Wednesday, September 26, 2018

कोटगेट क्षेत्र की समस्या : हम बीकानेरी मासूम हैं या विवेकविहीन?


फिर दोहराने में कोई संकोच नहीं कि कोटगेट क्षेत्र की समस्या रेल फाटक नहीं हैं, बल्कि इनके बार-बार बन्द होने से लगने वाले जाम के चलते यातायात की समस्या है। इसी के चलते बीते पचीस से ज्यादा वर्षों से इसके समाधान के लिए सक्रिय तो कई हैं, बावजूद इसके समाधान हासिल नहीं कर पा रहे। रेल सर्वसुलभ राष्ट्रीय परिवहन व्यवस्था है और पटरियों के बिछाने से पूर्व विभाग उस जगह की मिल्कीयत हासिल करता हैऐसे में वह यातायात जैसी समस्याओं पर पटरियां उखाडऩे लगे तो अपनी सेवाएं कैसे दे पाएगा।
यहां फिर जोधपुर का उदाहरण देना उचित लगता है। लगभग यही समस्या उनको भी थी, उन्होंने अपने विवेक से उसे समझा और इन्हीं पचीस वर्षों में शहर के सभी रेलवे क्रॉसिंगों पर अण्डर और ओवरब्रिज बनवा लिए। राजस्थान के सर्वाधिक पिछड़े जिला मुख्यालयों में गिना जाने वाला नागौर है, यहां भी दो रेल क्रॉसिंगों में से एक के लिए इन्हीं बीते वर्षों में ब्रिज बन गया और दूसरे पर निर्माणाधीन है। दूसरा जहां निर्माणाधीन है वहां दोनों तरफ विकसित बाजार है। कमोबेश देश के सभी शहरों-कस्बों में ऐसी समस्याओं के समाधान अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और एलिवेटड रोड हो सकते हैं-होते भी रहे हैं। कहने का मानी यही है कि हम व्यावहारिक समाधान की समझ नहीं रखेंगे तो भुगतेंगे-भुगत ही रहे हैं।
वर्ष 1992 से हम इस कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या को रेल फाटकों की समस्या मान कर इसे बायपास करवा लेने पर अड़े हैं, नतीजतन पचीस से ज्यादा वर्षों से बद से बदतर होती इस समस्या को भुगत रहे हैंकुछ प्रभावशाली तो इसके लिए अब भी अड़े हैंक्या ऐसों को विवेक-विहीन कहना उनकी अवमानना में आएगा? इसे यहां के बाशिन्दों की मासूमियत ही कहेंगे कि भुगतते रहे हैं, लेकिन उठ खड़े नहीं हो रहे, चुप रहते हैं।
बायपास वाले प्रभावी पहले ही कम नहीं फिर, ऐसों का ही एक समूह टनल समाधान पर सक्रिय हो गया है। इन उत्साही नागरिकों ने अपना श्रम-समय और धन कितना जाया किया है, ये वे ही बता सकते हैं। रेलगाड़ी जब अपनी मिल्कीयत की जमीन से गुजरती है तो रास्तों को बन्द कर दिया जाता है, बढ़े यातायात के फाटकों पर रुकने से जाम लगता है-इसलिए समस्या यातायात की है और तद्नुसार समाधान ढूढ़ा जाना चाहिए। ये उत्साही नागरिक इतना ही समझ लेते तो रेलवे ट्रेक को भूमिगत करने का सुझाव देने की बजाय अपना ट्रेक बदल कर अन्य किसी सकारात्मक समाधान पर अपना समय, श्रम, धन और ऊर्जा लगाते, शहर के लिए योगदान कर पाते।
कोई तीन-चार वर्ष पूर्व ऐसे विकल्पों पर बात करने के लिए उत्तर-पश्चिम रेलवे के बीकानेर मण्डल के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य अभियन्ता से मिला था। विस्तार से सभी पक्षों पर बात हुई। जब रेलवे लाइन को एलिवेट करने की संभावना पर बात की तो उन्होंने साफ कहादेखिये यह समस्या रेलवे की नहीं है। स्थानीय प्रशासन और प्रदेश का शासन योजना बनाकर दे और धन उपलब्ध करवाने की बात करे तो रेलवे किसी समाधान पर विचार कर सकता है। तब उन्होंने बताया कि सवारी और मालवाहक गाडिय़ों का यहां जिस तरह का ट्रेफिक है उसमें ट्रेक को न्यूनतम साढ़े चार मीटर ऊपर उठाने के लिए ढलान कम से कम डेढ़ किलोमीटर दूर से चढ़ानी-उतारनी पड़ेगी। (यानी 0.3 प्रतिशत या 1=333.3 के अनुपात से)सांखला फाटक से डेढ़ किलोमीटर में बीकानेर रेलवे स्टेशन और रानी बाजार फाटक हैं, फिर दोनों का क्या करेंगे!
केवल स्टेशन ही शिफ्ट हो तो वर्तमान बीकानेर जं. रेलवे स्टेशन जैसा स्टेशन विकसित करने के लिए लगभग 600 करोड़ रुपये भी राज्य सरकार को देने होंगे। इसी तरह कोटगेट फाटक से लालगढ़ जं. की ओर तब निर्माणाधीन चौखूंटी ओवरब्रिज को भी एक बाधा बताया। रेलवे को अपनी जरूरतों के मद्देनजर किन्हीं ऐसे विकल्पों पर विचार करना ना तकनीकी तौर पर व्यावहारिक लगा और ना आर्थिक तौर पर।
अब हम प्रस्तावित टनल परियोजना के तकनीकी और आर्थिक पक्षों पर बात कर लेते हैं। वह इसलिए कि यह शहर बीते छब्बीस वर्षों से बायपास के अंगूठे को चूस रहा है, उससे बजाय दूध आने के अब खून आने की नौबत आ गई है और शहर टनल परियोजना रूपी दूसरा अंगूठा भी चूसने लगा तो जो थोड़ा बहुत अभी इस समस्या के समाधान के लिए बोलता है, उससे भी जायेगा।
टनल परियोजना के लिए राज्य सरकार यदि तैयार भी हो जाती है तो यह बताया जाना चाहिए कि जब तक इसका निर्माण होता है, पांच से दस वर्षों की उस निर्माण अवधि के दौरान बीकानेरवासी क्या रेलवे की सभी सेवाओं से वंचित रहेंगे-क्योंकि टनल निर्माण का स्थान वर्तमान रेलवे लाइन के समानांतर ही बताया गया है। ऐसे में मेड़ता और रतनगढ़ की ओर की रेल सेवाओं के लिए उदयरामसर और बीकानेर ईस्ट स्टेशनों से और जैसलमेर, सूरतगढ़ की ओर यात्रा करने के लिए लालगढ़ स्टेशन से चढऩा होगा। निमार्णाधीन अवधि में बीकानेर से गुजरने वाली गाडिय़ों के लिए अस्थाई बायपास का प्रावधान भी करना होगा।
सुनते हैं इसके योजनाकारों ने इसमें मात्र 1500 करोड़ का खर्च बताया है। लेकिन रेलवे तकनीकी विशेषज्ञों व बाहरी एजेन्सियों की सलाह के बाद बनने वाली योजना के बाद टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) से निर्माण में ना सही-कट एण्ड कवर निर्माण से प्रभावित होने वाली रेलवे लाइनों के इर्द-गिर्द के भवनों को मुआवजा तथा प्रस्तावित सिक्स लेन सड़क निर्माण के लिए निजी संपत्तियों का अधिग्रहण आदि सहित इस योजना के पूर्ण होने तक का सम्पूर्ण खर्च क्या 15000 करोड़ से कम बैठेगा और यह भी कि इसके निर्माण के लिए रानी बाजार, चौखूंटी और गजनेर रोड ओवरब्रिजों को हटाया जायगा या रखा जायेगा। हो सकता है इन ब्रिजों की फुटिंग टनल निर्माण में बाधा बने।
चूंकि समाधान मात्र समाधान ही होते हैं, पूर्व की सुविधाओं का शत-प्रतिशत विकल्प कभी हो नहीं सकते। ऐसे में जिस योजना से समस्या का सर्वाधिक समाधान मिले और वैसा करवाने को सरकारें भी धन लगाने को तैयार हों, इसलिए उन्हीं पर सक्रिय होना चाहिए अन्यथा हम अपना श्रम-समय और धन क्यों जाया करते हैं। किसी एक शहर की समस्या के समाधान के लिए राज के पास असीमित बजट नहीं होता, उसमें घटत-बढ़त वह एक सीमा तक ही कर सकता है।
यहां के सांसद, विधायकों व अन्य जनप्रतिनिधियों और राज में हिस्सेदारी के दावेदारों से यह उम्मीदें पालना कि वे खुद रुचि दिखाकर शहर के बाशिन्दों के लिए, कुछ करेंगे-फिलहाल जो हैं उनसे लगता नहीं। इनमें से किसी को बीकानेर से लगाव होता तो हाल ही में बनी अद्र्ध उपयोगी एलिवेटेड रोड योजना को न केवल पूर्ण करवाते बल्कि समय पर उसका निर्माण भी शुरू करवा देते। समझ का अभाव, स्वार्थ और हेकड़ी आदि में से कुछ ना कुछ बाधा बन जाते हैं और शहर के मासूम बाशिन्दे भुगतने को नियति मान चुप्पी साध लेते हैं।
दीपचन्द सांखला
27 सितम्बर, 2018

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