Saturday, May 4, 2013

सरबजीत के बहाने आज फिर कुछ


बोले जकै रा भूंगड़ा ही बिक जावे, नहीं बोले जकै रा मोती भी पड़्या रह जावे।लोक में यह कैबत विभिन्न रूपों में मिलती है लेकिन भाव एक ही है कि हासिल उन्हें ही होता है जो मुखर होते हैं। सरबजीत का मामला ही ले लो, पड़ोसी पाकिस्तान की जेलों में ही 250-300 भारतीय कैद हैं लेकिन बहन दलबीर कौर के चलते सरबजीत केवल लगातार सुर्खियों में रहे बल्कि असमय मृत्यु के बाद उसे शाहीद का दर्जा, परिवार को मोटी रकम औरबड़े-बड़ेलोगों द्वारा उसकी अंत्येष्टि में शामिल होना भी उल्लेखनीय हो गया। कहते हैं 1990 में सीमाई गांव में रहने वाला सरबजीत नशे की हालात में भटक कर पाकिस्तान चला गया, पकड़ा गया। पाकिस्तान की पुलिस और खुफिया एजेन्सी को वहां हुए धमाकों के लिए किसी जिम्मेदार को ढूंढ़ना था, सरबजीत मिल गया तो उनकी तलाश पूरी हो गयी और तथ्य जुटाकर सरबजीत के लिए फांसी की सजा का फैसला सुनवा दिया।
सरबजीत की बहन कई वर्षों से अपने भाई की रिहाई के लिए सभी तरह के प्रयासों में लगी रही, जैसे उसने अपने जीवन का उद्देश्य ही सरबजीत की रिहाई को बना लिया था। दलवीर की इसी इच्छाशक्ति के चलते सरबजीत की रिहाई के मुद्दे पर केवल भारतीय मीडिया में लगातार चर्चा होती रही बल्कि पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ता भी उसकी फांसी माफी और रिहाई के लिए सक्रिय हो गये थे। नीयत या मंशा तो अपनी जगह है लेकिन कानूनी पेचीदगियां भी कुछ होने नहीं देती। सरबजीत के मामले में लगता है नीयत और कानूनी पेचीदगियां दोनों आड़े आती रहीं।
सरबजीत के बहाने से आज एक ओर मुद्दे पर भी बात कर लेते हैं। सरबजीत पर पाकिस्तान सरकार का बम विस्फोटों के अलावा एक अन्य आरोप जासूसी का भी था। भारत सहित सभी देश सर्वथा गोपनीय मानी जाने वाली सूचना स्रोत की इस प्रणाली में विश्वास रखते हैं और जिन-जिन देशों में जरूरत होती है उन उन देशों में अपने जासूसों को तैनात करते हैं। बंटवारे के बाद से भारत पाकिस्तान के सम्बन्ध कभी अच्छे रहे ही नहीं। इसलिए दोनों ही देश सूचना स्रोत की इस प्राचीन प्रणाली को काम में लेते रहे हैं। जासूसी करते पकड़े जाने की खबरें हम अकसर देखते-सुनते आए हैं और ऐसी ही खबरें भारत को लेकर पाकिस्तान में शाया होती रही हैं। जासूसी एक ऐसा पेशा है जिसकी गत बहुत खराब होती है। क्योंकि पकड़े जाने पर उसकाधणीधोरीकोई नहीं होता है। इस पेशे में आए को पहले ही बता दिया जाता है कि यदि पकड़े गये तो आपके अधिकृत होने की कोई जिम्मेदारी नहीं ली जायेगी। यह जरूर हो सकता है कि सूचना देते रहने तक जरूरत भर की उसे और उसके परिजनों के लिए सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं, पर यह सब होता अनधिकृत तौर पर ही है।
सरबजीत जासूस था या नहीं, आरोपित बम धमाकों में उसका हाथ था या नहीं, या सचमुच नशे की हालत में सीमा पार कर गया था, इन सभी बातों का अब कोई मतलब नहीं हैं। सुर्खियां पाने भर के दबावों के चलते सरबजीत को शहीद का दर्जा भी मिल गया, परिजनों को करोड़ों रुपये मिल गये। हो सकता है अभी और भी बहुत कुछ मिल जाए। लेकिन इससे पहले भी ऐसा ही सलूक कई भारतीय कैदियों के साथ होता रहा और जैसा कि ऊपर बताया गया है कि 250-300 के लगभग भारतीय अभी भी पाकिस्तान की जेलों में हैं। इनके अलावा भी अन्य विदेशी जेलों में लगभग सवा छः हजार भारतीय कई-कई आरोपों में कैद हैं। इन सभी कैदियों पर वहां क्या बीत रही है और उनके परिजन यहां किस स्थिति में गुजर बसर कर रहे हैं, ठिठक कर इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। घीड़कली का घी एक थाली में उडेल देना न्याय कहलाएगा और नहीं कानून का राज। सुर्खियां देना भर ही है क्या मीडिया की जिम्मेदारी?
4 मई, 2013

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