Thursday, January 9, 2020

आज बात अपनी पत्रकार बिरादरी से

बात आज अपनी पत्रकार बिरादरी के साथ है। आगे बढऩे से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि यह ना लोक कल्याणकारी नीतियों से पीछे हटती सरकार की पैरवी है और ना ही लालच में कर्तव्यच्युत होते सरकारी डॉक्टरों/कारकुनों की। स्वास्थ्य सेवा की बात करें तो लगभगत तीस आलेख मेरे ब्लॉग पर पड़े हैं, जिनमें पीबीएम अस्पताल और उसके बहाने स्वास्थ्य सेवाओं की ना केवल कमियों को उजागर किया गया है, बल्कि उन कमियों के मानवीय, प्रशासनिक और सरकार से संबंधित मूल कारणों और सुझाये समाधानों का विस्तार से उल्लेख है।
अभी इसकी जरूरत इसलिए पड़ी कि एक सप्ताह पूर्व कोटा में बच्चों के अस्पताल जेकेलोन के हवाले से एक खबर ब्रेक की गई, जिसमें बताया गया कि एक माह में वहां इलाज के लिए आए बच्चों में से 107 शिशुओं की मौत हो गई। ब्रेक करने वाले 'ले भागू' रिपोर्टर ने इसे ब्रेक करने से पूर्व ना मासिक आंकड़े देखे ना ही शिशु मृत्युदर के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय आंकड़ों को देखने-समझने की जहमत उठाई। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि लोक-कल्याणकारी राज्य की कसौटी यही है कि वह स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे आमजन से जुड़े अपने कर्तव्यों के लक्ष्य को शत-प्रतिशत हासिल करने की ओर प्रयत्नशील रहे, ऐसा मैं मानता हूं। हॉस्पिटल में बच्चों के लिए बने टर्सरी सेन्टर में आने वाले शिशुओं की मृत्युदर को भारत में आजादी बाद से अभी तक कम करके 5 से 10 प्रतिशत के बीच ही लाया जा सका है। 5 से 10 प्रतिशत के इस आंकड़े को उल्लेखनीय मानने के बावजूद शाबासी लायक नहीं माना जा सकता। जिसने भी जन्म लिया है, स्वास्थ्य के आधार पर उसे जिन्दा रखने की गारन्टी शासन की है, अगर वह इसे हासिल करने में सफल है तो भी शाबासी किस बात की!
पत्रकारिता या कहें मीडिया जब से बाजार के हवाले हुआ है, तब से यह लगातार ना केवल कर्तव्यच्युत होता गया बल्कि आर्थिक और अन्य लालचों में धनाढ्यों और सरकार का मुखापेक्षी भी हो गया है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अखबारों के आर्थिक हालात ठीक रहें यह जिम्मेदारी भी लोक कल्याणकारी शासन की मानी जाती रही है, इसीलिए मीडिया को विज्ञापन देकर सरकारें उन पर कोई अहसान नहीं करती। लेकिन वर्तमान दौर की सरकारें इसे भी अहसान मानने लगी हैं। बल्कि प्रतिकूल दीखते अखबार पर सरकारें ना केवल अनुचित दबाव बनाती है वरन् अनुकूल को कृतार्थ भी किया जाने लगा है। समाचार पत्र मालिकों के बढ़ते लालच के अलावा सरकारों के ऐसे रवैये ने भी अखबारों को जन भावनाओं और जन-जरूरतों से दूर किया है। अभी हाल ही में अशोक गहलोत जैसे सजग-संवेदनशील और चतुर राजनेता ने भी यह चूक की है। उन्होंने पत्रकारों के कार्यक्रम में धमकी देने का दुस्साहस तक कर लिया, उन्होंने यहां तक कह दिया कि सरकारी विज्ञापन लेने वालों की जिम्मेदारी है कि वे सरकार की खबरें भी छापें। 
अलावा इसके क्षेत्रवार संस्करण और बढ़ते न्यूज चैनलों ने पत्रकारों की जरूरत को बढ़ा दिया जिसके चलते पात्रताविहीन लोगों की इस पेशे में भरमार हो गई। ऐसे मीडियाकर्मियों ने सरकार, ब्यूरोक्रेट, अखबार मालिक और सम्पादकों को खुश रखने तक ही अपनी जिम्मेदारी को सीमित कर लिया। ऊपर से 'ब्रेकिंग' का दबाव इतना है कि वे बिना आगा-पीछा देखे-समझे खबरों को पेलने लगे हैं। आजकल के पत्रकार अपने मालिकों-संपादकों और नेताओं व ब्यूरोक्रेट के अलावा सरकारी कारकुनों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, धनाढ्य से मिलने वाली तवज्जुह को ही अपनी उपलब्धि मानने लगे हैं।
अपरोक्ष तौर पर इस तरह की उक्त सभी 'इल प्रैक्टिसेज' ने इस पत्रकारीय पेशे को 'अपवित्र' कर दिया है। पवित्र-अपवित्र के यहां मानी विश्वसनीयता और अविश्वसनीयता से है, उसे इसी अर्थ में लें। बल्कि ऐसी 'इल प्रैक्टिसेज' से दूरी बनाये रखने का विचार भी नई पीढ़ी में देखने को नहीं मिलता। इस नजरंदाजी के बुरे परिणाम आने शुरू हो गये हैं। जनता जहां अपनी आवाज का माध्यम खो रही है वहीं पत्रकार भी अपनी प्रतिष्ठा लगातार खो रहे हैं। छोटे-बड़े विभिन्न तरीकों से पत्रकारों को जो भी कृतार्थ करते हैं, उनके भी मन में पत्रकारीय पेशे के प्रति सम्मान अब दिखावटी मात्र रह गया है। जो ऐसा नहीं मानते हैं, वे कृतार्थ करने वाले अपने किसी आत्मीय को भरोसा देकर पूछ लें वह अपने पेशेवरों में पत्रकारों के लिए किस तरह की बात करते या राय रखते हैं।
लोकतंत्र के चौथे पाये की हैसियत पा गया मीडिया जनता के प्रति उत्तरदायी होने के अपने असल कर्तव्य से दूर होता है तो उसकी ना हैसियत बचेगी और ना ही असल सम्मान। बडेरे कह भी गये हैं कि अपना 'माजना' अपने पास ही होता है, उसे सहेज कर रखें या पाडऩे दें। इसका खयाल पत्रकारों को खुद रखना है।
—दीपचन्द सांखला
09 जनवरी, 2020

Thursday, January 2, 2020

2019 का विदागीत और 2020 का स्वागत-गान

वर्ष 2019 की विदाई के साथ 2020 ने दस्तक दे दी है। वैसे तो हर वर्ष―हर सदी विशिष्ट होती है, इस ब्रह्माण्ड में मनुष्य की उपस्थिति हर सदी को विशिष्ट बनाती है, अन्यथा अपने नैसर्गिक परिवर्तनों के बावजूद यह दुनिया कितनी खूबसूरत होती कल्पनातीत ही है। मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृत्ति बहुत कुछ अच्छा करती है तो काफी कुछ बिगाड़ा भी।

इस हाइ-गोली व्याख्या से बाहर आएं तो 2018 के जाते-जाते राजस्थान में सरकार अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की बन चुकी थी और मई, 2019 में पांच वर्षों से केन्द्र में शासन कर रही मोदी-शाह की सरकार को जनता ने पलटते हुए शासन शाह-मोदी को दे दिया। देश का शासन गृहमंत्री अमित शाह ही चला रहे हैं, मोदी तो मात्र मुखौटा हैं, संघ और जनसंघीय पहचान से स्थापित और अब भारतीय जनता पार्टी के तौर पर पहचाने जाने वाले दल की जैसी फितरत रही है, इस बार की सरकार अमित शाह वैसी ही चला रहे हैं। शासन पर काबिज होना एक बात है और अवाम का दिल जीतना दूसरी बात। लोकतंत्र में जनता को भरमा कर जीतने वाला प्रकारांतर से लोकतंत्र पर चोट ही कर रहा होता है। 

पहले राजस्थान के संदर्भ में बात करें तो वहां उस सवा सौ वर्ष पुराने दल कांग्रेस का शासन है जिस पर एक परिवार की बपौती होने का आरोप भी लगाता है और हमारी समाज व्यवस्था के हिसाब से इसे विरासती प्रोफेशन भी कहा जा सकता है। लेकिन राजस्थान में वसुंधरा राजे अपने पिछले कार्यकाल के समय में नरेन्द्र मोदी के मुखौटे में अमित शाह की 'एकल हट्टी बाणिया' के बरअकस दम ठोंक के खड़ी दिखीं, वैसे ही अशोक गहलोत अपने इस कार्यकाल में तथाकथित कांग्रेस हाइकमान और पार्टी अध्यक्ष रहे विरासती राहुल गांधी की इच्छा को धता बताते हुए ना केवल मुख्यमंत्री बने बल्कि निर्बाध पूरा एक वर्ष सूबे में शासन भी कर लिया है।

हालांकि अशोक गहलोत अपनी चिर-परिचित छाप इस कार्यकाल में छोड़ते लगते नहीं हैं। हो सकता है सोनिया के हाइकमान बनने के बावजूद गहलोत राहुल-नाखुशी के अदृश्य दबाव में हैं। गहलोत को अभी एक वर्ष ही हुआ, हो सकता है अपनी चतुराई से वे तथाकथित हाइकमान से लेकर लोकतंत्र के असल हाइकमान जनता को भी साध लें। यदि वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो अपनी छाप को राज के अपने इस अंतिम कार्यकाल में धूमिल ही करेंगे।

बात अब केन्द्र की शाह-मोदी सरकार की भी कर लेते हैं। मोदी मुखौटे की अमित शाह सरकार अपने 'विजन डाक्यूमेंट' की आड़ में उद्देशिका में स्पष्ट संविधान की मूल भावना के खिलाफ जो फैसले ले रही है, वह देश की असल बुनावट के खिलाफ हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने पहले भी राज किया है, तब भी उसका चुनावी घोषणापत्र संघ नीतियों के अनुसार ही था, लेकिन उन्होंने संविधान की मर्यादा का मर्दन नहीं होने दिया था। देश का संविधान बना तब सभी विचारधारा के विद्वज्जनों का उसमें योगदान थालम्बी-लम्बी बहसें और विमर्शों के बाद बने संविधान को हम सबने अपनायाजिसमें भारत के भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक जैसे सभी परिप्रेक्ष्यों का खयाल रखा गया था। भ्रष्टाचार जैसी मानवीय बुराई को दरकिनार कर दें तो विभिन्न विविधताओं वाला हमारा देश ठीक-ठाक ही चल रहा है। कमियां उस परिवार में भी मिलती हैं जिसमें कठोर अनुशासन वाला मुखिया होता है, हमारा देश लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला वैसा देश है, जिसमें कितने-कितने प्रकार के लोग भाषा, रहन-सहन के अपने तौर-तरीकों, विविध परम्पराओं के साथ ना केवल अपने अलग-अलग धार्मिक विश्वासों बल्कि एक ही धर्म में आस्था के हजारों तौर-तरीकों से अपना निर्वहन करते हैं। ऐसे देश में संघ और उसकी मंशा के अनुसार घोर अव्यावहारिक अमित शाह जैसे शासक ने संविधान की मूल भावनाओं को नजरंदाज कर दबंगई से राज चलाने की ठान रखी है, जो सर्वथा अनुचित है। शाह को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें कुल वोटरों में मात्र 24 से 25 प्रतिशत ने ही चुना है। और उस संवैधानिक व्यवस्था के तहत चुना है जिसे वे साम्प्रदायिक बदनीयती से अनुच्छेद 370 को बेअसर करके, जम्मू-कश्मीर के टुकड़े करके, वहां 35 ए हटाकर, देशभर NRC, CAA जैसी व्यवस्था लागू करने की मंशा रखकर, जनगणना प्रक्रिया NPR में परम्परागत भारतीय मानस के खिलाफ प्रावधान करके जो असंवैधानिक कृत्य कर रहे हैं, उसकी कीमत देश को लम्बे समय तक चुकानी होगी। 

अन्त में यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को सहिष्णु और उदार होने का जो तकमा हासिल था उसे साम्प्रदायिक कर के संघ ने अमानवीय कृत्य ही किया है। इसे ना केवल अन्य धर्मावलम्बियों को बल्कि हिन्दू समाज व्यवस्था को भी लम्बे समय तक भुगतना होगा। ऐसे सभी दल, संस्थान और लोग जिनका संविधान की मूल भावना में भरोसा कायम है, वे ऐसे समय इसीलिए चुप हैं कि जो कभी कोई भ्रष्ट और अनैतिक कृत्यों में लिप्त रहे हों, जिनके चलते उन्हें ब्लेकमेल किया जा सकता है या ऐसे भी चुप हैं, जिन्हें भविष्य में प्रतिकूलताओं का सामना करने की आशंका हो। ऐसे लोग भूल रहे हैं कि अनुकूलताएं यदि देश की खत्म हो जानी हैं तो उनकी व्यक्तिगत अनुकूलताएं कैसे बचेंगी, सामूहिक अनुकूलताएं हमें संविधान से ही हासिल हैं।
—दीपचन्द सांखला
02 जनवरी, 2020

Thursday, December 19, 2019

NRC और CAB/CAA पर इस तरह भी विचारें

भारतीय राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (NRC) और संशोधित नागरिकता कानून (CAB/CAA) को लेकर इसे संविधान विरोधी कहते हुए जहां विद्यार्थी आन्दोलित हैं, वहीं भारतीय मुस्लिम नागरिकता की दोयम हैसियत की आशंका में आक्रोश जता रहे हैं। वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अन्तर्गत दूसरे देशों से आये लोगों को प्रतिवर्ष दी जाने वाली नागरिकता के आंकड़े आश्वस्त करते है कि संशोधित नागरिकता कानून की जरूरत थी ही नहीं, ये कवायद राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ही की गई है। केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश, और अफगानिस्तान से मुस्लिमों के अलावा आने वाले व्यक्तियों को नागरिकता देने पर विचार बजाय 11 के अब 5 वर्ष में ही किया जा सकता है। 5 वर्ष वाले बदलाव पर क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन धर्मविशेष के व्यक्तियों को इस प्रावधान से बाहर करना, उसी धर्म के स्थानीय नागरिकों में हीनता और असुरक्षा का भाव जगाना भर है, ताकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के वर्तमान माहौल का लाभ उठाया जा सके। तथ्य यह भी है कि उल्लेखित तीनों ही देशों के नागरिकता के लिए आने वाले व्यक्तियों में मुसलमानों की संख्या न्यून होती है। पिछली सदी के सातवें दशक के अन्त और आठवें-नौवें दशक की राजनीतिक अस्थिरता के चलते पूर्वी-पाकिस्तान/बांग्लादेश से आने वाले लोगों में मुस्लिम जरूर ज्यादा थेलेकिन उनमें हिन्दू भी कम नहीं थे। स्थितियां सामान्य होते ही अधिकांश बांग्लादेशी मुस्लिम अपने देश लौट गये थे। वे कुछ मुस्लिम जिन्होंने अपनी नियति मजदूरी ही मान ली थी, उन्हें लौटना जरूरी इसलिए नहीं लगा होगा कि यहां करो चाहे वहां, करनी तो उन्हें मजदूरी ही है, ज्यादातर ऐसे ही बांग्लादेशी यहां रुक गये। वर्तमान में भारत से ज्यादा सुदृढ़ होती अर्थव्यवस्था और भोजन के अधिकार के बाद बांग्लादेश के हिन्दू नागरिक भी यहां क्यों आना चाहेंगे? रही बात पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले लोगों की तो आंकड़े देख लें, बीते वर्षों में इन देशों से नागरिकता हासिल करने वालों में मुस्लिम समुदाय का अनुपात बहुत कम मिलेगा। अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता के चलते मुसलमानों का पलायन जरूर हुआ लेकिन उन्हें यहां नागरिकता आसानी से नहीं दी गई। वैसे भी किसी विपत्ति में आए लोगों को जब शरणार्थी कहने में भी संकोच होता है तो उन्हें घुसपैठिया कैसे कह सकते हैं? उनका धर्म देखना तो अमानवीय है।
संविधान के अनुच्छेद 14 की भावना के विपरीत इस कानून का विरोध करने वालों में जिन्हें मुसलमान ज्यादा दीखते है उन्हें राजस्थान के गुर्जर और हरियाणा के जाटों के आरक्षण आन्दोलनों में भी ऐसा ही लगा हो, कह नहीं सकते। हमें यह समझना होगा कि प्रभावित होने वाला कोई समूह विशेष तौर से उद्वेलित तो होगा ही। बल्कि सीएबी/सीएए कानून विरोधी आन्दोलन और गुर्जर-जाटों के आरक्षण वाले आन्दोलनों में बड़ा अन्तर यह है कि गुर्जर-जाटों के आन्दोलन में गैर गुर्जर और गैर जाट शामिल नहीं थे जबकि एनआरसी व सीएबी/सीएए विरोधी आन्दोलन में प्रभावित मुसलमानों के अलावा जागरूक नागरिक और विद्यार्थियों को बड़ी संख्या में शामिल देखा जा सकता है। संविधान विरोधी इस कानून के खिलाफ आन्दोलन को केवल इसीलिए मुसलमानों का आन्दोलन नहीं कह सकते।
नागरिकता संशोधन कानून पर हमें दूसरे तरीके से भी विचार करना चाहिए। आज के युग में दुनिया ग्लोबल विलेज में परिवर्तित हो रही है और अनुकूल रोजगार की तलाश में लोगों का दुनिया के सभी देशों में ना केवल आना-जाना होता है बल्कि ऐसे लोग अमेरिका-कनाडा या यूरोपीय देशों की नागरिकता लेने की फिराक में भी रहते हैं। ऐसे में एक धर्मविशेष के लोगों को राजनीतिक लाभ मात्र की नीयत से या कहें अकारण किसी कानून से बाहर रखना कितना नैतिक और उचित है?
इस संदर्भ में कुछ और बातें भी स्पष्ट करना जरूरी हैकिसी फेसबुक मित्र की पोस्ट मैंने साझा की जिसमें एनआरसी/सीएए कानून के आलोक में बताया गया था कि केवल 8 मुस्लिम देशों में लगभग 80 लाख भारतीय नागरिक रोजगार में लगे हैं, जिनसे भारत को प्रतिवर्ष विदेशी मुद्रा में 2.5 लाख करोड़ की सालाना आय होती है। इस पोस्ट पर मित्र आशाराम शर्मा ने फेसबुक पर ऐसे आंकड़े वाली पोस्ट का मकसद जानना चाहा। पहला मकसद जैसा कि ऊपर जिक्र कियायही है कि ग्लोबल गांव में परिवर्तित हो रही दुनिया में ना केवल आवागमन बल्कि दूसरे देशों में बिना ऐसे भेदभाव के स्थाई-अस्थाई वास लगातार बढ़ रहे हैंऐसे में राजनीतिक लाभ के लालच में इस तरह के कानून मनुष्यत्व को नीचा दिखाने की चेष्टा है। एक अनुमान के अनुसार करीब पौने दो करोड़ भारतीय दुनियां के अन्य देशों में रह रहे हैं, इसमें वे 'घुसपैठिये' शामिल नहीं हैं जो यूरोप और अमेरिका में अवैध तौर पर रह रहे हैं और जिन्हें न केवल जब-तब निकाला जाता है बल्कि कभी भी निकाला जा सकता है। नागरिकता के लिए धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाली मानसिकता रखने वाले ये जान लें कि दूसरे देशों में रहने वालों में किसी एक देश के सबसे ज्यादा नागरिक हैं तो वह भारतीय ही हैं। और यह भी कि नागरिकता संशोधन कानून के उद्वेलन के बाद बांग्लादेश ने अपने नागरिक वापस लेने की मंशा से जो सूची चाही है, उसमें उन्होंने धर्म और जातिविशेष की कोई शर्त नहीं लगाई। उदारता से विचारना मानवीयता से विचारना है। कानून और व्यवस्था अमानवीय तौर तरीकों से साधी नहीं जा सकती। विदेशी आकर कोई गड़बड़ करते हैं तो उसके लिये पर्याप्त कानून हैं। जरूरत उन्हें मुस्तैदी से लागू करने की है, ना कि जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव करने की।
—दीपचन्द सांखला
19 दिसम्बर, 2019

Thursday, December 12, 2019

नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) का विरोध इसलिए

हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के लोग रह सकते हैं; उससे यह राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नये लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे प्रजा को तोड़ नहीं सकते; वे यहां की प्रजा में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जायेगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों के समावेश का गुण होना चाहिए। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है।
यूं तो जितने आदमी उतने धर्म, ऐसा मान सकते हैं। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग  एक-दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने लायक नहीं हैं।               महात्मा गांधी-हिन्द स्वराज

केन्द्र में काबिज मोदी-शाह की सरकार दूसरी बार चुन कर आयी तब से वह मान बैठी है कि जनता ने उन्हें कुछ भी करने की छूट दे दी, संविधान विरोधी निर्णय भी। ऐसा मानते हुए नरेन्द्र मोदी और अमित शाह भूल कर रहे हैं कि वे उसी संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के तहत शासन में आये हैं, जिसकी धज्जियां उड़ाते हुए उन्होंने ना केवल जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को खुर्द-बुर्द किया बल्कि धारा 35-ए के प्रावधानों को खत्म कर दिया, जबकि ऐसे ही प्रावधान हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम और उत्तर-पश्चिम के सातों राज्यों सहित पहाड़ी राज्यों में तो लागू हैं। अलावा इसके विभिन्न शेष राज्यों के कुछ क्षेत्रों में 35-ए जैसे प्रावधान आज भी लागू हैं। जम्मू कश्मीर के साथ इस सौतेले व्यवहार को धर्म आधारित भेदभाव इसलिए ही कहा जा रहा है।
इसी तरह दूसरे देशों से आए लोगों को भारत की नागरिकता देने के पर्याप्त कानून-कायदे होने के बावजूद नागरिकता संशोधन विधेयक CAB लाना सरकार की धर्म आधारित भेदभाव की मंशा को जाहिर करता है। नागरिकता देने के वर्तमान प्रावधानों में समय जरूर लगता है, जो सावचेती के लिए जरूरी भी है। लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक में जिस तरह मुसलमानों को अलग रखकर केवल अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले लोगों के लिए ही प्रावधान करना सरकार की नीयत पर सन्देह उत्पन्न करता है। लोकसभा में इस संशोधन पर अपना पक्ष रखते समय चालाकी बरतते हुए अमित शाह का यह कहना कि मुसलमानों का तो मैंने नाम ही नहीं लिया, उनकी धूर्तता ही जाहिर करता है।
गांधीजी को ऊपर उद्धृत करते हुए मैंने बात शुरू की है। भारत की तासीर वही है और गांधी की उसी बात के आधार पर संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक समता/समानता के अधिकारों का प्रावधान किया है। इसमें अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत विधि के समक्ष समानता की प्रस्तावना की गई है। अनुच्छेद-15 में उसे स्पष्ट करते हुए लिखा गया कि धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा। इसे इस आधार वाक्य के साथ और स्पष्ट किया गया है कि—'सभी व्यक्तियों से समान बर्ताव किया जाना चाहिए'
यद्यपि उक्त उल्लेखित अनुच्छेद भारतीय नागरिकों के लिए हैइसलिए कहा जा सकता है कि जो नागरिक नहीं हैं उनके साथ भेदभाव कैसा? तर्कसंगत ढंग से विचारने पर यह बात सही लग सकती है। लेकिन नैतिक तौर पर नहीं, क्योंकि अन्तत: जिन्हें भी नागरिकता दी जानी है उन्हें धर्म के आधार पर भेदभाव के साथ दी जायेगी और एक धर्म के लोगों को वंचित करना उसी धर्म के भारत के अल्पसंख्यक नागरिकों के बराबरी के अहसास को कमतर करना है।
इन्हीं सन्दर्भों के साथ इतिहास की ओर चलें तो हाल ही की शताब्दियों में बने नियम कायदों से पहले भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न देशों के ही नहीं, दूर के देशोंयूरोप चीन के नागरिकों का आवागमन हमारे यहां ना केवल निर्बाध होता रहा है, बल्कि इन देशों के नागरिकों की कई पीढिय़ों का यहां बस जाना मनुष्य की इस प्रकृति की पुष्टि भी करता है कि वह अपनी जरूरतों के अनुसार स्थान बदलता रहा है। अपने ही देश में एक राज्य के नागरिकों का अन्य राज्य में जा बसना भी इसी प्रकृति का प्रमाण है।
उक्त उल्लेख के मानी यह कतई नहीं है कि वर्तमान की अन्तरराष्ट्रीय पेचीदगियों में पूर्व की तरह नागरिकता बदलने की निर्बाध छूट दे दी जाय। जैसा ऊपर बताया गया है कि नागरिकता देने के पर्याप्त कानून-कायदे अपने देश में जो भी हैं, उनसे किसी को एतराज नहीं है।
दरअस्ल जिस ऐजेंडे पर सरकार काम कर रही है वह धर्म के नाम पर विशुद्ध राजनीतिक कृत्य है और धर्म की आड़ में राजनीतिक ऐजेंडों को साधना संविधान सम्मत नहीं है।
मुसलिम समुदाय को लेकर जिस कांग्रेस पर वोट बैंक की राजनीति करने के आरोप लगाए जाते है, कुछ वैसी ही मंशा अपनी पार्टी के लिए ऐसे गैर संवैधानिक कानूनों से साधने की मोदी-शाह की भी है। इसे हम उत्तर-पश्चिमी राज्यों यथा असम, त्रिपुरा आदि में नागरिकता संशोधन विधेयक CAB के पुरजोर विरोध में समझ सकते हैं। इन राज्यों के नागरिकों ने जब भारतीय राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर NRC का स्वागत किया तब उन्हें CAB की आशंका कतई नहीं थी। हालांकि मोदी-शाह जिस ऐजेंडे पर काम कर रहे हैंउनके यहां यह पहले से ही तय था। उत्तर-पश्चिमी राज्यों के विरोध की वजह शेष भारत में हो रहे विरोध से भिन्न इसीलिए है कि उन्हें CAB से अपनी पहचान पर संकट लग रहा है। जैसे ही गैर मुस्लिम घुसपैठियों को नागरिकता दी जायेगी, वहां के मूल निवासियों पर ना केवल अल्पसंख्यक होने का खतरा मंडराने लगेगा बल्कि प्रकारांतर से वहां की संस्कृति भी खतरे में पड़ जायेगी। राजनैतिक वर्चस्व खत्म होगा वह अलग, क्योंकि अच्छी तादाद में होने के बावजूद नागरिक ना होने के चलते जो तथाकथित घुसपैठिये फिलहाल मुखर नहीं हैं, वे CAB से मिली नागरिकता के बाद हावी और मुखर होने लगेंगे। वहीं मोदी-शाह की मंशा यह है कि इन उत्तर-पूर्वी राज्यों में अब तक भाजपा को जो समर्थन नहीं मिला वहां गैर-मुस्लिम घुसपैठियों से नागरिक बने लोग उसके वोट बैंक हो लेंगे। भाजपा ने फिलहाल जिस तरह जोड़-तोड़ से वहां सरकारें बना रखी हैं, उसकी जरूरत फिर नहीं रहेगी।
सदियों से भारत की तासीर जिस तरह उदारता की रही है, भारत की असल प्रतिष्ठा वही है और ताकत भी। मोदी-शाह और उनके विचारक पितृी-संगठन धर्म की आड़ में जिन राजनीतिक मंसूबों को साधना चाहते हैं, NRC और CAB उसी के जतन हैं। ये ना संवैधानिक हैं और ना ही नैतिक, इसलिए इस तरह के प्रयासों को मानवीय भी नहीं कह सकते।
NRC के विरोध की वजह भी वाजिब है। भारतीय नागरिक के तौर पर पंजीकृत होने के लिए जिस तरह के दस्तावेजों की मांग की जा रही है, उन्हें जुटाना अधिकांश भारतीयों के लिए संभव नहीं होगा। अभी इसे जहां असम में लागू किया है वहां बांगलादेशियों के अलावा बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और उत्तरप्रदेश के ऐसे लाखों नागरिक हैं जो रोजगार की तलाश में कई पीढिय़ों से वहां जा बसे हैं। अब उनसे अपने मूल गांव के प्रामाणिक दस्तावेज चाहे जा रहे हैं। इसी के चलते इस काम में भ्रष्टाचार के बड़े आरोप तो लगे ही हैं, अलावा इसे अंजाम तक पहुंचाने में वहां के सरकारी कर्मचारियों के जुटने से सरकार के रोजमर्रा काम का भी भारी नुकसान हुआ है। जबकि इस सबकी जरूरत नहीं थी। संघानुगामियों के फैलाये उस झूठ की पोल जरूर खुल गई जिसमें उनका वर्षों से किया जा रहा दुष्प्रचार कि उतर-पश्चिमी राज्यों में 3 करोड़ बांगलादेशी मुसलमानों की घुसपैठ हो चुकी है, जबकि उन सातों राज्यों की आबादी आज भी सवा चार करोड़ ही है। जबकि NRC की कवायद में मात्र 19 लाख घुसपैठिएं निकले हैं जिनमें से मात्र सात लाख मुसलमान तथा शेष सब गैर-मुसलिम यानी अधिकांश हिन्दू धर्मावलम्बी बताये जा रहे हैं। मोदी-शाह की सरकार ने घोषणा कर रखी है कि NRC पूरे देश में लागू की जायेगी जबकि इस बेहद खर्चीली और पेचीदी कवायद की कोई जरूरत नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
12 दिसम्बर, 2019

Thursday, December 5, 2019

राज्यों में भाजपा से मोहभंग के बावजूद संघ और मोदी का भ्रमजाल कायम

पत्रकार नेताओं की भाषा बोलते हैं
नेता गुंडों की,
धर्म-गुरु धनाढ्यों की भाषा बोलते हैं
और धनाढ्यï......
युवा लेखक दुष्यंत ने अपनी इस फेसबुक पोस्ट का अंत.....के साथ किया, जिसे मैं पूरी किये देता हूं.....सयाने धनाढ्य मौन हैं।
मित्र दुष्यंत की पोस्ट संभवत: उद्योगपति राहुल बजाज के उस वक्तव्य के बाद आयी जिसमें उन्होंने गृहमंत्री अमित शाह, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण और रेलवे मंत्री पीयूष गोयल के सामने देश में माहौल ठीक न होने को कुछ इस तरह जाहिर किया
'यूपीए के टाइम में हम किसी को भी गाली दे सकते थे, मगर आज किसी की हिम्मत नहीं है कि वह सरकार की आलोचना कर सके...मैं जानता हूं कि सारे उद्योगपति चुप लगाये बैठे हैं। कोई नहीं बोलेगा...सब हंस रहे हैं....मतलब कह रहे हैं.....चढ़ जा बेटा सूली पे।'
अवसर था देश के प्रसिद्ध आर्थिक समाचार पत्र 'द इकॉनोमिक टाइम्स' द्वारा आयोजित सम्मिट का। यूट्यूब पर इसका वीडियो उपलब्ध है, चाहे तो देख सकते हैं। देश के बड़े उद्योगपतियों में शुमार 81 वर्षीय राहुल बजाज जैसों की भाव भंगिमा भी उक्त वक्तव्य के दौरान निर्भयता से ओत-प्रोत नहीं रही। लग रहा था कि उन्होंने ऐसा कहना ना केवल जरूरी माना बल्कि अपनी ड्यूटी भी माना और बड़ी हिम्मत जुटाकर कह भी गये। उनके वक्तव्य से लग रहा है कि इस 'दुस्साहस' की जानकारी उन्होंने अपने भरोसे के मित्रों से भी साझा की।
जिन परिस्थितियों का जिक्र राहुल बजाज अपने वक्तव्य में कर रहे हैं उसकी जानकारी क्या सरकार में बैठे लोगों को नहीं? बिल्कुल है, अधिकांश बौद्धिक, जमीर वाले पत्रकार-सम्पादक और अर्थशास्त्रियों सहित हम जैसे हजारों ब्लॉगर, फेसबुकिये, ट्वीटरिस्ट ऐसा लगातार कह ही रहे हैं कि यह सरकार अपने विशेष ऐजेंडे के तहत सत्ता में आई है, देश की अर्थव्यवस्था, देश का माहौल, आमजन की जरूरतें और रोजगार उनकी प्राथमिकता में नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जिस ऐजेंडे को लागू करना उनका मकसद है, उसमें ऐसे मानवीय तत्त्वों की जरूरतों की कोई अहमियत नहीं।
इसलिए इस तरह की परिस्थिति से गृहमंत्री अमित शाह ने यह कहकर तत्काल नकार दिया कि भय होता तो आप बोल नहीं पाते औरऔर भी बहुत लोग ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इतना ही नहीं, राहुल बजाज ने अपनी बात प्रज्ञा ठाकुर के लोकसभा में गोडसे पर दिये जिस वक्तव्य से शुरू की उसमें अमित शाह साफ-साफ झूठ बोल गये कि 'प्रज्ञा के वक्तव्य को भ्रान्तिपूर्ण लिया गया। वह राष्ट्रभक्त ऊधमसिंह को बता रही थी या गोडसे को? बावजूद इस सबके पार्टी ने उन पर एक्शन लिया है।'प्रज्ञा ठाकुर के बयान को शहीद ऊधमसिंह की आड़ देना ढिठाई ही माना जायेगा।
अमित शाह की यह बात सही है कि जो राहुल बजाज ने कहा, ऐसा बहुत लोग और भी कह रहे हैं। शाह को पता है जो और लोग कह रहे हैं, उनको काउन्टर करने के लिए उनके पास व्यवस्थित ट्रोलपार्टी है जो सब संभाल लेगी लेकिन राहुल बजाज ने जो दुस्साहस किया वह उनके गले कम उतर रहा है। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पुरोधा रहे जमनालाल बजाज के सुपौत्र राहुल बजाज वही हैं जो उद्योगपतियों में ना केवल साफगोई के लिए जाने जाते हैं बल्कि जरूरत समझने पर जिन्होंने कांग्रेस की सरकारों के समय भी उनकी खुल कर आलोचना की है। यही वजह है कि राहुल बजाज के उक्त वक्तव्य पर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को भी लोकसभा में ना केवल सफाई देनी पड़ी बल्कि यहां तक कहना पड़ा कि राहुल बजाज का ऐसा कुछ बोलना राष्ट्रहित में नहीं है।
क्यों मुहतरमा राष्ट्रहित में क्यों नहीं है? देश की अर्थव्यवस्था लगातार डूबती जा रही हैरोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। राहुल बजाज इन स्थितियों की एक वजह देश में वातावरण सही नहीं होना भी मानते हैंभय का वातावरण आर्थिक प्रगति के लिए अनुकूल नहीं माना जाता। अर्थशास्त्रियों का भी अनुभूत सत्य यही है।
लोकसभा में मोदी-शाह को पर्याप्त बहुमत के बावजूद बीते एक वर्ष में लोकसभा के बाद हुए विधानसभा चुनावों में राज्यों में सत्तारुढ़ भाजपा का सत्ताच्युत होना पार्टी के लिए तो चिन्ता की बात हो सकती है लेकिन क्या देश को संभालने का मादा नरेन्द्र मोदी में निहित है ऐसा जो मान लिया गयावह भ्रम भी अब क्या छंट रहा है? पिछले वर्ष हुए राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के चुनावों में भाजपा का सत्ताच्युत होना, इस वर्ष हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलना और महाराष्ट्र में सत्ता खोने के बाद भी ऐसा लगता है कि जनता केन्द्र में शाह-मोदी को सत्ताच्युत करने का मन नहीं बना पा रही है। विभिन्न राज्यों में भाजपा के सत्ताच्युत होने, केन्द्र की मोदी-शाह सरकार के सभी मोर्चों पर असफल होने और घोर नाकारा शासन देने के बावजूद केन्द्रीय नेतृत्व के तौर पर नरेन्द्र मोदी से भरोसा कम होता नहीं लग रहा है। इसकी वजह यही लगती है कि हिन्दुत्वी प्रलोभन और शाह-मोदी के दुस्साहसपूर्ण लेकिन संविधान विरोधी निर्णय जनता को प्रभावित कर रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है कि गत नब्बे वर्षों से संघानुगामियों द्वारा व्यवस्थित तौर पर बिछाया जाता रहा भ्रमजाल अभी भी असरकारी है।
—दीपचन्द सांखला
05 दिसम्बर, 2019