Thursday, January 2, 2020

2019 का विदागीत और 2020 का स्वागत-गान

वर्ष 2019 की विदाई के साथ 2020 ने दस्तक दे दी है। वैसे तो हर वर्ष―हर सदी विशिष्ट होती है, इस ब्रह्माण्ड में मनुष्य की उपस्थिति हर सदी को विशिष्ट बनाती है, अन्यथा अपने नैसर्गिक परिवर्तनों के बावजूद यह दुनिया कितनी खूबसूरत होती कल्पनातीत ही है। मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृत्ति बहुत कुछ अच्छा करती है तो काफी कुछ बिगाड़ा भी।

इस हाइ-गोली व्याख्या से बाहर आएं तो 2018 के जाते-जाते राजस्थान में सरकार अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की बन चुकी थी और मई, 2019 में पांच वर्षों से केन्द्र में शासन कर रही मोदी-शाह की सरकार को जनता ने पलटते हुए शासन शाह-मोदी को दे दिया। देश का शासन गृहमंत्री अमित शाह ही चला रहे हैं, मोदी तो मात्र मुखौटा हैं, संघ और जनसंघीय पहचान से स्थापित और अब भारतीय जनता पार्टी के तौर पर पहचाने जाने वाले दल की जैसी फितरत रही है, इस बार की सरकार अमित शाह वैसी ही चला रहे हैं। शासन पर काबिज होना एक बात है और अवाम का दिल जीतना दूसरी बात। लोकतंत्र में जनता को भरमा कर जीतने वाला प्रकारांतर से लोकतंत्र पर चोट ही कर रहा होता है। 

पहले राजस्थान के संदर्भ में बात करें तो वहां उस सवा सौ वर्ष पुराने दल कांग्रेस का शासन है जिस पर एक परिवार की बपौती होने का आरोप भी लगाता है और हमारी समाज व्यवस्था के हिसाब से इसे विरासती प्रोफेशन भी कहा जा सकता है। लेकिन राजस्थान में वसुंधरा राजे अपने पिछले कार्यकाल के समय में नरेन्द्र मोदी के मुखौटे में अमित शाह की 'एकल हट्टी बाणिया' के बरअकस दम ठोंक के खड़ी दिखीं, वैसे ही अशोक गहलोत अपने इस कार्यकाल में तथाकथित कांग्रेस हाइकमान और पार्टी अध्यक्ष रहे विरासती राहुल गांधी की इच्छा को धता बताते हुए ना केवल मुख्यमंत्री बने बल्कि निर्बाध पूरा एक वर्ष सूबे में शासन भी कर लिया है।

हालांकि अशोक गहलोत अपनी चिर-परिचित छाप इस कार्यकाल में छोड़ते लगते नहीं हैं। हो सकता है सोनिया के हाइकमान बनने के बावजूद गहलोत राहुल-नाखुशी के अदृश्य दबाव में हैं। गहलोत को अभी एक वर्ष ही हुआ, हो सकता है अपनी चतुराई से वे तथाकथित हाइकमान से लेकर लोकतंत्र के असल हाइकमान जनता को भी साध लें। यदि वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो अपनी छाप को राज के अपने इस अंतिम कार्यकाल में धूमिल ही करेंगे।

बात अब केन्द्र की शाह-मोदी सरकार की भी कर लेते हैं। मोदी मुखौटे की अमित शाह सरकार अपने 'विजन डाक्यूमेंट' की आड़ में उद्देशिका में स्पष्ट संविधान की मूल भावना के खिलाफ जो फैसले ले रही है, वह देश की असल बुनावट के खिलाफ हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने पहले भी राज किया है, तब भी उसका चुनावी घोषणापत्र संघ नीतियों के अनुसार ही था, लेकिन उन्होंने संविधान की मर्यादा का मर्दन नहीं होने दिया था। देश का संविधान बना तब सभी विचारधारा के विद्वज्जनों का उसमें योगदान थालम्बी-लम्बी बहसें और विमर्शों के बाद बने संविधान को हम सबने अपनायाजिसमें भारत के भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक जैसे सभी परिप्रेक्ष्यों का खयाल रखा गया था। भ्रष्टाचार जैसी मानवीय बुराई को दरकिनार कर दें तो विभिन्न विविधताओं वाला हमारा देश ठीक-ठाक ही चल रहा है। कमियां उस परिवार में भी मिलती हैं जिसमें कठोर अनुशासन वाला मुखिया होता है, हमारा देश लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला वैसा देश है, जिसमें कितने-कितने प्रकार के लोग भाषा, रहन-सहन के अपने तौर-तरीकों, विविध परम्पराओं के साथ ना केवल अपने अलग-अलग धार्मिक विश्वासों बल्कि एक ही धर्म में आस्था के हजारों तौर-तरीकों से अपना निर्वहन करते हैं। ऐसे देश में संघ और उसकी मंशा के अनुसार घोर अव्यावहारिक अमित शाह जैसे शासक ने संविधान की मूल भावनाओं को नजरंदाज कर दबंगई से राज चलाने की ठान रखी है, जो सर्वथा अनुचित है। शाह को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें कुल वोटरों में मात्र 24 से 25 प्रतिशत ने ही चुना है। और उस संवैधानिक व्यवस्था के तहत चुना है जिसे वे साम्प्रदायिक बदनीयती से अनुच्छेद 370 को बेअसर करके, जम्मू-कश्मीर के टुकड़े करके, वहां 35 ए हटाकर, देशभर NRC, CAA जैसी व्यवस्था लागू करने की मंशा रखकर, जनगणना प्रक्रिया NPR में परम्परागत भारतीय मानस के खिलाफ प्रावधान करके जो असंवैधानिक कृत्य कर रहे हैं, उसकी कीमत देश को लम्बे समय तक चुकानी होगी। 

अन्त में यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को सहिष्णु और उदार होने का जो तकमा हासिल था उसे साम्प्रदायिक कर के संघ ने अमानवीय कृत्य ही किया है। इसे ना केवल अन्य धर्मावलम्बियों को बल्कि हिन्दू समाज व्यवस्था को भी लम्बे समय तक भुगतना होगा। ऐसे सभी दल, संस्थान और लोग जिनका संविधान की मूल भावना में भरोसा कायम है, वे ऐसे समय इसीलिए चुप हैं कि जो कभी कोई भ्रष्ट और अनैतिक कृत्यों में लिप्त रहे हों, जिनके चलते उन्हें ब्लेकमेल किया जा सकता है या ऐसे भी चुप हैं, जिन्हें भविष्य में प्रतिकूलताओं का सामना करने की आशंका हो। ऐसे लोग भूल रहे हैं कि अनुकूलताएं यदि देश की खत्म हो जानी हैं तो उनकी व्यक्तिगत अनुकूलताएं कैसे बचेंगी, सामूहिक अनुकूलताएं हमें संविधान से ही हासिल हैं।
—दीपचन्द सांखला
02 जनवरी, 2020

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