Wednesday, May 8, 2013

कल्ला बनाम कल्ला-एक


बीकानेर के बाशिन्दों से, बीकानेर के सार्वजनिक हितों के सन्दर्भ में-जनप्रतिनिधि के रूप में जनार्दन कल्ला क्या डॉ. बी.डी. कल्ला से बेहतर होते?’
यह एक फेसबुक स्टेटस है जिसे एक सप्ताह पहले डाला गया था। इस स्टेटस को शहर के फेसबुकिए ज्यादा से ज्यादा पढ़ पाएं इसलिए कई स्थानीय फेसबुक मित्रों के साथ शेयर भी किया गया। स्टेटस डाले जाने के तीन-चार घंटे बाद ही एक मित्र का मोबाइल आया और स्थानीय मुहावरे में बोलेयह चकारिया क्यों फेंका है, कोई पांव नहीं धरेगा’, कुछ ऐसा सा कयास भी था। एकाध प्रतिक्रियाओं और कुछेक लाइक्स को छोड़ दें तो उक्त स्टेटस लगभग उपेक्षित ही रहा। इसके बावजूद प्रश् तो खड़ा ही है, अब तो उन कइयों के सामने भी खड़ा होगा जिन्होंने इसे कोई भाव नहीं दिया।
जनार्दन कल्ला ने राजनीति औपचारिक रूप से पिछली सदी के सातवें दशक के मध्य महाविद्यालयी छात्र राजनीति से शुरू कर दी थी, छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गये। 1967 के चुनावों में स्थानीय मूल के भीलवाड़ा में मजदूर संगठनों की राजनीति करने वाले गोकुल प्रसाद को कांग्रेस ने समाजवादी मुरलीधर व्यास को पटखनी देने उतारा। गोकुल प्रसाद ने चुनावों से काफी पहले आकर जिस तरह जाजम बिछाई उससे लगने लगा कि वे चुनावी राजनीति की गोटियां सजाने में माहिर हैं। गोकुल प्रसाद के साथ तब जो सक्रिय दिखे उनमें गोपाल जोशी, मक्खन जोशी और जनार्दन कल्ला के प्रमुख नाम हैं जिन्होंने बाद की बीकानेरी राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई। यह तीनों ही कांग्रेसी 1970 के नगर परिषद चुनावों में पार्षद चुने गये और गोपाल जोशी अध्यक्ष भी बने।
जनार्दन ऊन के सामान्य व्यापारिक परिवार से थे, रिश्ता भी उन मक्खन जोशी और गोपाल जोशी से निकट का था जिनकी उन दिनों सामाजिक प्रतिष्ठा कल्ला परिवार से ज्यादा थी। गोपाल जोशी, मक्खन जोशी और जनार्दन कल्ला की इस तिकड़ी को 67 के विधानसभा चुनावों के बाद स्थानीय बोली में गोकुलजी के पट्ठे कहा जाने लगा। हो सकता है यह विशेषण इन्हें और इनके परिजनों को अब अच्छा नहीं लगे और यह भी हो सकता है कि उस समय गोकुलजी के पट्ठे कहलाने वाले कुछ और लोग भी मन मसोसें कि उनके नाम का उल्लेख क्यों नहीं हो रहा है।
जनार्दन कल्ला शुरू से ही जीवटी और महत्त्वाकांक्षी थे, पुश्तैनी व्यापार से अलग कुछ करने की भी ठानी।परदेशभी गये, अनुकूलता बनी तो लौट आए। ठेकेदारी और राजनीति में लग गये। यानी ठेकेदारी और राजनीति का याराना तब से ही है। तब की राजनीति में गोकुल प्रसाद, गोपाल जोशी और मक्खन जोशी से आगे निकलने या चुनौती देने का साहस 1977 से पहले जनार्दन नहीं दिखा पाए। लेकिन 1977 के विधानसभा चुनावों में जनार्दन ने बीकानेर शहर से तब दावेदारी का साहस दिखाया जब तब के विधायक गोपाल जोशी दीखती हार के कारण चुनाव लड़ने को तैयार दिखे।
1972 के चुनावों में गोपाल जोशी की जीत और मुरलीधर व्यास की मृत्यु के बाद मक्खन जोशी अपने मित्रों की राय से व्यावहारिक राजनीति में सम्मानजनक हैसियत के मकसद से समाजवादी पार्टी में चले गये। 1975 में लगे आपातकाल में जेल भी गये और 1977 में घोषित लोकसभा चुनावों में मक्खन जोशी बीकानेर शहर से कांग्रेस विरोधी नेता के रूप में लगभग चुनौतीहीन रूप में उभरे। कुछ तो 77 का कांग्रेस विरोधी माहौल और कुछ शहर में मक्खन जोशी की लोकप्रियता, इन दोनों ने विधायक गोपाल जोशी को सहमा दिया, क्योंकि सभी मान कर चल रहे थे कि बीकानेर शहर सीट से जनता पार्टी के उम्मीदवार मक्खन जोशी ही होंगे। लेकिन जैसे ही समाचार आया कि जनता पार्टी का टिकट तो मक्खन जोशी की जगह महबूब अली ले आए हैं, गोपाल जोशी दावेदारी पर उतर आए। बहनोई की यही बात साले जनार्दन के गले नहीं उतरी, वे पहली बार गोपाल जोशी के सामने हो लिए। कांग्रेस ने बीच का रास्ता निकाला और पार्टी से निष्कासित गोकुल प्रसाद को केवल तुरत-फुरत कांग्रेस में शामिल किया, बल्कि टिकट देकर महबूब के सामने खड़ा भी कर दिया। जनता को तब कांग्रेस किसी भी रूप में स्वीकार नहीं थी, फिर वह चाहे गोपाल जोशी होते या जनार्दन कल्ला। गोकुल प्रसाद हार गये। इसी के बाद जनार्दन कल्ला और गोपाल जोशी के बीच जो सळ आया वह बढ़ता ही गया।
(क्रमशः)

8 मई, 2013

No comments: