Friday, September 4, 2015

आरएसएस की दिल्ली बैठक

भारतीय जनता पार्टी नीत केन्द्र की राजग सरकार को हड़काने के वास्ते भाजपा की पितृसंस्था के सर्वेसर्वा पिछले दो दिन से दिल्ली में बैठक कर रहे हैं। कहा जा रहा है मंत्रिमंडल के वरिष्ठ भाजपाई सदस्यों को तलब करके उनके कान ऐंठ रहे हैं। हो सकता है आज अन्तिम दिन बैठक में प्रधानमंत्री मोदी भी पेश हों। संघ का अपना ऐजेंडा है और वह उस ऐजेंडे के प्रति इतना आग्रही रहा है कि उसके सामने देश की आजादी जैसा सर्वोच्च मुद्दा भी गौण रहा। पिछली सदी के तीसरे दशक में जब देश में आजादी का आन्दोलन परवान चढ़ रहा था, लगभग तभी गैर लोकतांत्रिक ढांचे के साथ संघ की नींव डाली गई। संघ संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार ने तो फरमान ही जारी कर दिया था कि संघ के स्वयंसेवकों को आजादी के आंदोलन में अपनी ऊर्जा जाया नहीं करनी हैतब से लेकर अब तक लगभग नब्बे वर्षों से संघ जीवनोपयोगी प्रत्येक क्षेत्र के तौर तरीकों, परिभाषाओं और यहां तक कि घटित हो चुके के इतिहास तक को भी अपनी मानसिकता से व्याख्यायित करता रहा है।
संघ उच्चवर्गीय मानसिकता का केवल पोषक रहा बल्कि समाज और शासन दोनों को ही मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्यों से चलाने के बजाय रूढ़ उच्चवर्गीय मानसिकता से हांकने की पैरवी करता रहा है, ऐसा आज भी है। संघ के अनुषंगी संगठनों में भाजपा को छोड़ दें तो उसके कार्यपालकों के चयन में किसी तरह की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मान नहीं दिया जाता। भाजपा ने भी लगभग दिखावी लोकतांत्रिक व्यवस्था इसलिए बना रखी है क्योंकि इस लोकतांत्रिक देश के शासन में इसके बिना हिस्सेदारी हासिल नहीं की जा सकती।
प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस से ही बढ़कर जिस तरह देश के मतदाताओं को भ्रमित किया और पूर्ण बहुमत से शासन पर काबिज हुए हैं, यह लोकतांत्रिक मूल्यों की उस गिरावट का ही अनुशरण है जिसमें कांग्रेस और अन्य पार्टियां जब-तब अपनी अनुकूलताओं की गुंजाइश बनाती आयी हैं। नेहरू-गांधी परिवार अपनी पार्टी की सत्ता होते हुए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् के नाम पर जिस तरह अतिरिक्त संवैधानिक हैसियत पाए रहता है कुछ उसी तरह की हैसियत भाजपा शासन में संघ भी रखता आया है। लेकिन इन दोनों हैसियतों में बड़ा अन्तर यह है कि नेहरू-गांधी परिवार लोकतांत्रिक तौर तरीकों को खारिज नहीं करता, जबकि संघ का कभी भी किन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रहा और ही कभी इसने किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाया है। इसीलिए राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा इस बैठक को संवैधानिक हस्तक्षेप कहा जाने लगा है। इसे सही संकेत नहीं माना जा सकता।
उम्मीद की जानी चाहिए कि वर्तमान सत्तासीनों में इतना 'राम' तो रहेगा कि वे जिस संवैधानिक प्रक्रिया के तहत चुनकर आए हैं, उसके मूल्यों पर आंच नहीं आने देंगे। जनता से किए जिन वादों पर वे चुनकर आए हैं, डेढ़ वर्ष बाद ही सही उन्हें अब पूरा करने को अग्रसर होंगे। इन वादों और मूलभूत संवैधानिक भावनाओं को नजरअंदाज कर केन्द्र सरकार यदि संघ के उच्चवर्गीय, लिंगभेदीय, अलोकतांत्रिक और सांप्रदायिक ऐजेन्डों के लिए अनुकूलता बनाती है तो यह इस लोकतांत्रिक देश की जनता के साथ धोखा होगा। यद्यपि वैश्वीकरण के इस दौर में जब पूरी दुनिया खुले दिमाग से विचारने की ओर लगातार आग्रही होती जा रही है तब संघ की ऐसी रूढ़ अवधारणाओं पर विश्वव्यापी टोका-टोकी की पूरी संभावनाएं हैं। संघ चाहे इसे नजरअंदाज करे, संवैधानिक आधार पर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार के लिए इसे नजरअंदाज करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा। उम्मीद यह भी है कि इस तरह का एहसास अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष उसी तरह दिलाते रहेंगे जिस तरह हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता पर प्रधानमंत्री मोदी को चेताया था। ऐसे में देखने वाली बात यही होगी कि मोदी मध्य एशियाई देशों की तरह देश को मसोसे जाने देंगेे या संघ और शेष लोकतांत्रिक दुनिया के बीच संतुलन बनाने में लगे रहेंगे। इस तरह संतुलन बनाए रखने में देश के जरूरी कार्यकलापों को करने में बाधाएं झेलते रहेंगे। ऐस में भुगतना देश को ही होगा क्योंकि संघ अपने स्वभाव में बदलाव लाएगा नहीं और लाता है तो फिर वह संघ रहेगा कैसे। ऐसे संगठनों की ऐसी ही सीमाएं होती हैं क्योंकि इनका अस्तित्व किसी समतल पर नहीं नोक पर ही टिका होता है।
4 सितम्बर, 2015

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