चुनाव की उडीक आजकल
सहमाने लगी है। पहले कुछ ही क्षेत्र ऐसे होते थे जो मतदान केन्द्रों पर कब्जे और
मारपीट जैसी वारदातों के लिए बदनाम थे-बाद बाकी तो चुनाव शान्तिपूर्वक निपट जाया
करता थे। ऐसी शान्तिपूर्वकता में पिछड़े और दलितों के डरे-सहमे मतदाताओं का योगदान
ज्यादा होता है, जो क्षेत्र के दबंगों के
कहा करने को तैयार हो लेते हैं।
ईवीएम के आने से मतदान के तौर-तरीके बदले हैं। क्षेत्रीय दबंगई के साथ
साम्प्रदायिक और जातीय उन्माद ही अब फन ज्यादा निकालने लगा है। ऐसे में दबे-कुचले
समूहों के प्रतिरोध को दबंग कहां बर्दाशत करते? सामूहिक हिंसा होने लगी। इधर जब से वोटों को जातीय झारे से
निकाल साम्प्रदायिकता की कड़ाही में पकाये जाने का प्रचलन शुरू हुआ, तब से मामला कुछ ज्यादा ही भयावह होने लगा है।
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बीते मंगलवार को जयपुर में थे। इसी
वर्ष नवम्बर के अंत या दिसम्बर के पहले सप्ताह में राजस्थान विधानसभा के चुनाव
होने हैं। एक अरसे से चूंकि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ और
मिजोरम विधानसभा चुनावों के पांच-छह माह बाद ही लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए यह माना जाता है कि इन विधानसभ चुनावों
के परिणाम लोकसभा चुनावों के परिणामों की रंगत को बहुत कुछ जाहिर कर देते हैं। जिन
राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव होने हैं उनमें राजस्थान में सत्ताधारी भाजपा की
स्थिति सबसे कमजोर मानी जा रही है, इसलिए अमित शाह
का फोकस विशेष राजस्थान पर ही है। शायद इसीलिए हाल की अपनी उक्त यात्रा में शाह
राजस्थान विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनावों का ट्रेलर बता गये। कहा जा सकता है
कि अमित शाह द्वारा ट्रेलर बताने में झंझट क्या है लेकिन जब वे अपने तेवरों में यह
कहते हैं कि उत्तरप्रदेश चुनावों से पूर्व अखलाक की हत्या के बावजूद हम वहां चुनाव
जीत गये, बुद्धिजीवियों, लेखकों की अवार्ड वापसी के बावजूद हम जीते तो
आभास भयभीत करने वाला लाजिमी है। अमित शाह राजस्थान के अपने कार्यकर्ताओं को क्या
कह गए हैं इसके मानी ढूंढ़े जाने लगे हैं। गोरक्षा के नाम पर यहां भी हत्याएं हुई
हैं। अलवर क्षेत्र में तथाकथित गोरक्षकों द्वारा गो-पालक रकबर की हत्या का मामला
हाल ही का है। मान लेते हैं अमित शाह अपनी इस बात से क्या संदेश दे गये वह भी इतना
महत्त्वपूर्ण नहीं। चिन्ताजनक है उत्तरप्रदेश का उदाहरण। उत्तरप्रदेश के गत
विधानसभा चुनावों से पूर्व प्रदेश के पश्चिमी हिस्से के गांवों में साम्प्रदायिक
हिंसा के कुल सोलह सौ मामले दर्ज हुए हैं, बहुत से हुए भी नहीं होंगे। भारत में साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास यह बताता
है कि साम्प्रदायिक दंगों की अधिकांश घटनाएं इससे पहले तक शहरों में ही होती आयी
हैं। भारत के गांव इस तरह की असहिष्णुता और हिंसा से अपेक्षाकृत बचे रहे हैं।
उत्तरप्रदेश में तब के मुख्यमंत्री के चाचा शिवपाल का वहां का गृहमंत्री होना
अखिलेश के लिए बड़ा नुकसानदायक उन दंगों की वजह से भी रहा, जिसमें शिवपाल ना केवल असफल रहे बल्कि ये कहने भी कोई संकोच
नहीं कि राजधर्म से उनका कोई लेना-देना नहीं था। इस पूरे वाकिये के दौरान उस
क्षेत्र विशेष में भाजपा में संगठन का काम वही चन्द्रशेखर मिश्रा देख रहे थे जो
वर्तमान में राजस्थान प्रदेश भाजपा में संगठन महामंत्री हैं। आशंकाएं इसीलिए भी
ज्यादा बलवती हो जाती हैं, जब ये सुनते हैं
कि राजस्थान पुलिस कुछ माह पूर्व दी अपनी खुफिया रिपोर्ट में सत्ताधारी भाजपा को
मात्र 39 सीटों की संभावना जताती
है। यदि ऐसा हुआ भी है तो पुलिस अपना अनुमान कुछ ज्यादा ही कम बता रही है, अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष होते भाजपा
फिलहाल इतनी कम सीटों में नहीं सिमटेगी, हो सकता है पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में अमित शाह फैक्टर को शामिल न किया हो।
राजस्थान में चाचा शिवपाल जैसे गृहमंत्री भले ही न हों लेकिन जो गुलाबचन्द
कटारिया हैं, कानून व्यवस्था
को संभालने के मामले में वे शिवपाल से थोड़े ही बेहतर हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री
वसुंधरा राजे की महती जिम्मेदारी बनती है कि वे मुस्तैद इसलिए रहें कि विधानसभा
चुनावों से पूर्व राजस्थान के किसी भी हिस्से में पश्चिमी उत्तरप्रदेश को दोहराया
ना जाए। पार्टी में वसुंधरा जिन भैरोसिंह की वारिस है, उन्हें उनका स्मरण कर लेना चाहिए अन्यथा दंगों के ये दाग
ऐसे होते हैं जो कैसे भी नहीं धुलते है।
वसुंधराजी!
चुनाव तो हर पांच वर्ष में आते हैं, राजस्थान की जैसी तासीर है, जरूरी नहीं कि
भाजपा को फिर बहुमत मिले। भाजपा की कमान फिलहाल जैसों के पास है उसमें जरूरी नहीं
कि आगामी चुनाव में भाजपा को बहुमत मिलने पर भी आपको मुख्यमंत्री बनाया जाए?
ऐसे में आपकी यह जिम्मेदारी ज्यादा हो जाती है
कि राजस्थान का अमन चैन बना रहे, आपने जिसे अब तक
सहेज रखा है।
—दीपचन्द सांखला
13 सितम्बर, 2018
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