Thursday, November 1, 2018

ये फोटो भी कुछ कहते हैं (24 दिसंबर, 2011

डॉक्टरों की हड़ताल का आज चौथा दिन है। इलाज के अभाव में होने वाली मौतों की खबरें भी लगातार आ रही हैं। वैसे इलाज के चलते मरने वालों और इलाज के अभाव में मरने वालों के बीच की रेखा इतनी झीनी होती है कि मौत का शत-प्रतिशत कारण तय करना बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि इलाज के अभाव में मरने के आरोप, बिना हड़ताल के भी अकसर लगते रहे हैं। सरकार और डॉक्टर, दोनों पर अड़यिलपने के आरोप भी लग रहे हैं। अब कौन कितना अड़ियल है, इसे तय करना बहुत मुश्किल है। बेबसी के चलते आम आदमी के लिए इस तरह के मुद्दों को समझना और उस पर अपनी राय बनाना इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि न तो उसके पास इस तरह से शिक्षित होने का अवकाश है और ना ही कोई सलीके से शिक्षित करने वाले हैं?
डॉक्टरी शपथ की बात करना तो इसलिए मुनासिब नहीं लगता कि देखा जाता रहा है कि शासन के शीर्ष पर बैठे हुओं से लेकर स्थानीय न्यायालयों तक में इस ‘शपथ’ शब्द का जो हश्र हो रहा है, उससे इस शब्द का अर्थ अनर्थकारी होता चला जा रहा है। लेकिन मानव होने के नाते मानवीय संवेदना की बात तो कर ही सकते हैं। इलाज के अभाव में लगातार मौतों की खबरों के बीच आज दैनिक भास्कर के स्थानीय संस्करण के पृष्ठ पर हड़ताल से संबंधित खबरों का जो पैकेज दिया गया है उसमें सीनियर डॉक्टरों के सांकेतिक बहिष्कार के हवाले से एक फोटो छपा है। उसे आप गौर से देखिये--अधिकांश सीनियर डॉक्टरों के हंसियाते चेहरे किस तरह की संवेदना को जाहिर कर रहे हैं? मान सकते हैं सांकेतिक बहिष्कार को भी वे अपना व्यावसायिक कर्तव्य समझते हों। लेकिन उनकी संवेदनहीन हंसी समाज की संवेदना के गर्त में जाने का साफ संकेत देती हैं।
यह जानने की उत्सुकता जरूर हो सकती है कि उन सीनियर डॉक्टरों में से कितनों को अपने उस फोटो में आये मूड पर संकोच हुआ होगा। अगर संकोच का ऐसा कोई भाव अपने उस फोटो को देख कर उन डॉक्टरों में नहीं जागा है तो यह इस समाज के लिए और इसी मानवीय समाज के एक हिस्सा होने के नाते उन डॉक्टरों के लिए भी--विचारणीय है!
-- दीपचंद सांखला
24 दिसम्बर, 2011

धर्मगुरुओं का धेर्य और आत्मविश्वास (23 दिसंबर, 2011)

वैसे तो आस्था तर्कों से परे होती है, आस्था के नाम पर आदमी वह सब करने को तैयार हो जाता है जिन्हें वो करने को अन्यथा हरगिज तैयार नहीं होता। आस्था के नाम पर दसियों चैनल तो चौबीसों घंटे चलते हैं, और हजारों नहीं तो सैकड़ों धर्म उपदेशक बहुत सुविधा से अपना सबकुछ गुजर-बसर कर रहे हैं, इन धर्मगुरुओं में पहली जो काबिलीयत देखी गई वो यह कि उनमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा होता है। अन्यथा वो अपने को इस योग्य ही क्यों पाते कि वो अन्यों को सीख देने के काबिल हैं और दूसरी बड़ी काबिलीयत यह कि उनमें धैर्य भी जबरदस्त होता है। क्योंकि इस काम में आजकल प्रतिस्पर्धा बहुत हो गई और हर ‘गुरू’ अपने गुरुडम को उच्चतम शिखर पर देखना चाहता है। मुश्किल यह कि शिखर कोई पहले से या तो तय नहीं है या फिर दिखलाई नहीं देता।
खाजूवाला से समाचार है कि इस क्षेत्र में नये-नये आये संत रामपाल अपने शुरुआती दौर में ही मैदान छोड़ भागे। संतजी को शायद कोई ढंग का ‘गुरू’ नहीं मिला होगा अन्यथा वो धैर्य और आत्मविश्वास तो घुट्टी में ही पिला देता।
-- दीपचंद सांखला
23 दिसम्बर, 2011

दुनिया में और भी कई गम है.... (23 दिसंबर, 2011)

डॉक्टर हड़ताल पर हैं। अपने जिला कलक्टर डॉ. पृथ्वी भी डॉक्टरी पढ़े हैं। कल पीबीएम अस्पताल पहुंचे तो उनकी पढ़ाई भी जाग गई। डॉक्टरों की सीट खाली थी तो खुद ही बैठ गए और टटोलने लगे नब्ज मरीजों की। कानों में लगाकर ध्वनि से रोग को पहचानने में सहायक उपकरण को भी काम में लिया। रुक्के में दवाइयां जेनरिक लिखी या ब्रांडेड हमें नहीं पता। पता करने की कोशिश भी नहीं की। उधर करौली के एक डॉक्टर विलायत से लौटे तो घर छुट्टियां मनाने, लेकिन वो भी बैठ गए मरीजों को देखने।
वैसे इतिहास और परम्परा में प्रतीकों और प्रतीकात्मक घटनाओं को बड़ा प्रेरक माना गया है। उनसे प्रेरित वही होता होगा जिनमें कुछ संवेदनाएं शेष रहीं या रहती हो। यहां हम हड़ताली डॉक्टरों पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। करौली के उन डॉक्टरबाबू का तो पता नहीं अपने जिला कलक्टर का डॉक्टर की कुर्सी पर बैठना प्रतीकात्मक ही माना जायेगा। वो अगर पूरी तरह बैठते तो फिर जिले को कौन सम्हालता। ‘दुनिया में और भी कई गम हैं मोहब्बत के सिवा’ की तर्ज पर कहते हैं इन कलक्टरों को ढाई सौ से ज्यादा तरह की कमेटियों और संस्थाओं की पदेन अध्यक्षता करनी होती है। सम्पन्न घरों में बच्चों को यह कह कर रोज 5-10 बादाम खिलाए जाते हैं कि इससे दिमागी ताकत बढ़ती है। अब हमसे यह ना पूछियेगा कि यह कलक्टर लोग रोज कितने बादाम खाते होंगे। हमने तो कभी यह जानने-पूछने की जरूरत नहीं समझी। लेकिन यह जानने की इच्छा जरूर है कि खाने की किस वस्तु से डॉक्टरों सहित समाज के सभी लोगों को अपने कर्तव्यबोध का ज्ञान हो सकता है! किसी को भी पता चले तो हमें जरूर बताइएगा, हमें खुद अपने से ही उसे आजमाना शुरू करना है।
-- दीपचंद सांखला
23 दिसम्बर, 2011

हड़ताल या सत्याग्रह (22दिसंबर, 2011)

अपने देश ने आजादी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। लेकिन गांधी ने जिस तरह लड़ी, उसे लड़ना नहीं कह सकते। इसलिए उन्होंने इसे बहुत अच्छा नाम दिया सत्याग्रह। आप जब सत्य की बात करते हैं तो वह व्यक्तिसापेक्ष नहीं हो सकता, समूह सापेक्ष भी नहीं। सत्य पूरेचर-अचर जगत के सापेक्ष होता है।
आजादी के बाद सत्याग्रह शब्द को शायद इसलिए भुला दिया कि जैसे वो केवल आजादी का ही औजार था। अन्ना भी जो और जिस तरह कर रहे हैं उसे सत्याग्रह कितना कहा जा सकता है? आजाद भारतीयों ने विरोध और ध्यानाकर्षण के अभियानों को हड़ताल का नाम दिया। शब्दकोश इस हड़ताल शब्द को एक नकारात्मक शब्द हटताल से बना बताते हैं। हट यानी उत्पीड़न, बलात्कार्रताल यानी दो हथेलियों को बजाने से निकलने वाली आवाज।
किसी भी समूह के साथ यदि कोई अन्याय होता है तो उसे अपने उस अन्याय के ध्यानाकर्षण का पूरा हक है। लेकिन आपके इस हक से कोई बड़ा समूह अकारण किसी बड़े संकट में घिर जाये तो इसे कैसे उचित या सत्य ठहरा सकते हैं। डॉक्टरी एक ऐसा पेशा है जिसे समाज ने लगभग तारक का दर्जा दे रखा है। तारक यानी तारने वाला, उद्धार करने वाला। शब्द-कोशों में तारक के लिए पहला अर्थ ‘उद्धार करने वाला’ है। एक-दूसरा अर्थ असुर भी है। दोनों अर्थ ठीक विपरीत हैं। शायद इसीलिए डॉक्टरों में जब तक सेवा-भाव बना रहता है तब तक वे प्रथम अर्थ के भागी हैं। जैसे ही वे इस भाव को तिलाञ्जलि देते हैं उनकी भूमिका इसी तारक के एक-दूसरे अर्थ ‘असुर’ में परिवर्तित क्यों हो जाती है?
डॉक्टरों के साथ यदि सचमुच कोई अन्याय हो रहा है तो उनके पास दूसरे तरीके भी हैं। वे बिना चिकित्सा सेवा में बाधा के ध्यानाकर्षण अपने सत्याग्रह के माध्यम से जारी रख सकते हैं। वैसे इस देश में कोई सरकारी सेवा में है तो उसे अन्याय का शिकार तो कहा ही नहीं जा सकता। वो इसलिए कि इसी देश की लगभग आधी आबादी को जीवनयापन की न्यूनतम जरूरतें जैसे रोटी, कपड़ा और छत तक उपलब्ध नहीं है। उनके साथ जो हो रहा है फिर उसे क्या कहेंगे?
केन्द्र के समान वेतन डॉक्टरों की एक बड़ी मांग है। केन्द्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो यह सुनिश्चित करे कि समान काम के लिए देश में समान दाम की नीति कायम होनी चाहिए। इसलिए केन्द्र जिस तरह केवल बाजार को रोशन करने के लिए आये दिन वेतन, भत्ते बढ़ाता है--बढ़ाने से पहले उसे राज्य की सरकारों से मशवरा करना चाहिए कि वे भी केन्द्र अनुरूप वेतन, भत्ते बढ़ा सकते हैं कि नहीं।
वैसे चिन्ता जगाने वाली दूसरी बात यह है कि आर्थिक उदारीकरण के चलते जिस तरह बाजार को ही माई-बाप मान लिया गया है, वह कितना मानवीय है। ऐसा पूरी तरह अमानवीय इसलिए है कि इससे गरीब और अमीर के बीच की खाई लगातार चौड़ी से चौड़ी होती जा रही है।
रेजीडेंट और सीनियर रेजीडेंट का भी हड़ताल पर जाना कितना जायज है? उन्हें समझना होगा कि उनकी ड्यूटी समाज के प्रति ज्यादा है या अपने वरिष्ठ समव्यवसायियों के प्रति। देश यदि सोच का नजरिया नहीं बदलेगा तो सम्भव है कि कुछ भी हो सकता है, खतरनाक भी!
-- दीपचंद सांखला
22 दिसम्बर, 2011

भ्रष्टाचार का टीका नहीं है लोकपाल (21 दिसंबर, 2011)

केन्द्रीय कैबिनेट ने लोकपाल विधेयक को मंजूरी दे दी है। हो सकता है, संसद के इसी सत्र में इसे कानून का दर्जा दे दिया जाय।
अन्ना के आन्दोलन से जुड़े लोग इस विधेयक से शायद संतुष्ट न हों, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि जनलोकपाल का मसौदा यदि ज्यों का त्यों पारित होता तभी देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा संभव है, शायद नहीं। क्योंकि भ्रष्टाचार केवल व्यवस्थागत बुराई नहीं है। जिस तरह एचआईवी संक्रमित अपनी रोगप्रतिरोधक क्षमता खो बैठता है, लगभग वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति इस व्यवस्था के संपर्क में आता है उसके भ्रष्टाचार से संक्रमित होने की आशंका बन जाती है। जिस तरह एचआईवी संक्रमित व्यक्तियों में से कई खुद उससे पीड़ित नहीं होते लेकिन माना जाता है कि अपने संपर्क में आने वाले को संक्रमित अकसर कर देते हैं। जैसे--आजकल झूठ के बिना काम नहीं चलता, कुछ लिए-दिए बिना काम करवाना मुश्किल है, हमने समाज सुधारने का ठेका थोड़े ना ले रखा है--अपना काम निकाल लो आदि-आदि जुमले अकसर सुनने को मिलते हैं।
जनलोकपाल बिल के आलोचक की इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि वो एक समानांतर व्यवस्था हो जाएगी जिससे दोनों में टकराव और अराजकता की संभावना हमेशा बनी रहेगी। दूसरा, जनलोकपाल मसौदे के आधार पर बनी वह व्यवस्था खुद इतनी बड़ी होगी कि खुद उसे भ्रष्टाचार जैसी बुराई से बचाना मुश्किल होगा। इस तरह की शंकाओं को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता।
कहने का मतलब यही है कि किसी भी लोकपाल विधेयक के मसौदे को आप भ्रष्टाचार उन्मूलन के टीके के रूप में प्रचारित नहीं कर सकते। हां! एक उपाय जरूर हो सकता है--उसे जितना कारगर बना सकते हैं बनाया जाना चाहिए। जिस तरह किसी भी महामारी से बचने के लिए बाहरी उपायों के साथ-साथ खुद में रोग-प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करना जरूरी होता है, उसी तरह भ्रष्टाचार रूपी इस सामाजिक और व्यवस्थागत बीमारी से निबटने के लिए प्रत्येक को अपने भीतर भ्रष्टाचार की नैतिक और कर्तव्यनिष्ठ प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करना जरूरी है। यह मुश्किल जरूर है लेकिन नामुमकिन नहीं।
-- दीपचंद सांखला
21 दिसम्बर, 2011

लोकपाल/सम्मान समारोह या स्वागत समारोह/सुदर्शन सोबत (20 दिसंबर, 2011)

लोकपाल
अन्ना हजारे निर्मल मन के मासूम इंसान हैं, उनके क्रिया-कलापों और बयानों से यह लगता भी है। लोकपाल बिल को लेकर सरकार की और संसद की सारी सक्रियता का श्रेय अन्ना के इस सक्रियता को दिया जा सकता है। अन्ना का वैचारिक आधार कमजोर है, इसीलिए उनके सहयोगी जैसा चाहते हैं वैसा वे अकसर उनसे करवा लेते हैं। लेकिन इस तरह करवाना दृढ़ता से कम जिद से करवाना ज्यादा लगने लगा है। अन्ना के सहयोगियों का भी कोई वैचारिक आधार लक्षित नहीं होता है। कई कारणों और वर्तमान परिस्थितियों के चलते लोकपाल को लेकर सरकार भी दबाव में है। गांधीजी शुद्ध साध्य के लिए साधनों की शुद्धता पर जोर देते हैं। जिद्दी आग्रह और मजबूरी में स्वीकार का परिणाम संशयशील और विचारणीय माना गया है।
सम्मान समारोह या स्वागत समारोह
नव मनोनीत न्यास अध्यक्ष मकसूद अहमद के सम्मान के समाचार आए दिन आ रहे हैं। भानीभाई भी जब से महापौर चुने गये तब से ही पहले कम दिनों के अंतराल से और अब थोड़े ज्यादा दिनों के अंतराल में उनके सम्मान के समाचार आने रुके नहीं हैं। सामान्यतः इस तरह के  सम्मान कार्यक्रम किसी खास उपलब्धि पर आयोजित होते रहे हैं। तो क्या न्यास अध्यक्ष बनना या महापौर चुना जाना मात्र ही बड़ी उपलब्धि है। न्यास अध्यक्ष या महापौर के ही नहीं, कोई आला सरकारी अफसर भी जब स्थानांतरित होकर शहर में आता है तब भी ऐसे सम्मान समारोह आयोजित होने लगते हैं। स्वागत सेना के इन स्वयंसेवकों से एक गुजारिश है कि आप अपने हितों के चलते इन सबसे नजदीकियां बढ़ाने को यह सब करते हैं तो इन समारोहों को सम्मान समारोह ना कह कर स्वागत समारोह क्यों नहीं कहते? इससे होगा यह कि एक-एक समूह को ऐसे दो-दो समारोह आयोजित करने के अवसर मिल जाएंगे। पदारूढ़ होने पर स्वागत समारोह आयोजित करें और थोड़े समय बाद अपनी नजदीकी स्मरण करवाने को सम्मान समारोह, है ना पते की बात।
सुदर्शन सोबत
म्यूजियम के पास स्थित भ्रमणपथ पर तड़के घूमने वालों में से कई उन्हें माताजी, आंटीजी, बहनजी कह कर बुलाते थे और जो चुप घूमते हैं उनमें से कइयों के मन में उनकी छवि एक ‘बॉस’ की सी थी। बॉस की इसलिए कि वे अकसर महिलाओं के समूह के साथ लगभग नेतृत्व की मुद्रा में चलती थीं। पास से गुजरने वाले सुन सकते थे कि वो अकसर घर-गृहस्थी से संबंधित सलाहें लगभग अनुभूत आत्मविश्वास के साथ देती थीं। यही नहीं यदा-कदा टीवी धारावाहिकों पर उनकी बेबाक टिप्पणी के हिस्से भी सुनाई पड़ जाते थे। दीखने में सत्तर पार की यह महिला अभी दो-चार दिन पहले तक अपने उसी अंदाज में दिखाई दे रही थीं। आज अचानक अखबारों में छपने वाली शोक सूचना के विज्ञापन से मालूम हुआ कि उनका नाम सुदर्शन सोबत था।
-- दीपचंद सांखला
20 दिसम्बर, 2011

असल समस्या क्रियान्वयन की (19 दिसंबर, 2011)

एक और लोक लुभावन योजना को लागू करने की वैधानिक प्रक्रिया शुरू हो गई है। खाद्य सुरक्षा विधेयक को केन्द्र की कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। संसद इसे संभवतः आज कल में पारित भी कर देगी। कांग्रेस का कहना है कि अपने चुनावी घोषणा-पत्र में कमजोर वर्ग के लिए दो रुपये किलो गेहूं देने का जो वादा किया था, उसे पूरा कर रहे हैं। राजस्थान की सरकार ने भी कुछ ऐसी ही योजना शुरू कर रखी है।
केन्द्र की ऐसी ही लोक लुभावन नरेगा योजना पहले से ही चल रही है। राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही में शुरू की गई मुफ्त दवा योजना और जननी सुरक्षा योजना कुछ हिचकोलों के साथ चल रही है। इस तरह के कार्यक्रमों से योजना के स्तर पर किसी को भी एतराज शायद ही हो। सारे संशय क्रियान्वयन के स्तर पर हैं। पिछले 64 साल से क्रियान्वयन की व्यवस्था लगातार भ्रष्ट होती जा रही है। देखा यह गया है कि इन लोक लुभावन योजनाओं का ज्यादा लाभ भ्रष्ट लोगों को होता है। कांग्रेस के राजीव गांधी ने ही सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि सरकारी योजनाओं का लाभ लक्ष्यसमूह तक पहुंचते-पहुंचते मात्र पन्द्रह प्रतिशत रह जाता है।
आर्थिक उदारीकरण के चलते ऐसी योजनाओं के माध्यम से सरकार का मकसद क्या केवल बाजार को रोशन करना है? इन योजनाओं से बाजार रोशन हो भी रहा है। केवल यही मकसद शायद ना हो। क्योंकि ऐसी योजनाओं में भारी गड़बड़ियों और भ्रष्ट आर्थिक आचरण के चलते काला धन बड़ी मात्रा में बाजार में आ रहा है। लेकिन घोषित और असल मकसद आधा भी सिरे नहीं चढ़ता। केन्द्र की सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी नरेगा योजना का एक दीर्घकालिक लाभ यह जरूर दिखलाई दे रहा कि इसके चलते असंगठित क्षेत्र के मजदूरों-कर्मचारियों की दैनिक मजदूरी में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोतरी हो रही है। क्योंकि नरेगा के चलते ये मजदूर अब मौल-भाव करके अपनी मजदूरी को लगातार बढ़ाने में सफल हो रहे हैं। जो पहले कुछ ज्यादा ही कम थी।
सरकारें चाहें केन्द्र की हों या राज्यों की उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी लोक लुभावन योजनाएं क्रियान्वयन के स्तर पर अधिकतम कारगर हो। लोकपाल, लोकायुक्त, सूचना का अधिकार कानून, सिटीजन चार्टर या लोक सेवा गारंटी योजना जैसी युक्तियों को साफ मन से लागू करना एक उपाय हो सकता है।
-- दीपचंद सांखला
19 दिसम्बर, 2011