Thursday, November 7, 2019

नगर निगम चुनावों के बहाने स्थानीय दिग्गजों और राजनीति की पड़ताल

प्रदेश में राजधानी जयपुर, जोधपुर व कोटा को छोड़ स्थानीय निकायों के चुनाव इसी माह हैं। बीकानेर में भी हैं। चुनाव पूर्व माहौल जो कांग्रेस के पक्ष में लग रहा था, वह देवीसिंह भाटी के ताल ठोकने के बावजूद और टिकटों के वितरण के बाद से भाजपा के पक्ष में जाता लग रहा है।
क्षेत्रीय राजनीति के चार दिग्गजों में दो भाजपा से तो दो कांग्रेस के गिने जाते रहे हैं। एक कांग्रेसी दिग्गज रामेश्वर डूडी रूठ कर रणछोड़दास हो लिए तो भाजपाई दिग्गज रहे देवीसिंह भाटी ने अपने को रिटायर्ड मानने का मन अभी नहीं बनाया है, जबकि जनता ने 2013 में ही उन्हें विदाई दे दी थी। अन्य बचे दिग्गजों में एक कांग्रेसी डॉ. बीडी कल्ला हैं, स्वामी भक्ति के चलते अशोक गहलोत के 'पट्टों में' अभी सिरमौर हैं लेकिन राजनीति करने का इनका तौर-तरीका वही चार दशक पुराना है। डॉ. कल्ला के लिए वही कांग्रेसी है जो बजाय पार्टी के उनमें निष्ठा रखता हो। भाजपाई दिग्गज और अब तो क्षेत्र में एकमात्र भी कह सकते हैंसांसद और केन्द्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवालअपनी राजनीति को ब्यूरोक्रैटिक हेकड़ी और परम्परागत सामाजिक हैसियतनुसार ठकुरसुहाती की जुगलबंदी से साधते हैं। सफल होते-होते ना केवल दिग्गज हो लिए बल्कि क्षेत्र के दूसरे दिग्गज देवीसिंह भाटी को पार्टी राजनीति से बाहर होने को मजबूर कर दिया।
दोनों पार्टियों के इन चारों ही दिग्गजों की राजनीति करने के तौर-तरीकों की गर पड़ताल करें तो साफ झलकता है कि इनके सलाहकार कोई खास होशियार नहीं हैं। इन दिग्गजों को जो कुछ भी हासिल होता रहा, वह खुद की वजह से कम और परिस्थितिजन्य अनुकूल मौकों से ज्यादा हासिल हुआ है।
देवीसिंह भाटी ने 1980 से 2008 तक कोलायत से लगातार सात चुनाव जीते। वह इसलिए भी कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई खास सामने नहीं था, ना कि अपनी या सलाहकारों की कूव्वत से। ज्यों ही 2013 में सलीके की चुनौती देने वाला सामने आया उस चुनाव में वे धड़ाम हो गये, जबकि भाजपा की उस बम्पर लहर में हर कोई जीत गया था। भाटी को अपनी पारी समाप्ति की घोषणा उस हार के साथ ही कर देनी थी, शायद ऐसा ही वे चाहते भी थे, तभी नीम-हकीमी में लग गये। लेकिन लगता है सलाहकार और तथाकथित नजदीकी नहीं चाहते होंगे कि ऐसा हो, क्योंकि अब तक उनके स्वार्थों की पूर्ति जिस नाम से होती रही, उसकी 'कली' वे बनाये रखना चाहते होंगे। लेकिन भाटी के हाल ही के हर फैसले के बाद उनकी 'कली' उतरती गयी, फिर वह चाहे 2018 का चुनाव हो, भाजपा छोडऩे का निर्णय हो या लोकसभा चुनाव में रही उनकी नकारात्मक सक्रियता। देवीसिंह भाटी को ठिठककर सोचना चाहिए थाये जो उनके शुभचिंतक उन्हें घेरे रहते हैं, वे अपने हितों के लिए उनकी साख तो कहीं दावं पर नहीं लगा रहे हैं, ठिठक कर सोचते तो सामाजिक न्याय मंच को पुनरुज्जीवित कर नगर निगम के चुनावों में कूदने की मंशा नहीं बनाते। नहीं लगता कि इन चुनावों में वे कुछ खास हासिल कर पाएंगे। हां, वे भाजपा का खेल बिगाड़ जरूर सकते हैं। लेकिन कांग्रेस और भाजपा ने जिस तरह से टिकटों का बंटवारा किया है उससे लगता है कि वे इस चुनाव में भाजपा का कुछ खास नहीं बिगाड़ सकेंगे बावजूद इसके कि मोदी और शाह का जादू लगातार कम हो रहा है। बीकानेर में बोर्ड जैसे-तैसे भी यदि भाजपा का बनता है तो उसका श्रेय केवल और केवल भाटी की रड़कन रहे अर्जुनराम मेघवाल को ही जायेगा।
जैसा कि ऊपर जिक्र किया, पिछले लोकसभा चुनाव के बाद मोदी और शाह का जादू लगातार कम हो रहा है। लेकिन ना कांग्रेसी हाइकमान और ना ही सूबाई नेतृत्व इसका लाभ उठाने की कोई कोशिश में हैं। दोनों जगह असमंजस की स्थिति है, तभी स्थानीय संगठनों को दरकिनार कर विधायकों और विधानसभा चुनाव के हारे नेताओं को इन स्थानीय निकायों के चुनावी निर्णयों के सभी अधिकार देने जैसा प्रतिकूल निर्णय हुआ है। बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो टिकट बंटवारे का और चुनाव संचालन का अधिकार बीकानेर पूर्व से चुनाव हारे कन्हैयालाल झंवर और पश्चिम से विधायक और मंत्री डॉ. बीडी कल्ला को दिये गये हैं। सुनते हैं झंवर ने कोई खास रुचि नहीं ली। इस तरह सब कुछ तय कल्ला परिवार ने ही किया है, उस कल्ला परिवार ने, जिसे पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं से ऊपर हमेशा अपना कार्यकर्ता ही प्रिय लगता रहा है। उम्मीदवारों की सूची और विद्रोह को देखें तो यह सब साफ लगता है। जबकि पार्टी जिस दौर से गुजर रही है और विपरीत परिस्थितियों में भी पार्टी के लिए जो कार्यकर्ता जूझते रहे हैं, तवज्जुह उन्हें मिलनी चाहिए थी ना कि परिवारविशेष के निजी लोगों को।
खैर, टिकट बंटवारे को लेकर कुछ असंतोष भाजपा में भी है। लेकिन फिर भी यहां जिन्हें टिकट दिया गया, उससे लगता है कि अधिकांश सक्रिय कार्यकर्ताओं को संतुष्ट किया गया।
हमें इसे नजर अन्दाज नहीं करना चाहिए कि इन चुनावों से पूर्व सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या पर निर्णय आने वाला है। यह ऐसा निर्णय है जो संघ के पक्ष में जाए तब भी संघ-भाजपा को लाभ होगा और विरोध में जाए तब भी। पक्ष में गया तो हिन्दुत्वी ऐजेन्डे का या कहें बहुसंख्यकों का तुष्टीकरण होगा और विपरीत में गया तो बहुसंख्यकों का धुव्रीकरण, यानी संघ के दोनों हाथों में लड्डू हैं। तब पूरे विपक्ष के लिए ठगा सा खड़े रहने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसी परिस्थिति के लिए विपक्ष खुद भी जिम्मेदार कम नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
07 नवम्बर, 2019

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