Thursday, May 23, 2013

चुनावी साल के अन्देशे


संप्रग-दो की सरकार ने अपने नौ साल पूरे कर लिए हैं। यह उसका अन्तिम वर्ष है। अगले वर्ष इन्हीं दिनों आम चुनाव होने हैं। प्रधानमंत्री ने जहॉं नौ साल पहले खाली गिलास मिलने की बात की तो प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने मनमोहनसिंह को लगभग खारिज नेता घोषित किया और कहा है कि पीएम का पद मजाक बन कर रह गया है। संप्रग-एक के आखिरी साल में भी राजग के तब केपीएम इन वेटिंगलालकृष्ण आडवाणी ने मनमोहनसिंह को इतिहास का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताया तो भाजपा ने आडवाणी को लौहपुरुष के रूप में प्रचारित किया था। लेकिन पिछले आम चुनावों ने इन विशेषणों को उलट कर संप्रग को पहले से ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता सौंप दी। नतीजा यह हुआ कि आडवाणी को अपने बयानों को लेकर मनमोहनसिंह से माफी मांगनी पड़ी।
अब जब कल कांग्रेस नौ वर्ष पूरे करने का जश् मना रही थी तब आडवाणी तो बड़े-बुजुर्ग की तरह कहें या पिछले झटके के चलते कहें, चुप रहे। लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेताओं और अन्य प्रवक्ताओं ने जरूर काउन्टर बयान दिए जिनका लबोलुआब 2008-09 वाला ही था। कई चुनाव विश्लेषणों के बाद भी चुनावी राजनीति के जानकार आगामी आम चुनावों का पूर्वानुमान देकर अपनी साख दावं पर लगाने में संकोच कर रहे हैं। क्योंकि एक साल का समय पासा पलटने को लेकर पर्याप्त होता है।
भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह अपने इस दूसरे कार्यकाल में पिछले कार्यकाल से काफी बदले-बदले नजर रहे हैं, या यूं कहें कि अलग तरह का आत्मविश्वास ओढ़े लगभग उलट ही दिखायी दे रहे हैं। दिखाने भर को भाजपा राजनाथ के इस नये रूप के साथ खड़ी जरूरी दीख रही है लेकिन ऐसा है नहीं। राजग ने तो राजनाथ के इन नये तेवरों को अभी स्वीकार ही नहीं किया है। लगता है राजनाथसिंह अगले चुनाव को साम्प्रदायिक कार्ड से खेलना चाहते हैं, इसी मंशा के पगलियों में बड़ा कदम 2002 के गुजरात दंगों के दागी नरेन्द्र मोदी को खुद को दुल्हा होने की छूट देना भी है।
भारत की चुनावी राजनीति में यह माना जाता रहा है कि जो पार्टी उत्तरप्रदेश को जीत लेती है वही केन्द्र में काबिज होती है, हालांकि इस भ्रम को संप्रग एक दो ने लगभग तोड़ा ही है। लगभग इसलिए कहा कि उप्र में हाल-फिलहाल की दोनों बड़ी पार्टियों, सपा और बसपा के बिना परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन के केन्द्र पर काबिज रहना उसके लिए टेढ़ी खीर रहा है।
उत्तरप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस लम्बे समय से तीसरे नम्बर की पार्टी होने को जोर-आजमाइश करती रही हैं। कांग्रेस वहां पिछले चौबीस सालों से लगभग सत्ता से बाहर है। लगातार तड़फा तोड़ी करती कांग्रेस राहुल गांधी की जी तोड़ कोशिशों के बावजूद उप्र में कुछ खास नहीं कर पा रही है। भाजपा जरूर बीच में सत्ता में रही वह भी राम मन्दिर जैसा साम्प्रदायिक कार्ड खेलकर, लेकिन वह अपना स्थाई आधार अभी तक वहां नहीं बना पायी। बाबरी मस्जिद विध्वंस केहीरोकल्याणसिंह अपनी विश्वसनीयता लगभग खो चुके हैं। ऐसे मेंमरता क्या नहीं करताकी तर्ज पर भाजपा एक बार फिर साम्प्रदायिक कार्ड खेलने की तैयारी लगभग कर चुकी है। मोदी के स्वघोषित पीएम इन वेटिंग के बाद गुजरात दंगों सहित कई एनकाउंटरों के आरोपी और हाल ही में पार्टी महासचिव बने अमित शाह को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाना और वहां पार्टी की कमान वरुण गांधी को सौंपने की मंशा जाहिर करना साम्प्रदायिक रणनीति का ही हिस्सा है। वरुण गांधी नेहरू-गांधी परिवार से हैं जरूर लेकिन उनका मिजाज मूर्खतापूर्ण साम्प्रदायिकता का है। वरुण द्वारा उत्तरप्रदेश के पिछले चुनावों की आम सभाओं में उगले साम्प्रदायिक जहर के चलते वे अदालती चक्करों में बुरी तरह फंस गये थे। यदि गवाहों को मुकराने के पापड़ वे ना बेलते तो जेल में चक्की पीस रहे होते। भाजपा और संघ के चतुर साम्प्रदायिक रणनीतिकों को लगा होगा कि क्यों ना इस बार मूर्ख साम्प्रदायिक वरुण को आजमा कर देखें। बहुत प्रकार की आशंकाओं के चलते उत्तरप्रदेश की और इससे संभावित दुष्प्रेरित क्षेत्रों की जनता को अतिरिक्त सावचेती बरतने की जरूरत है, हो सकता है यह राजनीति अपना उल्लू सीधा करने को कहीं साम्प्रदायिक दंगे ना करवा दे!

23 मई, 2013

No comments: