कुटुम्ब का, कुटुम्ब में भी मेरी पत्नी, मेरी जाई सन्तानें और आखिर में मेरे और फिर मेरा भी नहीं केवल मैं की गति को प्राप्त होकर अतत: हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाते हैं।

आज के सभी लोकप्रिय धर्मगुरु, लोकप्रिय धार्मिक और सामाजिक संगठन, सत्ता को हासिल करने की हैसियत में चुकी राजनीति पार्टियां आदि आदि मनुष्य की संकीर्णता की ओर अग्रसर इस मानसिकता का शोषण करने में लगे हैं। गांधी इस सबसे ठीक उलट व्यापक पोषण की बात कहते हैं, वे कहते हैं, वलय की गति के साथ बाहर की ओर अग्रसर होएं, अपनी सोच को इतनी व्यापक बनाएं कि बजायमैंके इस पूरे चर-अचर जगत् को अपना मानने लगें और जड़ और चेतन सभी के अच्छे की आकांक्षा करें। ऐसा ही है तो है गांधी का बताया रास्ता, मुश्किल कैसे हुआ, क्यों भ्रमित हैं हम?

2 अक्टूबर, 2013

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