Thursday, December 19, 2019

NRC और CAB/CAA पर इस तरह भी विचारें

भारतीय राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (NRC) और संशोधित नागरिकता कानून (CAB/CAA) को लेकर इसे संविधान विरोधी कहते हुए जहां विद्यार्थी आन्दोलित हैं, वहीं भारतीय मुस्लिम नागरिकता की दोयम हैसियत की आशंका में आक्रोश जता रहे हैं। वर्तमान कानूनी प्रावधानों के अन्तर्गत दूसरे देशों से आये लोगों को प्रतिवर्ष दी जाने वाली नागरिकता के आंकड़े आश्वस्त करते है कि संशोधित नागरिकता कानून की जरूरत थी ही नहीं, ये कवायद राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ही की गई है। केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश, और अफगानिस्तान से मुस्लिमों के अलावा आने वाले व्यक्तियों को नागरिकता देने पर विचार बजाय 11 के अब 5 वर्ष में ही किया जा सकता है। 5 वर्ष वाले बदलाव पर क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन धर्मविशेष के व्यक्तियों को इस प्रावधान से बाहर करना, उसी धर्म के स्थानीय नागरिकों में हीनता और असुरक्षा का भाव जगाना भर है, ताकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के वर्तमान माहौल का लाभ उठाया जा सके। तथ्य यह भी है कि उल्लेखित तीनों ही देशों के नागरिकता के लिए आने वाले व्यक्तियों में मुसलमानों की संख्या न्यून होती है। पिछली सदी के सातवें दशक के अन्त और आठवें-नौवें दशक की राजनीतिक अस्थिरता के चलते पूर्वी-पाकिस्तान/बांग्लादेश से आने वाले लोगों में मुस्लिम जरूर ज्यादा थेलेकिन उनमें हिन्दू भी कम नहीं थे। स्थितियां सामान्य होते ही अधिकांश बांग्लादेशी मुस्लिम अपने देश लौट गये थे। वे कुछ मुस्लिम जिन्होंने अपनी नियति मजदूरी ही मान ली थी, उन्हें लौटना जरूरी इसलिए नहीं लगा होगा कि यहां करो चाहे वहां, करनी तो उन्हें मजदूरी ही है, ज्यादातर ऐसे ही बांग्लादेशी यहां रुक गये। वर्तमान में भारत से ज्यादा सुदृढ़ होती अर्थव्यवस्था और भोजन के अधिकार के बाद बांग्लादेश के हिन्दू नागरिक भी यहां क्यों आना चाहेंगे? रही बात पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले लोगों की तो आंकड़े देख लें, बीते वर्षों में इन देशों से नागरिकता हासिल करने वालों में मुस्लिम समुदाय का अनुपात बहुत कम मिलेगा। अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता के चलते मुसलमानों का पलायन जरूर हुआ लेकिन उन्हें यहां नागरिकता आसानी से नहीं दी गई। वैसे भी किसी विपत्ति में आए लोगों को जब शरणार्थी कहने में भी संकोच होता है तो उन्हें घुसपैठिया कैसे कह सकते हैं? उनका धर्म देखना तो अमानवीय है।
संविधान के अनुच्छेद 14 की भावना के विपरीत इस कानून का विरोध करने वालों में जिन्हें मुसलमान ज्यादा दीखते है उन्हें राजस्थान के गुर्जर और हरियाणा के जाटों के आरक्षण आन्दोलनों में भी ऐसा ही लगा हो, कह नहीं सकते। हमें यह समझना होगा कि प्रभावित होने वाला कोई समूह विशेष तौर से उद्वेलित तो होगा ही। बल्कि सीएबी/सीएए कानून विरोधी आन्दोलन और गुर्जर-जाटों के आरक्षण वाले आन्दोलनों में बड़ा अन्तर यह है कि गुर्जर-जाटों के आन्दोलन में गैर गुर्जर और गैर जाट शामिल नहीं थे जबकि एनआरसी व सीएबी/सीएए विरोधी आन्दोलन में प्रभावित मुसलमानों के अलावा जागरूक नागरिक और विद्यार्थियों को बड़ी संख्या में शामिल देखा जा सकता है। संविधान विरोधी इस कानून के खिलाफ आन्दोलन को केवल इसीलिए मुसलमानों का आन्दोलन नहीं कह सकते।
नागरिकता संशोधन कानून पर हमें दूसरे तरीके से भी विचार करना चाहिए। आज के युग में दुनिया ग्लोबल विलेज में परिवर्तित हो रही है और अनुकूल रोजगार की तलाश में लोगों का दुनिया के सभी देशों में ना केवल आना-जाना होता है बल्कि ऐसे लोग अमेरिका-कनाडा या यूरोपीय देशों की नागरिकता लेने की फिराक में भी रहते हैं। ऐसे में एक धर्मविशेष के लोगों को राजनीतिक लाभ मात्र की नीयत से या कहें अकारण किसी कानून से बाहर रखना कितना नैतिक और उचित है?
इस संदर्भ में कुछ और बातें भी स्पष्ट करना जरूरी हैकिसी फेसबुक मित्र की पोस्ट मैंने साझा की जिसमें एनआरसी/सीएए कानून के आलोक में बताया गया था कि केवल 8 मुस्लिम देशों में लगभग 80 लाख भारतीय नागरिक रोजगार में लगे हैं, जिनसे भारत को प्रतिवर्ष विदेशी मुद्रा में 2.5 लाख करोड़ की सालाना आय होती है। इस पोस्ट पर मित्र आशाराम शर्मा ने फेसबुक पर ऐसे आंकड़े वाली पोस्ट का मकसद जानना चाहा। पहला मकसद जैसा कि ऊपर जिक्र कियायही है कि ग्लोबल गांव में परिवर्तित हो रही दुनिया में ना केवल आवागमन बल्कि दूसरे देशों में बिना ऐसे भेदभाव के स्थाई-अस्थाई वास लगातार बढ़ रहे हैंऐसे में राजनीतिक लाभ के लालच में इस तरह के कानून मनुष्यत्व को नीचा दिखाने की चेष्टा है। एक अनुमान के अनुसार करीब पौने दो करोड़ भारतीय दुनियां के अन्य देशों में रह रहे हैं, इसमें वे 'घुसपैठिये' शामिल नहीं हैं जो यूरोप और अमेरिका में अवैध तौर पर रह रहे हैं और जिन्हें न केवल जब-तब निकाला जाता है बल्कि कभी भी निकाला जा सकता है। नागरिकता के लिए धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाली मानसिकता रखने वाले ये जान लें कि दूसरे देशों में रहने वालों में किसी एक देश के सबसे ज्यादा नागरिक हैं तो वह भारतीय ही हैं। और यह भी कि नागरिकता संशोधन कानून के उद्वेलन के बाद बांग्लादेश ने अपने नागरिक वापस लेने की मंशा से जो सूची चाही है, उसमें उन्होंने धर्म और जातिविशेष की कोई शर्त नहीं लगाई। उदारता से विचारना मानवीयता से विचारना है। कानून और व्यवस्था अमानवीय तौर तरीकों से साधी नहीं जा सकती। विदेशी आकर कोई गड़बड़ करते हैं तो उसके लिये पर्याप्त कानून हैं। जरूरत उन्हें मुस्तैदी से लागू करने की है, ना कि जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव करने की।
—दीपचन्द सांखला
19 दिसम्बर, 2019

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