Thursday, October 10, 2013

आज फिर राजस्थानी पर बात

राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा दिये गये इस वर्ष के अनुवाद पुरस्कार का कौथिणा समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है, लेखक नवनीत पाण्डे ने साहित्यिक पुरस्कारों को लेकर अब तक उठे विवादों पर शृंखलाबद्ध विवादनामे का प्रकाशन स्थानीय युगपक्ष में शुरू कर दिया है तो इसी अखबार ने विवादित पुस्तकमां कैवती हीकी कविताओं पर पाठकों की राय जानने की मंशा से एक-एक कविता को भी छापना शुरू कर दिया है। बड़े माने जाने वाले अखबार इस मुद्दे को भाव नहीं दे रहे हैं, हालांकि इसे चिंगारी दिखाने में सहयोग उन्हीं का किया धरा है।
यह तो हुई प्रिण्ट मीडिया की बात, आजकल एक सोशल मीडिया भी सक्रिय है, फेसबुक और वाट्सएप पर इसी मुद्दे को लेकर शुरू हुआ घमासान अब इकतरफा हो गया है। जिस पुस्तक पर विवाद खड़ा किया गया उसके तरफदार अभी भी आक्रामक बने हुए हैं तो विवाद को खड़ा करने वाले बचाव की मुद्रा में गये लगते हैं।
इस बीच एक वाकिया और घटित हो गया है। अकादमी कार्यकारिणी से नीरज दईया और प्रकरण के तथाकथित प्रमुख आरोपी सत्यनारायण सोनी ने इस्तीफा दे दिया है। इन इस्तीफों के अलग-अलग मतलब निकाले जाने लगे हैं। कहा जा रहा है कि दिसम्बर में नई सरकार जो भी बनेगी वह इन सब को वैसे ही हटा देगी तो ये लोग कुल जमा दो महीने पहले हट कर शहीद का दर्जा हासिल करने की मंशा रखते हैं। यह बात अलग है कि यह दर्जा हासिल होगा कि नहीं। पहले तो यही पता करना होगा कि ऐसे दर्जा देने की हैसियत में राजस्थानी में है ही कौन? उधर जिन राजस्थानी के लेखकों कोमां कैवती हीकी कवयित्री सुमन गौड़ ने मानहानि के मुआवजे के लिए पचास लाख का नोटिस भिजवाया है, वे दोनों ही मीडिया के किसी भी माध्यम पर मुखर नहीं देखे जा रहे हैं। हालांकि उनको अभी तक यह पता लग गया होगा कि ऐसे नोटिस भेजना तो आसान है पर मुकदमा करना असंभव ना सही मुश्किल जरूर है। पचास लाख के मुकदमें की कोर्ट फीस ही साढ़े तीन-चार लाख होती है, जो आरोप सिद्ध नहीं होने पर जब्त भी हो जाती है। हो भी सकता है कि लेखिका ये रिस्क उठाने को तैयार हो जाये और यह भी कि अपनी मानहानि का मुआवजा मुकदमा लगाते समय कम आंक लें। देखा यही गया है कि इस तरह के नोटिसों को बाद दोनों ही तरफ से समझोते की कोई जुगत देखी जाती रही है और लग रहा है कि बचाव पक्ष पिछले कुछ दिनों से प्रयासरत भी है। हालांकि उनकी इस बचाव मुद्रा के बाद से दूसरा पक्ष अपनी आक्रामकता को बढ़ा चढ़ाकर दिखा रहा है। खैर इस विवाद का जो भी होगा, पर एक बात तो तय है कि इससे राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की गरिमा में कोई इजाफा नहीं होना है।
विनायकने इस अकादमी से सम्बन्धित जो तीन सम्पादकीय लिखे थे और अगर उनमें कोई लाग-लपेट नहीं है, नहीं ही होगी क्योंकि राजस्थानी के किसी खैर-ख्वाह ने उन पर एतराज जाहिर नहीं किया है। इस सबके बावजूद यह कैसे माना जा सकता है कि इस तरह के संस्थानों पर सार्वजनिक धन खर्च करना उचित है? क्योंकि इस अकादमी की स्थापना से लेकर अब तक एक भी उल्लेखनीय काम नहीं गिनाया जा सकता है, हां विवादों और रस्म अदायगियों की फेहरिस्त जरूर बन सकती है।

10 अक्टूबर, 2013

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