Thursday, October 4, 2018

अमित शाह और राहुल गांधी के दौरों के बहाने बीकानेर के मैदानों की पड़ताल


भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को 4 अक्टूबर को और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी को 10 अक्टूबर को बीकानेर में होना हैवजह, दो माह बाद ही राजस्थान विधानसभा के चुनाव हैं। राजनीतिक चर्चा-परिचर्चाएं करते रहे हैंआगे भी करेंगे ही। चूंकि इन दोनों दिग्गजों की रैलियां मेडिकल कॉलेज मैदान में हैं सो इसी बहाने बीकानेरी मैदानों की श्रोता-क्षमता की पड़ताल कर लेते हैं, ऐसा करना गूगल मैप की सुविधा मिलने के बाद आसान हो गया है। जब गूगल मैप की सुविधा नहीं थी तब राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर जैसे मीडिया समूह ऐसी पैमाइश करवाने में सक्षम थेनहीं करवाई, इसलिए मीडिया रिपोर्टर श्रोताओं की संख्या गोल-माल भाषा में सैकड़ों-हजारों लिखकर या आयोजकों के दावों का उल्लेख कर काम चलाते रहे हैं।
बीते वर्षों में दो रैलियों में जुटी भीड़ के दावे चर्चा में रहे हैं। देवीसिंह भाटी की तब की रैली जब उन्होंने भाजपा से रूठ कर सामाजिक न्यायमंच के माध्यम से दबाव की राजनीति की। यह रैली करणीसिंह स्टेडियम में हुई थी। उस रैली की चर्चा इसलिए भी है क्योंकि तब अच्छे प्रबन्धक माने जाने वाले भाटी के ज्येष्ठ पुत्र पूर्व सांसद महेन्द्रसिंह भाटी उस रैली को सफल बनाने में जुटे थे। लाखों  पहुंचने के दावे के बरअक्स लगभग 40 हजार लोग ही पहुंचेऐसा उदार विश्लेषकों का मानना है। स्टेडियम के एक तरफ लगे मजमे में इतने ही लोग हो सकते हैं। उपस्थित विश्लेषकों का मानना है कि पैविलियन सहित लगभग सवा तीन लाख वर्गफीट के करणीसिंह स्टेडियम में यदि रैली एक तरफ सिमटी हो तो 40 हजार के अनुमान को गलत नहीं कहा जा सकता। भीड़ आकलन के अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार जमीन पर बैठा व्यक्ति औसतन 4 वर्गफीट जगह को घेरता है तो खड़ा 3 वर्गफीट को। ऐसे में भाटी की उस रैली के आयोजकों को लग गया था कि रैली के लिए बड़े स्थान के चयन का निर्णय सही नहीं था। पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी वाले बीकानेरी इसीलिए अपनी आम सभाएं परम्परागत स्थानों को छोड़ संकुचित और चारों ओर से घिरे भीड़ भरे उद्बुदे स्थानों पर करते रहे हैं। जैसे 1967 के विधानसभा चुनावों में अटलबिहारी वाजपेयी की मीटिंग मोहता भवन के आगे रखी गई तो 1993 में प्रमोद महाजन की आमसभा जेलरोड स्थित धुनीनाथ मन्दिर के आगे। हाल ही के वर्षों में ऐसी आमसभाओं और रैलियों के लिए भाजपा का पसंदीदा स्थान जूनागढ़ के सामने वाली चौड़ी सड़क हो गया है।
दूसरी बड़ी रैली में पहुंचे लोगों की गिनती के अनुमान की चर्चा हाल में मेडिकल कॉलेज मैदान में जाट नेता हनुमान बेनीवाल की रही। 11 लाख वर्गफीट के शहर के इस सबसे बड़े मैदान में हुई रैली को भीड़ के हिसाब से अब तक की सबसे बड़ी रैली कहा जा सकता है। आधे मैदान में भरी इस रैली में जहां भीड़ को नियंत्रण करने के मकसद से बाड़ेबंदी का प्रबन्धन किया गया वहीं मैदान भरा-पूरा दीखे, इसलिए आगे के कुछ बाड़ों में कुर्सियां भी लगाई गईं।
मैदान भरे दीखें इसलिए धनिकों की पार्टियां अपनी रैलियों में कुर्सियां लगाने लगी हैं। इन कुर्सी व्यवस्था वाली रैलियों में पहुंचा एक व्यक्ति 6 वर्गफीट जगह घेरता है वहीं बाड़ेबन्दी की व्यवस्था मैदान की क्षमता का 15 से 20 प्रतिशत स्थान घेर लेती है। हनुमान बेनीवाल की इस रैली में इन सभी व्यवस्थाओं के बावजूद एक से सवा लाख लोगों के पहुंचने का अनुमान गलत नहीं कहा जा सकता। जातीय उन्माद में आयोजित इस रैली से बड़ी रैली भाजपा या कांग्रेस हाल-फिलहाल कर पाएंगे लगता नहीं है। हालांकि राहुल गांधी की रैली के संबंध में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी ने कहा है कि 10 अक्टूबर को इसी मेडिकल कॉलेज मैदान में होने वाली रैली में 5 लाख लोगों को लाने का लक्ष्य रखा गया है। ऐसे में कोई उनसे प्रतिप्रश्न करे कि 5 लाख लोगों को लाने के लिए कितने वाहनों की जरूरत होगी और जितने वाहनों की जरूरत होगी उतने वाहन जिले में छोड़ संभाग में भी हैं क्या? दूसरा प्रश्न यह हो सकता है कि पांच लाख लोग आ भी गये तो उन्हें खड़ा कहां करेंगे। बीकानेर के इस सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज मैदान में बिना कुर्सियों और बिना बाड़ेबन्दी एक से एक सटाकर मिनख खड़े किए जाएं तब भी ठसाठस भरे इस मैदान में तीन लाख लोग ही समा पाएंगे, वह भी तब जब बिना बाड़ेबन्दी की व्यवस्था की प्रशासन इजाजत दे। हालांकि नेताओं की कही अब जुमलों की गत को हासिल होने लगी है।
ये बातें तो यूं ही होती रहेंगी। थोड़ी नजर उन स्थानों पर डाल लेते हैं जहां आजादी बाद राजनीतिक दलों की आमसभाएं होती रही हैं। पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक तक आम सभाओं के लिए बीकानेर के सभी राजनीतिक दलों का पसन्दीदा स्थान रतनबिहारी पार्क का वह हिस्सा रहा है जो खजांची मार्केट के ठीक सामने है। हालांकि उससे भी बड़ा स्थान रतनबिहारी के दोनों मन्दिरों के पिछवाड़े का है,जहां दो कारणों से मीटिंग करने से राजनीतिक दल बचते रहे हैंपहला, यह स्थान काफी बड़ा है इसलिए इतनी भीड़ जुटाएं कैसे? दूसरा, सड़क से लगते मैदान में सभा होगी तो चलते फिरते लोग रुककर सुन भी लेंगे या अन्दर भी आ लेंगे, ऐसा होता भी रहा है।
हाइ प्रोफाइल आम सभाएं हमेशा ही करणीसिंह स्टेडियम में होती रही हैं। वहां नेहरू से लेकर खान अब्दुल गफार खान, जयप्रकाश नारायण, इन्दिरा गांधी और नरेन्द्र मोदी तक की सभाएं हो चुकी हैं।
अलावा इसके शहर में जहां-जहां आमसभाएं होती रही उनमें बड़ा बाजार स्थित दांती बाजार, मोहता चौक, साले की होली, बारह गुवाड़ चौक, आचार्यों का चौक, सुथारों की बड़ी गुवाड़, कोचरों का चौक, रांगड़ी चौक, सुनारों की बड़ी गुवाड़, सिक्का मस्जिद, कसाइयों का मोहल्ला, फड़ बाजार जैसे स्थान आमसभा करने वालों के पसंदीदा रहे हैं। हालांकि पिछले बीसेÓक वर्षों के चुनावी माहौल में इस तरह स्थान बदल-बदल कर होने वाली आम सभाओं में लोगों की रुचि लगभग समाप्त हो गई जिसकी भरपाई राजनीति दल दो-तीन बड़ी रैलियां कर करने लगे हैं। हालांकि इस तरह की रैलियां करना अब बहुत महंगा सौदा हो गया है, पहले तो रैली में शामिल होने वाले को दिहाड़ी देकर किराए के वाहनों में लेकर आओ, उनके खाने के लिए खाने-नाश्ते-पानी की व्यवस्था करो, रैली स्थल पर महंगे टैंट लगाओं, मंचों पर एयर कंडीशनर, श्रोताओं के लिए कूलर, बड़े एलइडी स्क्रीन-बड़े एलइडी टीवी, महंगे साउण्ड सिस्टम, नीचे कालीन, श्रोताओं के बैठने के लिए कुर्सियां, इन सबकी व्यवस्था करने में आयोजकों को पचास लाख से एक करोड़ तक का खर्चा मामूली बात हो गई है। इन सब के बावजूद विडम्बना यही है कि मासूम जनता ने अभी यह समझना शुरू ही नहीं किया है कि तेल तो तिलों में से ही निकलता है।
अब जब रैलियों का चलन हो गया है तो उसमें शामिल श्रोताओं और तमाशबीनों की संख्या के कयास लगाना लाजिमी है। ऐसे में बीकानेर के मुख्य मैदानों के क्षेत्रफल अरबन प्लानर और आर्किटेक्ट अरुंधती सांखला की मदद से निकलवाया है। जो राजनीतिक विश्लेषकों और मीडिया वालों के लिए भीड़ के सटीक अनुमान लगाने में सहायक हो सकते हैं।
बीकानेर  के  मैदान :- मेडिकल कॉलेज ग्राउण्ड : 11,50,000 वर्गफीट; रेलवे स्टेडियम : 2,00,000 वर्गफीट; करणीसिंह स्टेडियम : 2,25,000 वर्गफीट, पैविलियन सहित 3,25,000 वर्गफीट; फोर्ट स्कूल मैदान : 1,00,000 वर्गफीट; सादुल स्कूल मैदान : 70,000 वर्गफीट; छोटा मैदान 17,000 वर्गफीट;  एम.एम. ग्राउण्ड : 1,30,000 वर्गफीट; पुष्करणा स्टेडियम : 1,50,000; डूँगर कॉलेज मैदान: 2,70,000 वर्गफीट;  (आगे का), 1,32,0000 वर्गफीट (पीछे का); सादुल क्लब ग्राउण्ड : 7,70,000 वर्गफीट;  पॉलिटेक्निक कॉलेज ग्राउण्ड :  6,00,000 वर्गफीट (पीछे का), 1,35,000 वर्गफीट (आगे का) 1,40,000 वर्गफीट (भाभा छात्रावास के  पीछे);  धरणीधर मैदान : 3,00,000 वर्गफीट, जूनागढ़ के  सामने की सड़क : 40,000 वर्गफीट। (उल्लेखित सभी क्षेत्रफल लगभग हैं)
नोट : अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार जमीन पर बैठा व्यक्ति 4 वर्गफीट, कुर्सियों पर बैठा व्यक्ति 6 वर्गफीट और खड़ा व्यक्ति 3 वर्गफीट अनुमानित जगह घेरता है।
दीपचन्द सांखला
4 अक्टूबर, 2018

Wednesday, September 26, 2018

कोटगेट क्षेत्र की समस्या : हम बीकानेरी मासूम हैं या विवेकविहीन?


फिर दोहराने में कोई संकोच नहीं कि कोटगेट क्षेत्र की समस्या रेल फाटक नहीं हैं, बल्कि इनके बार-बार बन्द होने से लगने वाले जाम के चलते यातायात की समस्या है। इसी के चलते बीते पचीस से ज्यादा वर्षों से इसके समाधान के लिए सक्रिय तो कई हैं, बावजूद इसके समाधान हासिल नहीं कर पा रहे। रेल सर्वसुलभ राष्ट्रीय परिवहन व्यवस्था है और पटरियों के बिछाने से पूर्व विभाग उस जगह की मिल्कीयत हासिल करता हैऐसे में वह यातायात जैसी समस्याओं पर पटरियां उखाडऩे लगे तो अपनी सेवाएं कैसे दे पाएगा।
यहां फिर जोधपुर का उदाहरण देना उचित लगता है। लगभग यही समस्या उनको भी थी, उन्होंने अपने विवेक से उसे समझा और इन्हीं पचीस वर्षों में शहर के सभी रेलवे क्रॉसिंगों पर अण्डर और ओवरब्रिज बनवा लिए। राजस्थान के सर्वाधिक पिछड़े जिला मुख्यालयों में गिना जाने वाला नागौर है, यहां भी दो रेल क्रॉसिंगों में से एक के लिए इन्हीं बीते वर्षों में ब्रिज बन गया और दूसरे पर निर्माणाधीन है। दूसरा जहां निर्माणाधीन है वहां दोनों तरफ विकसित बाजार है। कमोबेश देश के सभी शहरों-कस्बों में ऐसी समस्याओं के समाधान अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और एलिवेटड रोड हो सकते हैं-होते भी रहे हैं। कहने का मानी यही है कि हम व्यावहारिक समाधान की समझ नहीं रखेंगे तो भुगतेंगे-भुगत ही रहे हैं।
वर्ष 1992 से हम इस कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या को रेल फाटकों की समस्या मान कर इसे बायपास करवा लेने पर अड़े हैं, नतीजतन पचीस से ज्यादा वर्षों से बद से बदतर होती इस समस्या को भुगत रहे हैंकुछ प्रभावशाली तो इसके लिए अब भी अड़े हैंक्या ऐसों को विवेक-विहीन कहना उनकी अवमानना में आएगा? इसे यहां के बाशिन्दों की मासूमियत ही कहेंगे कि भुगतते रहे हैं, लेकिन उठ खड़े नहीं हो रहे, चुप रहते हैं।
बायपास वाले प्रभावी पहले ही कम नहीं फिर, ऐसों का ही एक समूह टनल समाधान पर सक्रिय हो गया है। इन उत्साही नागरिकों ने अपना श्रम-समय और धन कितना जाया किया है, ये वे ही बता सकते हैं। रेलगाड़ी जब अपनी मिल्कीयत की जमीन से गुजरती है तो रास्तों को बन्द कर दिया जाता है, बढ़े यातायात के फाटकों पर रुकने से जाम लगता है-इसलिए समस्या यातायात की है और तद्नुसार समाधान ढूढ़ा जाना चाहिए। ये उत्साही नागरिक इतना ही समझ लेते तो रेलवे ट्रेक को भूमिगत करने का सुझाव देने की बजाय अपना ट्रेक बदल कर अन्य किसी सकारात्मक समाधान पर अपना समय, श्रम, धन और ऊर्जा लगाते, शहर के लिए योगदान कर पाते।
कोई तीन-चार वर्ष पूर्व ऐसे विकल्पों पर बात करने के लिए उत्तर-पश्चिम रेलवे के बीकानेर मण्डल के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य अभियन्ता से मिला था। विस्तार से सभी पक्षों पर बात हुई। जब रेलवे लाइन को एलिवेट करने की संभावना पर बात की तो उन्होंने साफ कहादेखिये यह समस्या रेलवे की नहीं है। स्थानीय प्रशासन और प्रदेश का शासन योजना बनाकर दे और धन उपलब्ध करवाने की बात करे तो रेलवे किसी समाधान पर विचार कर सकता है। तब उन्होंने बताया कि सवारी और मालवाहक गाडिय़ों का यहां जिस तरह का ट्रेफिक है उसमें ट्रेक को न्यूनतम साढ़े चार मीटर ऊपर उठाने के लिए ढलान कम से कम डेढ़ किलोमीटर दूर से चढ़ानी-उतारनी पड़ेगी। (यानी 0.3 प्रतिशत या 1=333.3 के अनुपात से)सांखला फाटक से डेढ़ किलोमीटर में बीकानेर रेलवे स्टेशन और रानी बाजार फाटक हैं, फिर दोनों का क्या करेंगे!
केवल स्टेशन ही शिफ्ट हो तो वर्तमान बीकानेर जं. रेलवे स्टेशन जैसा स्टेशन विकसित करने के लिए लगभग 600 करोड़ रुपये भी राज्य सरकार को देने होंगे। इसी तरह कोटगेट फाटक से लालगढ़ जं. की ओर तब निर्माणाधीन चौखूंटी ओवरब्रिज को भी एक बाधा बताया। रेलवे को अपनी जरूरतों के मद्देनजर किन्हीं ऐसे विकल्पों पर विचार करना ना तकनीकी तौर पर व्यावहारिक लगा और ना आर्थिक तौर पर।
अब हम प्रस्तावित टनल परियोजना के तकनीकी और आर्थिक पक्षों पर बात कर लेते हैं। वह इसलिए कि यह शहर बीते छब्बीस वर्षों से बायपास के अंगूठे को चूस रहा है, उससे बजाय दूध आने के अब खून आने की नौबत आ गई है और शहर टनल परियोजना रूपी दूसरा अंगूठा भी चूसने लगा तो जो थोड़ा बहुत अभी इस समस्या के समाधान के लिए बोलता है, उससे भी जायेगा।
टनल परियोजना के लिए राज्य सरकार यदि तैयार भी हो जाती है तो यह बताया जाना चाहिए कि जब तक इसका निर्माण होता है, पांच से दस वर्षों की उस निर्माण अवधि के दौरान बीकानेरवासी क्या रेलवे की सभी सेवाओं से वंचित रहेंगे-क्योंकि टनल निर्माण का स्थान वर्तमान रेलवे लाइन के समानांतर ही बताया गया है। ऐसे में मेड़ता और रतनगढ़ की ओर की रेल सेवाओं के लिए उदयरामसर और बीकानेर ईस्ट स्टेशनों से और जैसलमेर, सूरतगढ़ की ओर यात्रा करने के लिए लालगढ़ स्टेशन से चढऩा होगा। निमार्णाधीन अवधि में बीकानेर से गुजरने वाली गाडिय़ों के लिए अस्थाई बायपास का प्रावधान भी करना होगा।
सुनते हैं इसके योजनाकारों ने इसमें मात्र 1500 करोड़ का खर्च बताया है। लेकिन रेलवे तकनीकी विशेषज्ञों व बाहरी एजेन्सियों की सलाह के बाद बनने वाली योजना के बाद टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) से निर्माण में ना सही-कट एण्ड कवर निर्माण से प्रभावित होने वाली रेलवे लाइनों के इर्द-गिर्द के भवनों को मुआवजा तथा प्रस्तावित सिक्स लेन सड़क निर्माण के लिए निजी संपत्तियों का अधिग्रहण आदि सहित इस योजना के पूर्ण होने तक का सम्पूर्ण खर्च क्या 15000 करोड़ से कम बैठेगा और यह भी कि इसके निर्माण के लिए रानी बाजार, चौखूंटी और गजनेर रोड ओवरब्रिजों को हटाया जायगा या रखा जायेगा। हो सकता है इन ब्रिजों की फुटिंग टनल निर्माण में बाधा बने।
चूंकि समाधान मात्र समाधान ही होते हैं, पूर्व की सुविधाओं का शत-प्रतिशत विकल्प कभी हो नहीं सकते। ऐसे में जिस योजना से समस्या का सर्वाधिक समाधान मिले और वैसा करवाने को सरकारें भी धन लगाने को तैयार हों, इसलिए उन्हीं पर सक्रिय होना चाहिए अन्यथा हम अपना श्रम-समय और धन क्यों जाया करते हैं। किसी एक शहर की समस्या के समाधान के लिए राज के पास असीमित बजट नहीं होता, उसमें घटत-बढ़त वह एक सीमा तक ही कर सकता है।
यहां के सांसद, विधायकों व अन्य जनप्रतिनिधियों और राज में हिस्सेदारी के दावेदारों से यह उम्मीदें पालना कि वे खुद रुचि दिखाकर शहर के बाशिन्दों के लिए, कुछ करेंगे-फिलहाल जो हैं उनसे लगता नहीं। इनमें से किसी को बीकानेर से लगाव होता तो हाल ही में बनी अद्र्ध उपयोगी एलिवेटेड रोड योजना को न केवल पूर्ण करवाते बल्कि समय पर उसका निर्माण भी शुरू करवा देते। समझ का अभाव, स्वार्थ और हेकड़ी आदि में से कुछ ना कुछ बाधा बन जाते हैं और शहर के मासूम बाशिन्दे भुगतने को नियति मान चुप्पी साध लेते हैं।
दीपचन्द सांखला
27 सितम्बर, 2018

Thursday, September 13, 2018

राजस्थान विधानसभा चुनाव और अमित शाह के दौरे : चन्द्रशेखर की महामंत्राई और वसुंधरा राजे की साख


चुनाव की उडीक आजकल सहमाने लगी है। पहले कुछ ही क्षेत्र ऐसे होते थे जो मतदान केन्द्रों पर कब्जे और मारपीट जैसी वारदातों के लिए बदनाम थे-बाद बाकी तो चुनाव शान्तिपूर्वक निपट जाया करता थे। ऐसी शान्तिपूर्वकता में पिछड़े और दलितों के डरे-सहमे मतदाताओं का योगदान ज्यादा होता है, जो क्षेत्र के दबंगों के कहा करने को तैयार हो लेते हैं।
ईवीएम के आने से मतदान के तौर-तरीके बदले हैं। क्षेत्रीय दबंगई के साथ साम्प्रदायिक और जातीय उन्माद ही अब फन ज्यादा निकालने लगा है। ऐसे में दबे-कुचले समूहों के प्रतिरोध को दबंग कहां बर्दाशत करते? सामूहिक हिंसा होने लगी। इधर जब से वोटों को जातीय झारे से निकाल साम्प्रदायिकता की कड़ाही में पकाये जाने का प्रचलन शुरू हुआ, तब से मामला कुछ ज्यादा ही भयावह होने लगा है।
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बीते मंगलवार को जयपुर में थे। इसी वर्ष नवम्बर के अंत या दिसम्बर के पहले सप्ताह में राजस्थान विधानसभा के चुनाव होने हैं। एक अरसे से चूंकि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ और मिजोरम विधानसभा चुनावों के पांच-छह माह बाद ही लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए यह माना जाता है कि इन विधानसभ चुनावों के परिणाम लोकसभा चुनावों के परिणामों की रंगत को बहुत कुछ जाहिर कर देते हैं। जिन राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव होने हैं उनमें राजस्थान में सत्ताधारी भाजपा की स्थिति सबसे कमजोर मानी जा रही है, इसलिए अमित शाह का फोकस विशेष राजस्थान पर ही है। शायद इसीलिए हाल की अपनी उक्त यात्रा में शाह राजस्थान विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनावों का ट्रेलर बता गये। कहा जा सकता है कि अमित शाह द्वारा ट्रेलर बताने में झंझट क्या है लेकिन जब वे अपने तेवरों में यह कहते हैं कि उत्तरप्रदेश चुनावों से पूर्व अखलाक की हत्या के बावजूद हम वहां चुनाव जीत गये, बुद्धिजीवियों, लेखकों की अवार्ड वापसी के बावजूद हम जीते तो आभास भयभीत करने वाला लाजिमी है। अमित शाह राजस्थान के अपने कार्यकर्ताओं को क्या कह गए हैं इसके मानी ढूंढ़े जाने लगे हैं। गोरक्षा के नाम पर यहां भी हत्याएं हुई हैं। अलवर क्षेत्र में तथाकथित गोरक्षकों द्वारा गो-पालक रकबर की हत्या का मामला हाल ही का है। मान लेते हैं अमित शाह अपनी इस बात से क्या संदेश दे गये वह भी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं। चिन्ताजनक है उत्तरप्रदेश का उदाहरण। उत्तरप्रदेश के गत विधानसभा चुनावों से पूर्व प्रदेश के पश्चिमी हिस्से के गांवों में साम्प्रदायिक हिंसा के कुल सोलह सौ मामले दर्ज हुए हैं, बहुत से हुए भी नहीं होंगे। भारत में साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास यह बताता है कि साम्प्रदायिक दंगों की अधिकांश घटनाएं इससे पहले तक शहरों में ही होती आयी हैं। भारत के गांव इस तरह की असहिष्णुता और हिंसा से अपेक्षाकृत बचे रहे हैं। उत्तरप्रदेश में तब के मुख्यमंत्री के चाचा शिवपाल का वहां का गृहमंत्री होना अखिलेश के लिए बड़ा नुकसानदायक उन दंगों की वजह से भी रहा, जिसमें शिवपाल ना केवल असफल रहे बल्कि ये कहने भी कोई संकोच नहीं कि राजधर्म से उनका कोई लेना-देना नहीं था। इस पूरे वाकिये के दौरान उस क्षेत्र विशेष में भाजपा में संगठन का काम वही चन्द्रशेखर मिश्रा देख रहे थे जो वर्तमान में राजस्थान प्रदेश भाजपा में संगठन महामंत्री हैं। आशंकाएं इसीलिए भी ज्यादा बलवती हो जाती हैं, जब ये सुनते हैं कि राजस्थान पुलिस कुछ माह पूर्व दी अपनी खुफिया रिपोर्ट में सत्ताधारी भाजपा को मात्र 39 सीटों की संभावना जताती है। यदि ऐसा हुआ भी है तो पुलिस अपना अनुमान कुछ ज्यादा ही कम बता रही है, अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष होते भाजपा फिलहाल इतनी कम सीटों में नहीं सिमटेगी, हो सकता है पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में अमित शाह फैक्टर को शामिल न किया हो।
राजस्थान में चाचा शिवपाल जैसे गृहमंत्री भले ही न हों लेकिन जो गुलाबचन्द कटारिया हैं, कानून व्यवस्था को संभालने के मामले में वे शिवपाल से थोड़े ही बेहतर हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की महती जिम्मेदारी बनती है कि वे मुस्तैद इसलिए रहें कि विधानसभा चुनावों से पूर्व राजस्थान के किसी भी हिस्से में पश्चिमी उत्तरप्रदेश को दोहराया ना जाए। पार्टी में वसुंधरा जिन भैरोसिंह की वारिस है, उन्हें उनका स्मरण कर लेना चाहिए अन्यथा दंगों के ये दाग ऐसे होते हैं जो कैसे भी नहीं धुलते है।
वसुंधराजी!
चुनाव तो हर पांच वर्ष में आते हैं, राजस्थान की जैसी तासीर है, जरूरी नहीं कि भाजपा को फिर बहुमत मिले। भाजपा की कमान फिलहाल जैसों के पास है उसमें जरूरी नहीं कि आगामी चुनाव में भाजपा को बहुमत मिलने पर भी आपको मुख्यमंत्री बनाया जाए? ऐसे में आपकी यह जिम्मेदारी ज्यादा हो जाती है कि राजस्थान का अमन चैन बना रहे, आपने जिसे अब तक सहेज रखा है।
दीपचन्द सांखला
13 सितम्बर, 2018

Wednesday, September 5, 2018

राजस्थान गौरव यात्रा : कैसे करें गर्व/ एलिवेटेड रोड और सूरसागर/ रानी ने कहा रात है...यह सुबह-सुबह की बात है


राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे 6 सितम्बर को बीकानेर जिले में होंगी। अवसर होगा प्रदेशभर में चुनाव पूर्व की राजस्थान गौरव यात्रा का। यूं तो प्रत्येक देश-प्रदेश और क्षेत्र विशेष के गर्व करने के अपने-अपने गौरव होते हैं-राजस्थान के भी होंगे। लेकिन उपेक्षित बीकानेर किस पर गर्व करे, ना तो पिछले कांग्रेस राज में बीकानेर के लिए कुछ हुआ, ना ही जिले की 7 में से 4+1 सीटें जीती भाजपा सरकार ने कुछ किया है। देखा जाए तो बीकानेर अपने को ठगा महसूस  ही कर रहा है।
कहने को हवाई यात्रा की सौगात सरकार गिना सकती है। गिनाएगी तो यह आक्षेप लगे बिना नहीं रहेगा कि ये सेवा तो समर्थों के लिए है, जिले की कुल आबादी का हजारवां हिस्सा भी इससे लाभान्वित होने का सामथ्र्य नहीं रखता है। इस राज की ले-देके दूसरी उपलब्धि तकनीकी विश्वविद्यालय की ये गिनवाते हैं लेकिन यह उपलब्धि भी लूली-लंगड़ी। कांगेस की सरकार ने जाते-जाते तकनीकी विश्वविद्यालय की आधी-अधूरी घोषणा की, उसे अमलीजामा वसुंधरा सरकार को पहनाना था, बजाय पहनाने के-जितना पिछली सरकार पहना गई थी, एकबारगी तो उसे ही उतरवा लिया। अब चुनावी वर्ष में वसुंधरा सरकार को लगा होगा कि गौरव यात्रा में बीकानेर जाएंगे तो गर्व करने को कुछ तो हो, सो आनन-फानन में जामे को ढूंढ़ा और पहनाना शुरू कर दिया। लेकिन इस राज पर फिजूलखर्ची की जैसी छाप 'पठान पैसा खाने की है।Ó उससे ये योजना भी कैसे बचती। इंजीनियरिंग कॉलेज, बीकानेर के परिसर में लम्बी-चौड़ी बिल्डिंगें खड़ी हैं लेकिन तकनीकी विश्वविद्यालय के लिए जोड़-बीड़ में जगह आवंटित की गई है। बीकानेरी भाषा में कहें तो ईसीबी कैम्पस में बन्द होने के कगार पर कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी के टंडीरे को क्या खण्डहर होने के लिए छोड़ दिया जायेगा। क्यों नहीं उसी कैम्पस को विश्वविद्यालय के तौर पर विकसित किया जाए। इन वर्षों में जब सरकारें वैसे भी सरकारी संस्थानों को खत्म करने पर तुली हैं, तब योजनाएं इस तरह बननी चाहिए कि जो हैं उन्हें सहेज कर रखा जाए।
'पठान पैसा खाता है' का दूसरा अचूक उदाहरण सूरसागर है-सूरसागर की बात पर गोरख पांडे की एक कविता को साझा करने का मन कर रहा है।
राजा बोला रात है
रानी बोली रात है
मंत्री बोला रात है
संत्री बोला रात है
यह सुबह-सुबह की बात है।
वसुंधरा राजे ने 2008 में शहर को सूरसागर की सड़ांध से मुक्ति दिलवाई-उल्लेखनीय है। 2009 के चुनावों में जिलेभर की जनता ने भी भाजपा को हवा के विपरीत सीटें दीं। लेकिन बाद इसके यह सूरसागर सफेद हाथी ही सिद्ध हो रहा है। इन दस वर्षों में इस पर करोड़ों रुपये लगातार खर्च हो रहे हैं-भू-जल के मामले में डार्कजोन के मुहाने पर खड़े इस क्षेत्र के नलकूपों और नहरी पानी से भरकर उड़ाया जा रहा है-सभी प्रयासों के बावजूद तीस फीट गहरे सूरसागर को इन दस वर्षों में कभी चार-फीट भी भरा नहीं जा सका-कभी नावों पर पैसा बर्बाद किया जाता है तो कभी फव्वारों पर। बरसात में शहर का पानी आ धमकता है, वह अलग। इस पर इतना पैसा लगाने की बजाय तो शहर के बरसाती पानी को डाइवर्ट करने की पुख्ता व्यवस्था की जाती तो ज्यादा उपयोगी होता।
वसुंधराजी!
2014 के जून में 'सरकार आपके द्वार' अभियान के दौरान गजनेर पैलेस में पत्रकारों के साथ अपनी बातचीत का स्मरण करें-अन्य मसलों के अलावा सूरसागर सहेजे रखना भी एक मुद्दा था। सूरसागर को डेजर्ट पार्क के तौर पर विकसित करने के सुझाव पर आपने उत्साहित होकर सहमति जताई बल्कि जाते-जाते डेजर्ट पार्क की आपने घोषणा भी कर दी थी। लेकिन गवर्नमेंटल कम्यूनिकेशन गेप के चलते सूरसागर के पानी की तरह डेजर्ट पार्क की घोषणा भी हवा में उड़ गई। अब भी समय हैअपने मंत्री, न्यास अध्यक्ष महावीर रांका और संत्री जिला कलक्टर को निर्देशित कर सूरसागर के नाम पर जल और धन दोनों की बर्बादी रोककर इसमें डेजर्ट पार्क को विकसित करवाएं। काम तत्काल शुरू होगा तो देर-सबेर सिरे भी चढ़ जाएगा।
रही बात एलिवेटेड रोड की तो आपकी प्राथमिकता में यह काम होता तो इसे प्रशासनिक और तकनीकी महकमों में आप उलझने नहीं देती। 2014-15 में ही इसका शिलान्यास कर शुरू करवा देतीं तो अब तक वह पूर्ण होने को होता। शहर की जनता ना केवल बड़ी राहत महसूस करती बल्कि अगले चुनावों में कम से कम बीकानेर शहर की दोनों सीटें तो आपकी पार्टी को दे ही देती। अब कुछ होता जाता लगता नहीं है-जो योजना बनी है उसमें दो बड़ी खामियां हैं। पहली, एलिवेटेड रोड की चौड़ाई बढ़ाने की जरूरत नहीं थी जिसके चलते प्रभावित व्यापारियों में रोष है और दूसरी इसका राजीव मार्ग का सिरा योजना से हटा देने से शहर के भीतरी लोग इससे लाभान्वित होने में बाधा महसूस करेंगे। इन दोनों खामियों को आसानी से दूर किया जा सकता है। लेकिन धणी-का धणी कौन? धणी ने कह दिया कि रात है तो मंत्री-संत्री भी रात कहने लगे, भले ही वह बात सुबह-सुबह की ही क्यों ना हो।
बाकी तो आप खुद देखें कि 2013 की सुराज संकल्प यात्रा के दौरान जब आप बीकानेर आयीं और इस क्षेत्र से जो-जो वादे किए उनमें से किसी एक को भी आपने पूरा किया क्या? हमारे ध्यान में तो नहीं आ रहा।
उपरोक्त उल्लेखित तीनों वादों के अलावा शहर में सीवर लाइन का नया फेज, केन्द्रीय विश्वविद्यालय और कपिल सरोवर के पुराने वैभव को लौटाने जैसे वादे हाल तक अधर-झूल में हैं। आपके इस इकतरफा गौरव को हम बीकानेरवासी कैसे भी साझा करने की मन:स्थिति में नहीं हैं।
दीपचन्द सांखला
6 सितम्बर, 2018

Thursday, August 23, 2018

स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट-2014 और थड़ी-गाड़ेवालों के हक-हकूक

पिछले सप्ताह मीडिया में फोटो सहित सुर्खियां थीं कि जूनागढ़ के सामने लगने वाले खान-पान के संध्या बाजार के गाड़ों को यातायात पुलिस ने अपने थाने में लाकर खड़ा कर लिया। जैसा कि सुनते आ रहे हैंशहर की सड़कों पर लगने वाले प्रत्येक गाड़े का हफ्ता या मंथली तय है, उसको उगहाने और पहुंचाने वाले भी तय हैं। बावजूद इसके बिना इसका खयाल रखे कि खान-पान की ये वस्तुएं दूसरे दिन खराब हो जाएंगी, दूसरे तरीके से कहें तो इन दिहाडिय़ों की एक दिन की ना केवल मजदूरी मार दी बल्कि सामान का नुकसान जो करवाया वो अलग।

चूंकि इन थड़ी-गाड़े वालों का कोई संगठन नहीं है, इसलिए ये दुगुनी-तिगुनी मार के शिकार हो जाते हैं, वह भी उगाही देने के बावजूद। अन्यथा ठीक इनके समानान्तर ऑटो रिक्शा वालों को देख लें-नाबालिग चलाते हैं, बिना लाइसेंस वाले चलाते हैं, परिवहन विभाग के पूरे कागजों के बिना चलती है, और तो और बिना स्टैण्ड के खड़े रहते हैं और बिना साइड के चलते हैं, चूंकि संगठित हैं। इसलिए पुलिस वालों को भाव नहीं देते और होमगार्ड से आंख दिखाकर बात करते हैं।
थड़ी-गाड़े वालों की दुर्दशा केवल बीकानेर में ही हो ऐसी बात नहीं, कमोबेश पूरे देश में इनकी और हाथरिक्शा वालों की गत यही है। शायद इसीलिए जाते-जाते ही सही संप्रग-2 की मनमोहन सरकार ने इन थड़ी गाड़े वालों के हित में मार्च 2014 में 'द स्ट्रीट वेन्डर्स' (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एण्ड रेगुलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) एक्ट-2014 पारित कर दिया। लेकिन जिन स्थानीय निकायों को इसे लागू करना है वे आज भी उसे अछूत मानती हैं।  मनमोहन सरकार बदनाम भी खूब हुई लेकिन आरटीआई, मनरेगा और स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट जैसे दमित पीडि़त हित के कई कानून वह पास करवा गई। बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो इस 'स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट 2014' को लागू करने की जिम्मेदारी नगर निगम की है। चार वर्ष बीत गये लेकिन सर्वे जैसा प्रथम चरण का कार्य भी उसने पूरा नहीं किया है। वेन्डर्स जोन और नॉन वेन्डर्स जोन इस सर्वे से ही तय होने हैं और निगम को एक 'टाउन वेंडिंग कमेटीÓ भी गठित करनी होती है। जो सर्वे के परिणामों के आधार पर वेंडिंग जोन के अनुसार पहले से ही थड़ी-गाड़ा लगाने वालों के लिए नई-पुरानी जगह तय करेगी। इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें ऐसी जगह भेज दिया जाए कि जहां कोई ग्राहक ही नहीं पहुंचे। ये वेंडिंग जोन उन चौड़ी सड़कों पर भी बन सकते हैं जहां इनके खड़े होकर आजीविका पालने से यातायात में कोई बाधा ना हो। बाकायदा इनका पंजीकरण होगा और निश्चित अवधि में स्थानविशेष का निगम को भुगतान भी करनाइतना ही नहीं, इस एक्ट के अध्याय 2 के सेक्शन 3 के बिन्दु तीन में स्पष्ट लिखा गया है कि बिना सर्वे और बिना सर्टिफिकेट जारी किये जमे-जमाए इन वेन्डर्स को ना तो हटाया जा सकता है और ना ही स्थान बदलने के लिए मजबूर किया जा सकता है। इस तरह यातायात पुलिस की पिछले सप्ताह की कार्रवाई गैरकानूनी कही जा सकती है।
इस एक्ट के अनुसार देखें तो जूनागढ़ के सामने लगने वाला खान-पान का संध्या बाजार वेंडिंग जोन के हिसाब से सही है, ठीक इसी तरह पब्लिक पार्क में भी एक वेंडिंग जोन विकसित किया जा सकता है। जबकि पिछले दिनों सुना यह भी था कि पब्लिक पार्क में लगने वाले ठेले-गाड़ों को निकाल बाहर किया जाएगा। क्यों भाई! कोई धंधा करके कमा रहा है, आपको क्या तकलीफ है? क्या आप चाहते हैं कि ये लोग उजड़ के चेन स्नेचिंग, उठाईगीर, ठगी और चोरी-चकारी करें। स्थानीय निकाय-प्रशासन की जिम्मेदारी तो यह है कि वे खान-पान का काम करने वालों की निगरानी रखें कि वे स्वच्छता और शुद्धता के मानकों पर खरे हैं या नहीं-और अपने ग्राहकों के साथ किसी भी प्रकार की धोखाधड़ी तो नहीं कर रहे हैं।
कुछ चन्द स्थानों का उल्लेख हाल ही में मिली नकारात्मक सुर्खियों के चलते कर दिया। जरूरत निगम क्षेत्र के सभी हिस्सों में रोटी-रोजी कमाने वाले ऐसे थड़ी-गाड़ेवालों की व्यवस्था एक्ट के अनुसार कर उन्हें सम्मान के साथ रोटी-रोजी कमाने में सहयोग करने की है। मीडिया भी इस तरह के मामलों में ना केवल संवेदनहीन दिखाई देता है बल्कि बहुधा अपनी समझ की कमी भी जाहिर करता है। इस तरह के काम-धंधों से आजीविका कमाने वालों को लेकर खबरें लगाते हुवे मीडिया या तो यह कहता है कि ये सौंदर्य में बाधा है। या फिर उन्हें यातायात में बाधा बता कर उखाड़ फेंकने की पैरवी करता है, जबकि होना यह चाहिए कि थड़ी-गाड़े वालों की रोटी-रोजी और सौंदर्य-यातायात के बीच संतुलन रखते हुए उन्हें खबरें लगानी चाहिए।
देश में रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं। सरकारी नौकरियों में लगातार कटौती हो रही है, इन परिस्थितियों में कोई इज्जत के साथ अपना और अपने परिवार का पेट पालना चाहता है-उसके लिए बजाय अनुकूलताएं बनाने के ये शासन-प्रशासन मय पुलिस जब चाहे ना केवल उन्हें हड़काने-बेइज्जत करने की कार्रवाई करते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक नुकसान पहुंचाने से भी बाज नहीं आते।
शहर के प्रथम नागरिक होने के नाते महापौर को इसे अपनी महती जिम्मेदारी मानना चाहिए और इस बात की वे पुख्ता व्यवस्था करें कि स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट-2014 बीकानेर में समयबद्धता के साथ लागू हो। संगठित, समर्थ और दबंगों से संबंधित कामों में कुछ देरी भी हो तो उनके कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन स्ट्रीट वेन्डर्स एक्ट-2014 से लाभान्वित होने वाले लोगों को एक्ट का लाभ प्राथमिकता से मिलना चाहिए, जिसके कि वे हकदार हैं।
दीपचन्द सांखला
23 अगस्त, 2018

Thursday, August 16, 2018

विधानसभा चुनाव, बीकानेर की सात सीटें और कांग्रेस : एक पड़ताल


यह कहने की वैसे तो जरूरत नहीं कि जो बात आज कही जा रही है, वह आज के माहौल और सन्दर्भों के आधार पर ही कही है। इसलिए इसे आज के सन्दर्भ में ही लेना चाहिए। बीकानेर जिले की सात सीटों पर भाजपा के सन्दर्भ से चर्चा कर चुके हैं, इस बार कांग्रेस के सन्दर्भ से कर लेते हैं।
बीकानेर पूर्व से बात शुरू इसलिए करना चाह रहे हैं कि जिले की सात सीटों में यही एक सीट है जो कांग्रेस के लिए इस बार भी ना केवल चुनौतीपूर्ण है बल्कि भाजपा यहां से सिद्धिकुमारी को ही मैदान में उतारती है तो जिले की एकमात्र यही सीट भाजपा की पक्कम-पक्का कही जा सकती है। ऐसा क्यों? उसके कारणों की पूर्व में चर्चा कर चुके हैं। बात अलग तब हो सकती है जब खुद सिद्धिकुमारी टिकट लेने से इनकार कर दे या भाजपा अपने प्रतिकूल ऐसा निर्णय लेने का दुस्साहस कर ले। बीकानेर पूर्व के लिए फिलहाल कांग्रेस के पास ऐसा कोई नाम नहीं जो इन अनुकूल चुनावों में भी सीट निकाल सके। हालांकि पिछला चुनाव हार चुके गोपाल गहलोत क्षेत्र में लगातार सक्रिय हैं लेकिन वे सिद्धिकुमारी के होते सीट निकाल ले जाएंगे, कहना मुश्किल है।
बात श्रीडूँगरगढ़ की करने से पूर्व इसे खोल लेते हैं कि शेष छहों सीटों पर कांग्रेस को अपने पूर्व के उम्मीदवारों को बदलने का विचार कम से कम इस बार तो नहीं करना चाहिएउसके उम्मीदवार चाहे पिछला एक चुनाव हारे हों या दो, इसलिए नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी के न चाहने के बावजूद श्रीडूँगरगढ़ की उम्मीदवारी मंगलाराम को ही दी जानी चाहिए। चूंकि रामेश्वर डूडी नेता प्रतिपक्ष के तमगे के बावजूद नोखा में खुद बीड़ में रहेंगे, ऐसे में अपनी को बचाने के अलावा अन्यत्र कुछ करने की गुंजाइश ही उनके पास नहीं रहेगी, चाहे वो जिले की कांग्रेस राजनीति में प्रतिद्वंद्वी वीरेन्द्र बेनीवाल की लूनकरणसर की सीट हो या मंगलाराम की श्रीडँूगरगढ़। यह सब बताना इसलिए जरूरी है कि हार का झफीड़ खाए जिले के पांचों कांग्रेसी उम्मीदवार अपने-अपने क्षेत्रों में जैसे-तैसे भी लगे रहे हैं।
कांग्रेस के लिए जो दूसरी सीट भारी पड़ सकती है, वह नोखा की है। नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी का जैसा हेकड़ स्वभाव है, उसमें वे आदमी कमाते कम हैं, बिगाड़ते ज्यादा हैं। ऐसे में नोखा में कन्हैयालाल झंवर चाहे निर्दलीय फिर से मैदान में आ जाएं तो वे कांग्रेस-भाजपा दोनों का खेल बिगाडऩे की कूवत तो रखते ही हैं और यदि भाजपा झंवर या झंवर के पुत्र नारायण को उम्मीदवार बनाने में सफल हो जाती है तो जिले की यह दूसरी सीट होगी जहां से भाजपा इस बार के प्रतिकूल माहौल में भी सीट निकाल ले जा सकती है।
कोलायत में भंवरसिंह भाटी ने अपना ठाठा ना केवल ठीक-ठाक जमा लिया है बल्कि देवीसिंह जैसे दिग्गज प्रतिद्वंद्वी होने पर भी जीत का फासला बढ़ा चुके हैं। यही वजह है कि भाटी न केवल चुनाव ना लडऩे की बात करने लगे हैं बल्कि अपने किसी परिजन को चुनाव में उतारने में भी झिझकने लगे हैं। खुद देवीसिंह हों या उनका कोई परिजन, यह दूसरी हार उनके रोब-रुआब में बट्टा ही लगाएगी। ऐसे में कोलायत से भाजपा को अपना हिसाब-किताब बनाए रखना है तो किसी साफ सुथरी छवि वाले गैर राजपूत उम्मीदवार पर दावं लगाना चाहिए, जो कोलायत में भाजपा का भविष्य हो सके।
खाजूवाला में गोविन्द मेघवाल पर दावं लगाना ही कांग्रेस के लिए अनुकूल रहेगा। कांग्रेस किसी दूसरे नाम पर विचार भी करेगी तो गोविन्द मेघवाल जिस तासीर के हैं, उसमें वे मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने से बाज नहीं आएंगे। ऐसे में नुकसान कांग्रेसी उम्मीदवार को ही होगा। नोखा में जैसे कन्हैयालाल झंवर खेल बिगाडऩे-बनाने की क्षमता रखते हैं, ऐसे ही खाजूवाला में नोखा की राजनीति से आए गोविन्द मेघवाल भी ऐसी ही तुनक रखते हैं। अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहना उनकी इस मंशा को जाहिर करता है कि उन्हें चुनाव तो लडऩा ही है।
कन्हैयालाल झंवर और गोविन्द मेघवाल के हठ से तो तुलना नहीं कर सकते लेकिन जिले में एक असल पेशेवर राजनेता मानिकचंद सुराना भी चुनाव लडऩे को संकल्पबद्ध हमेशा रहते हैं, चाहे पार्टी उन्हें टिकट दे या ना दे। सुराना ना केवल अपनी पार्टी बनाकर मैदान में उतर सकते हैं, नहीं तो निर्दलीय उतर कर भी चुनाव जीत कर दिखा सकते हैं। इसीलिए खुद सुराना या उनके पौत्र सिद्धार्थ सुराना मैदान में आ धमकने की स्थिति में लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र की सीट भी ऐसी है जहां का अनुमान चुनावी चौसर बिछने के बाद ही लगाया जा सकता है।
भाजपा यदि सुराना या उनके पौत्र को उम्मीदवार नहीं बनाती है तो हो सकता है सुराना मुकालबे को त्रिकोणीय बना दें, अपने क्षेत्र में सुराना की इतनी पैठ तो है ही। ऐसे में कांग्रेस के लिए वीरेन्द्र बेनीवाल के नाम पर विचार करना मजबूरी हो सकता है। लूनकरणसर में मुकाबला त्रिकोणीय रहे या सीधा, सत्ता में हाने के बावजूद भाजपा की पेठ जाटों में खत्म होने के चलते कांग्रेस के लिए बेनीवाल ही फायदेमन्द हो सकते हैं। हालांकि पिछले एक अरसे से डॉ. राजेन्द्र मूंड क्षेत्र में राजनीतिक बुआई जरूर कर रहे हैं लेकिन माहौल की अनुकूलता उनका साथ कितना देगी, कह नहीं सकते।
फेरी पूरी कर बीकानेर लौट आते हैं और सुर्खियों में रहने वाली बीकानेर पश्चिम की सीट पर बात कर लेते हैं। यहां से दो बार हार चुके कांग्रेस के दिग्गज डॉ. बीडी कल्ला खुद अपने टिकट पर आश्वस्त नहीं हैं। पार्टी अध्यक्ष राहुल क्या फार्मूला लाते हैं, उसकी वे जानें। बीकानेर पश्चिम की सीट निकालने की कूवत अब भी किसी में दिखाई देती है तो वह डॉ. बीडी कल्ला ही हो सकते हैं। हालांकि राजकुमार किराड़ू क्षेत्र में लगातार सक्रिय हैं लेकिन सामने भाजपा ने कोई गंभीर उम्मीदवार उतार दिया तो उससे पार पाना कल्ला के अलावा अन्य किसी के लिए मुश्किल होगा। इसीलिए बीकानेर पश्चिम से यदि कल्ला ही उम्मीदवार होते हैं तो यह सीट भी कांग्रेस के लिए आसान हो सकती है।
दीपचन्द सांखला
16 अगस्त, 2018

Thursday, August 9, 2018

विधानसभा चुनाव, बीकानेर की सात सीटें और भाजपा : एक पड़ताल


राजस्थान में बने अपने प्रतिकूल माहौल के बीच बीती 28 जुलाई को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जब करोड़ों खर्च से आयोजित डिजिफेस्ट के बहाने अपने प्रचार के लिए बीकानेर आयीं तो कई सुर्खियां छोड़ गईं। गुरुडम के बहाने अपनी रहनुमाई को साधने वाले धर्मगुरु हों, चाहे राजनेता या फिर कोई दबंग ही क्यों ना हो, दृश-अदृश मोरपंख की झाडू हाथ में रखता ही है। काले झण्डों से बिदकने से बचने के लिए राजे ने नाल हवाई अड्डे से नागणेचीजी मन्दिर तक के मात्र 18 किलोमीटर के रास्ते के लिए हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल किया। जाहिर है हेलीकॉप्टर को उतारने के लिए मेडिकल कॉलेज मैदान पर आनन-फानन में हेलीपैड भी बनाया गया। जनता के पैसे के दुरुपयोग का उदाहरण तो डिजिफेस्ट का पूरा आयोजन ही था लेकिन फिलहाल उसकी बात छोड़ देते हैं क्योंकि ये नेता सत्ता में आते ही पठान हो जाते हैं और 'पठान पैसा खाता है' वाली कहावत को अच्छे से चरितार्थ करने लगते हैं।
लेकिन जनता जब खुद ही भोली प्रजा बने रहने की फितरत आजादी के 70 वर्षों बाद भी पाले रखे तो शासकों को निरंकुश होने से कौन बरजेगा।
बात मोरपंख की झाडू से चली तो वहीं लौट लेते हैं। सूबे में भाजपा की असल खेवनहार वसुंधरा राजे जब मेडिकल कॉलेज के मैदान में उतरीं तो मानों मोरपंख का झाडू लिए ही उतरी हों। पहले पूर्व देहात अध्यक्ष रामगोपाल सुथार पर हाथ रखा तो फिर किसान मोर्चे के धूड़ाराम डेलू परदोनों के लिए ही भाजपा की टिकट केवल इस बिना पर पक्की मान ली गई। बाद में जब ध्यान आया कि ये तो दोनों ही श्रीडंूगरगढ़ विधानसभा सीट से हैं तो फुसकियां छोडऩे वाले बगलें झांकने लगे।
बात इत्ती से ही आई-गई नहीं होगीसो बात श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र से शुरू करते हैं। दसवें दशक को हासिल वर्तमान विधायक किसनाराम नाई के सामने यदि उनका पोता ही अपनी दावेदारी की सोच ले तो किसनाराम श्लोक बोलते देर नहीं लगाते, इसीलिए अन्य कोई उनकी उम्र का लिहाज कर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को कम से कम नाई के सम्मुख तो दबाये ही रखता है। इतना ही नहीं, खुद उनके रिश्तेदार और सांसद अर्जुनराम मेघवाल के प्रवक्ता अशोक भाटी को मिलती सुर्खियों पर ही किसनाराम भौहें तानते देर नहीं लगाते। पार्टी यदि उम्र का बहाना कर किसनाराम को किनारे ही लगाती है तो उनके स्वभाव का शिकार खुद उनका महत्त्वाकांक्षी पोता ही होगा। संभावित उम्मीदवारों के लिए करवाये गये पार्टी के सर्वे में उसका नाम ही नहीं गया। सर्वे से जो तीन नाम गये बताते हैं उनमें खुद किसनाराम नाई का पहला, दूसरा रामगोपाल सुथार का तो तीसरा तोलाराम जाखड़ का गया बताते हैं। कांग्रेस से लगभग तय उम्मीदवार मंगलाराम जाट समुदाय से हैं। ऐसे में भाजपा इस सीट पर गैर जाट को ही उम्मीदवार बनाती लगती है।
बीकानेर पश्चिम के अस्सी पार के विधायक गोपाल जोशी कभी हां तो कभी ना करते-कहते अब खुलकर ना कहने लगे हैं। ऐसे में उनके पुत्र गोकुल जोशी किसनाराम नाई के पोते की गर्त को हासिल होने से बच गये। कहा जा रहा है कि पार्टी के सर्वे में जो तीन नाम उभर कर आये हैं उनमें खुद गोपाल जोशी के अलावा उनके पुत्र गोकुल जोशी का नाम भी गया है। हालांकि करंट जोशी के पौत्र विजयमोहन ज्यादा दिखा रहे हैं लेकिन सर्वे में वे नहीं आए, यह आश्चर्य है। तीसरा नाम अविनाश जोशी का बताया जा रहा है। मक्खन जोशी के पौत्र और केवल बीकानेर पश्चिम से टिकट हासिल करने के लक्ष्य को लेकर गोटियां बिठाते रहने वाले अविनाश खुद की जमीन पर कितने टिके हैं, नहीं पता लेकिन प्रदेश में शीर्ष के सभी नेता उनके नाम और चेहरे से वाकिफीयत रखते हैं।
बीकानेर पूर्व की गति सबसे न्यारी है। जिले की सात सीटों में मात्र एक सीट जहां से भाजपा की जीत पुख्ता मानी जा रही है, वह बीकानेर पूर्व की है और यह निश्चितता भी वर्तमान विधायक सिद्धिकुमारी का रियासती परिवार से होना मात्र है। जबकि सिद्धिकुमारी जिले के सातों विधायकों में ना केवल सबसे नाकारा हैं बल्कि वह अपने क्षेत्र में कभी रहती भी नहीं हैं। सामन्ती मानसिकता से जनता नहीं निकलेगी और प्रजा बनी रहेगी तो उसकी नियति यही है। हालांकि पार्टी सर्वे में जिन दो अन्य नामों की चर्चा है, उनमें नगर विकास न्यास अध्यक्ष महावीर रांका और पार्टी प्रशिक्षण प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय सह संयोजक सुरेन्द्रसिंह शेखावत का भी है, सिद्धिकुमारी खुद ही पीछे हट जाए तो बात अलग है। लगता तो नहीं है कि लगभग पक्की जीत वाली इस उम्मीदवार को पार्टी हटायेगी। ऐसे में उम्मीदवारी हासिल करने के लिए लगभग सभी तरह की कोशिशों में लगे महावीर रांका को बीकानेर पश्चिम से भाजपा उतार दे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
नोखा से जिन तीन नामों पर विचार होना बताया जा रहा है उनमें 2013 में पार्टी उम्मीदवार रहे और जमानत जब्त करवा चुके सहीराम बिश्नोई के अलावा अच्छी खासी सरकारी नौकरी छोड़कर आए और अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय बिहारीलाल बिश्नोई की दावेदारी काफी वजनी मानी जा रही है। तीसरा नाम कन्हैयालाल जाट का भी है। कांग्रेस से नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की पक्की उम्मीदवारी को देखते हुए भाजपा चाहे तो इसे प्रतिष्ठा की सीट कन्हैयालाल झंवर को पार्टी में लाकर बना सकती है। अस्वस्था के बावजूद झंवर डूडी को जोर कराने का जोम अब भी रखते हैं। पार्टी सूत्र बताते हैं कि भाजपा इस तरह का दावं खेल सकती है।
लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र की बात करें तो किसनाराम नाई और गोपाल जोशी की उम्र के वर्तमान विधायक मानिकचंद सुराना खुद की उम्मीदवारी की संभावना से अस्वस्थता के बावजूद इनकार नहीं करते, इसीलिए भाजपा में ना होते हुए भी जिन तीन नामों की चर्चा है उनमें एक मानिकचन्द सुराना का भी है। हालांकि कहा यह जा रहा है कि सुराना अपने पोते सिद्धार्थ को टिकट दिलवाना चाह रहे हैं। अन्य जो दो नाम गए बताते हैं उनमें 2013 में पार्टी से उम्मीदवार रहे सुमित गोदारा और देहात अध्यक्ष सहीराम दुसाद के हैं। सुमित अपने क्षेत्र में जहां लगातार दस्तक देते रहे वहीं दुसाद के लिए अभी भी देवीसिंह भाटी दु:साध्य बने हुए हैं। भाटी किसी को टिकट दिलवाने का दबदबा अब भले ही ना रखते हों-कटवाने भर का तो रखते ही हैं।
खाजूवाला से जो तीन नाम चर्चा में हैं, उनमें वर्तमान विधायक और संसदीय सचिव डॉ. विश्वनाथ मेघवाल तो हैं ही, जिसे लगभग तय ही माना जा रहा है। लेकिन संभावितों में जिस एक नाम का होना और एक अन्य नाम का नहीं होना, कम अचरज की बात नहीं है। पार्टी में विश्वनाथ के धुर विरोधी सांसद अर्जुनराम मेघवाल के पुत्र रविशेखर का नाम पार्टी सर्वे में ना होना जहां अचरज की बात है तो वहीं डॉ. विश्वनाथ की पत्नी और होमसाइंस कॉलेज की डीन डॉ. विमला डुकवाल का नाम आना डॉ. विश्वनाथ के नाम पर किस संशय की चुगली कर रहा है, नहीं पता लेकिन इस से यह तय हो गया है कि बीकानेर के आगामी लोकसभा के संभावित उम्मीदवारों में
डॉ. विमला डुकवाल का नाम जरूर होगा। एक तीसरा नाम जो खाजूवाला से गयावह भोजराज मेघवाल का है। सरपंच भोजराज का नाम कहीं अर्जुनराम मेघवाल की ओर से तो नहीं चलाया गया है?
कोलायत से अजेय माने जाने वाले देवीसिंह भाटी की 2013 की पराजय ने इस विधानसभा क्षेत्र में बहुत उलटफेर कर दिया है। सुनते हैं, रही सही कसर सरकार द्वारा पुलिस महकमे के कुछ माह पहले करवाए गए उस सर्वे ने पूरी कर दी जिसमें बताया गया कि 2018 में देवीसिंह भाटी और भंवरसिंह भाटी ही आमने-सामने यदि होते हैं तो दोनों के बीच वोटों का फासला बजाय कम होने के बढ़ेगा। शायद इसीलिए हां-ना, हां-ना करते देवीसिंह भाटी ना के लिए किसी पुख्ता बहाने की तलाश में हैं- यह तय है कि इस चुनाव से देवीसिंह भाटी यदि बाहर हो जाते हैं तो राजनीति में उनकी बची-खुची चौधर भी खत्म हो जानी है, दबंगई की धार भी कम होगी, वह अलग। देवीसिंह भाटी के पौत्र कम उम्र के चलते इस चुनाव में अपनी पात्रता नहीं रखते हैं। ऐसे में जो तीन नाम पार्टी सर्वे में आए हैं उनमें खुद देवीसिंह भाटी के अलावा उनकी पुत्रवधू और पूर्व सांसद महेन्द्रसिंह भाटी की पत्नी पूनमकंवर का नाम भी बताया जा रहा है। वहीं तीसरा नाम कोलायत प्रधान जयवीर सिंह भाटी का दिया गया है। भाजपा को इस सीट से अब किसी गैर राजपूत उम्मीदवार पर विचार करना चाहिए क्योंकि कांग्रेस के लगभग तय उम्मीदवारों में विधायक भंवरसिंह भाटी राजपूत समुदाय से हैं। यदि पार्टी गैर राजपूत युवा उम्मीदवार पर दावं खेलेगी तो 2023 तक वह पार्टी के लिए उपलब्धि कारक हो सकता है।
दीपचन्द सांखला
09 अगस्त, 2018