Tuesday, October 1, 2013

नायक कौन और क्यों?

आदमी की फितरत है उसे नायक चाहिए होता है, ना हो तो थरपते देर नहीं लगाता, नायकों को घड़ने के प्रमाणों से भी ग्रन्थ भरे पड़े हैं, यह फितरत अपने ही देश में नहीं प्रकारान्तर से सभी देशों में पायी जाती है, ऐसी जरूरत वर्तमान की नहीं है, मानव जाति का इतिहास नायकत्व से भरा पड़ा है, भिन्न-भिन्न तरह के नायक-जालिम भी तो भले भी, देशी भी तो विदेशी भी।
देश में आजादी गयी, लोकतंत्र गया तब भी नायक की जरूरत। नेहरू, इन्दिरा, अटल, आडवाणी के बाद अब मोदी, राहुल को नायकों के रूप में थरपा जा रहा है। अपने-अपने सुबों के नायकों की भी लम्बी फेहरिस्त है, शेख अब्दुला से लेकर मोहनलाल सुखाड़िया, एमजी रामचन्दन, करूणानिधि, एनटी रामाराव, ज्योतिबसु, प्रफुल्ल महंत, लालू यादव, मुलायम, माया आदि। नाम जितने गिनाए हैं उनसे कई गुना छूट गये होंगे, छूट ही गये हैं।
एक नये तरह के नायक की चर्चा और होने लगी है, एकदम नये तरह के इस वस्तुनिष्ठ नायक को मीडिया कहा जाता है, जब से पत्रकारिता का कायान्तरण मीडिया में हुआ तब से ही उसमें नायक होने की छटपटाहट देखी जा रही है। पत्रकारिता और खबरों के टीवी चैनल मीडिया के ये दोनों रूप गाहे-बगाहे इतराने से भी नहीं चूकते। मुद्दों को हवा देना, लगातार उन्हें आक्सीजन पर रखना। ट्रायल के आरोप लगते रहने के बावजूद बहसें-चर्चाएं जारी रखी जाती है। कई मामलों को सिरे तक पहुंचाने का श्रेय भी है मीडिया को। जेसिकालाल, नीतीश कटारा जैसे हत्याकांडों में एफआर ना लगने देने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन क्या इस बिना पर मीडिया को समय का नायक मान लेना उचित होगा। उपरोक्त गिनाए नवनायकों और उन्हें नायकत्व में रूपान्तरित करने वाला मीडिया दोनों को समय का नायक नहीं माना जा सकता। नेताओं की नीयत और नाता जैसा भी रहा है, अधिकांश से छिपा नहीं है। उनका रहन-सहन, तौर-तरीके और व्यवहार चुगली से नहीं चूकते। , राजा, जगनरेड्डी, येदुइरप्पा, महिपाल, मलखान, जगन्नाथ मिश्र और लालू यादव आदि नायकत्व के हाल ही के ताजा उदाहरण है जिनकी छवि भंग हो होकर भी कायम रहती है। ऐसों की नायकत्व की छवि का कायम रहना ही इस बात का प्रमाण है कि आदमी को एक नायक की दरकार हमेशा रहती है चाहे वह कैसा भी हो।
पिछले कुछ सालों में कुछ अपवादों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र में जिसे नायक की असल भूमिका में माना जा सकता है वह है न्यायपालिका। तहसील न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय से सम्बन्धित चेम्बर प्रेक्टिस या अन्य प्रभावों से फैसलों को बदलना, न्याय में अनावश्य देरी करना आदि-आदि की गाहे-बगाहे आने वाली खबरों के बावजूद। आए दिन जजों की छंटनी कर घर जाने को कहने और जाने पर सेवाएं समाप्ति की सूचनाएं भी मिलती है, ऐसा इसलिए होता है कि यह न्यायिक अधिकारी भी आप और हम से ही बनते हैं, किसी दूसरी दुनिया से नहीं आते। मौका मिलते ही जब किसी भी तरह की गड़बड़ी से हम नहीं चूकते हैं तो यह उम्मीद करना कि न्याय की कुर्सी पर बैठने वाले सभी के सभी खरे उतरें, कैसे सम्भव है। इस सबके बावजूद न्यायालय ऐसी नजीरे पेश करता रहता है जिससे लगने लगा है कि लोकतंत्र में नायक होने का असली हकदार वही है, वैसेविनायकयह मानता है कि किसी भी तरह का नायकत्व लोकतंत्र में बाधा है।
दागी राजनेताओं, राइट टू रिकॉल और चारा घोटाले पर कल ही का फैसला यह भरोसा देता है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था से उम्मीदें खत्म करने का समय अभी आया नहीं है।

1 अक्टूबर, 2013

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