अधिकांश सूक्तियां या सुभाषित शायद होते ही पढ़ने भर के लिए हैं। कोई वाक्य सूक्तियां या सुभाषित शायद इसीलिए कहलाने लगता है, कि उन पर अमल करना ही नहीं होता। एक बहुत छोटी सूक्ति है, ‘जीवन अनमोल है’, इस सूक्ति के उड़ते परखचों की सूचनाएं प्रतिदिन टीवी-अखबारों में देखते-पढ़ते हैं। दुर्घटनाओं के खबरें इतनी आने लगी हैं कि लगता है कि देश और समाज में और कुछ घटित ही नहीं होता! बीच-बीच में घोटाले जरूर सुर्खियां पाने लगे हैं।
हाइवे पर निकल जाएं तो किनारे लगे बोर्डों पर लिखा मिलेगा ‘दुर्घटना से देर भली’ और ‘ड्रिंक्स एण्ड ड्राइव डोंट मिक्स’ हिन्दी में भी लिखा मिलेगा, ‘मद्यपान करके गाड़ी ना चलाएं’। लेकिन सोच यह हो गया है कि बिना नशे-पत्ते के लम्बी दूरी पर थकान आ जाती है। यह भी देखा गया है कि लोग-बाग बिना लाइसेंस के न केवल मोटरसाइकलें बल्कि चार पहिया वाहन भी धड़ल्ले से चलाते हैं। लाइसेंस हो तो भी सलीके से गाड़ी कौन चलाता है? परिवहन विभाग में दलालों के माध्यम से लाइसेंस बनते हैं, लाइसेंस देने से पहले चालक को जो सामान्य जानकारियां होनी चाहिए उसकी सामान्य जांच भी परिवहन कार्यालयों में नहीं होती है।
हाइवे तो हाइवे, शहरी सड़कों पर आए दिन दुपहिया सवार दुर्घटनाग्रस्त होकर या तो अपना या सामने वाले का या दोनों का ही जीवन खो बैठते हैं। सेल्फ स्टार्ट गाड़ियों के स्टार्ट होते ही हर कोई हवा से बात करने की ख्वाहिश रखने लगा है। हाइवे पर भी सौ किलोमीटर प्रतिघंटे से भी ज्यादा रफ्तार से गाड़ियां दौड़ाई जाती हैं। जबकि सामान्यतः देखा गया है कि औसतन चार सौ किलोमीटर के गंतव्य तक पहुंचने में सावधानी और बिना सावधानी से गाड़ी चलाने के बीच आधे घंटे से ज्यादा का फासला नहीं होता। अकसर सुनने में आता है कि गंतव्य तक आधा घंटा पहले पहुंचने की सनक कभी-कभी पहुंचने ही नहीं देती। लापरवाह ड्राइविंग के कितने शिकार हो जाते हैं। कभी इस पर विचार किया है? आप, आपके साथ बैठे अन्य, आपको खो देने वाले आपके प्रियजन और ठीक इसी तरह जिस वाहन से आप भिड़ते हो उसमें बैठे और उनके प्रियजन! ऐसी लापरवाही कितनी जिन्दगियों को प्रभावित कर देगी। हमारे देश में गाड़ियों के स्पीडोमीटर तो विदेशों की तरह 140 से 160 तक के लगने लगे हैं लेकिन सड़कों का रख-रखाव आज भी 60 से 80 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति सीमा के योग्य भी नहीं है। चलते ही न केवल लोगबाग बल्कि चौपाए सड़कों पर आ जाते हैं। विदेशों में ऐसी व्यवस्था होती है कि चलती सड़क पर हर कहीं कोई भी नहीं आ सकता। ‘जीवन अनमोल है’, ‘दुर्घटना से देर भली’ या ‘मद्यपान करके गाड़ी न चलाएं’ जैसी सूक्तियां केवल पढ़ने-पढ़ाने के लिए नहीं लगती हैं उन पर अमल भी करना होता है।
दूसरों के सुख-चैन की कीमत पर...
13 मई 2008 को जयपुर में हुए बम विस्फोट टीवी अखबारों में कितने दिनों तक सुर्खियां बने रहे है, थोड़ा याद करें। उसके बाद भी विस्फोटों की पहली, दूसरी, तीसरी बरसी पर टीवी-अखबारों में कोई-कोई आइटम लगाया या दिखाया जाता रहा है। तेरह दिन बाद उक्त हादसे की पांचवी बरसी है। तब की घायल सुशीला पांच साल लगभग कोमा में बिताने के बाद बीते कल जिंदगी हार गई। इन पांच सालों में उस पर और उसके परिजनों पर क्या-क्या नहीं बीता होगा, थोड़ी कल्पना यह भी करके देखो, करोगे तो सिहर उठोगे! सुशीला तो चली गई, उसके चले जाने की खबर बहुत-छोटी-सी लगी। वह भी सब अखबारों में नहीं। हमारी जीवन चर्या क्या हो गई है कि हर कोई अपने छोटे-छोटे सुखों के सारे सरंजाम दूसरे के सुख की कीमत पर जुटाने में लगा है! इस तरह किसी का भी सुख-चैन रह पाएगा क्या....?
1 मई, 2013
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