Friday, May 10, 2013

कल्ला बनाम कल्ला-तीन


कुछ लोगों के जीवन में अधिकांशतः अनुकूलताएं बनी रहती हैं, वे चाहे उसके योग्य हो या ना हों, डॉ बीडी कल्ला को उन्हीं में से एक माना जा सकता है। उनके लिए पहली बड़ी अनुकूलता तो यह कि उन्हें जनार्दन कल्ला जैसा भाई मिला जिसने जनप्रतिनिधि के रूप में खुद योग्य होते हुए भी अनुज कीसाहबीलालसाओं के लिए अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को दबा लिया। डॉ कल्ला को दूसरी बड़ी अनुकूलता रामपुरिया कॉलेज में उनके व्याख्याता होने के रूप में मिली। वहां के मित्रों ने अपने मकसदों के चलते ही सही उन्हें उनकेसाहबीमुकाम तक पहुंचने में बड़ी मदद की। तब के रामपुरिया कॉलेज के प्राचार्य कश्मीरी थे और इसी के चलते उनके सम्बन्ध नेहरू-गांधी परिवार तक थे। साथी मित्रों ने डॉ कल्ला को कांग्रेस का टिकट दिलवाने को नेहरू-गांधी परिवार तक पैरवी के लिए उन प्राचार्य को भरोसे के साथ सहमत करवाया। इस तरहतोप का लाइसेंस मांगने पर पिस्टल का मिल सकता हैकैबत की पुष्टि भी हो गई।
जिस दिन डॉ कल्ला को टिकट मिला उस दिन वे खुद एकबारगी तो डाफाचूक (निश्चेष्ट) अवस्था में गये थे। लेकिन ज्यों ही चुनाव अभियान की कमान जनार्दन कल्ला ने सम्हाली, अनुकूलताएं बनती चल गईं। उनके लिए बड़ी अनुकूलता हुई जनतापार्टी के प्रयोग के असफल होने से उकताई जनता द्वारा विकल्प के रूप में कांग्रेस को ही स्वीकारना। 1980 के कल्ला के पहले चुनाव में उनके लिए बनी एक और अनुकूलता का जिक्र किया जा सकता है। जनता पार्टी के प्रदेश स्तरीय नेताओं ने नासमझी करते हुए चुनावी समझौते के तहत बीकानेर शहर की सीट को भारतीय जनसंघ के नये स्वरूप भारतीय जनता पार्टी को दे दी। जबकि आजादी बाद से बीकानेर की यह सीट समाजवादियों के प्रभाव क्षेत्र में रही है। 1980 से पहले के छह में से तीन विधानसभा चुनावों में समाजवादी प्रत्याशी ही सफल हुए, जबकि कांग्रेस मात्र दो बार और एक बार निर्दलीय ने जीत अर्जित की। जनसंघ तो यहां कभी टक्कर में रही ही नहीं। जबकि जनता पार्टी के पास शहर से मक्खन जोशी जैसा प्रभावी उम्मीदवार भी था। जनता पार्टी प्रयोग से उकटाहट के बाद भी सम्भव था कि यदि जनता पार्टी से टिकट मिलती तो उस चुनाव को मक्खन जोशी जीत जाते। यदि ऐसा होता तो कम से कम बीकानेर को बीडी कल्ला जैसेकोरी ठसकाईवाले तथाकथित ऐसे जनप्रतिनिधि को अब तक भुगतना होता जिसे इस शहर से लगाव नहीं है और इसको विकसित करने के लिए योजना तो उनके पास ना कभी रही और ना है। पहला चुनाव यदि बीडी कल्ला हार जाते तो शायद वे दूसरा चुनाव लड़ने के लिए अपने बिखरे हौसले को समेट ही नहीं पाते।
ऊपर उल्लेखित सभी अनुकूलताओं के चलते बीडी कल्ला 1980 का चुनाव जीत गये। मात्र व्याख्याता होते हुए प्रोफेसर शब्द का प्रयोग करने के चलते राज में सचेतक और सचेतक से राज्यमंत्री और राज्यमंत्री से केबिनेट मंत्री तक के पद भी हासिल कर और भोग लिए। लेकिन इन बत्तीस वर्षों में दो बार को छोड़ कर डॉ कल्ला ही यहां से विधायक भी रहे और सत्ता में भागीदार भी, बावजूद इसके विकास के नाम पर बीकानेर को बचा-खुचा उतना ही हासिल हो पाया जितना पंक्ति में खड़े अन्तिम को उसकी बारी आने पर हासिल होता है।
डॉ बीडी कल्ला शहर में अपने द्वारा करवाए जो काम गिनवाते हैं अगर उन वर्षों में उतने ही काम ना होते तो सवाल कल्ला पर नहीं प्रदेश की सरकार पर उठते। कल्ला के पिछले सत्ताकाल तक प्रदेश में पांच ही संभाग थे और तब तक जो भी शहर में काम हुए उनमें से लगभग सभी अन्य संभाग मुख्यालयों में हो चुकने के बाद ही यहां हुए हैं। इसलिए कह सकते हैं कि अगर तब भी वे काम नहीं होते या शहर को कुछ हासिल ना होता तो समान बंटवारे के तर्क पर जवाबदेही शासन और प्रशासन की ही बन जाती। इस तरह कल्ला जो भी काम गिनवाते हैं वे सब तो तब भी होते जब यहां विपक्षी पार्टी का विधायक होता।
क्रमशः
10 मई, 2013

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