Thursday, September 3, 2015

श्रमिकों की देशव्यापी हड़ताल के बहाने

कल हुई श्रमिक हड़ताल के लिए कहा जा रहा है कि इसमें पन्द्रह करोड़ कर्मी शामिल थे। हालांकि भाजपा की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुषंगी भारतीय मजदूर संघ जैसे कुछ संगठन कल की इस हड़ताल से दूर रहे। इस तरह की हड़तालें और सत्ताधारियों से संबंधित संगठनों की इनसे दूरी आदि-आदि में कुछ नया नहीं है। श्रमिक संगठनों की अपनी मांगों में न्यूनतम मजदूरी पन्द्रह हजार रुपये करने जैसी मांगों के चलते निजी क्षेत्र के कुछ श्रमिक भी इसमें शामिल हुए बावजूद इसके सवा अरब के इस देश में पन्द्रह करोड़ कर्मचारी कल की इस हड़ताल में शामिल थे, बात गले नहीं उतरती। नयी औद्योगिक नीति के बाद सरकारों ने जो श्रम कानूनों में शिथिलताएं दी उसके बाद से कार्मिकों का हर तरह का शोषण बढ़ा है। प्रधानमंत्री मोदी जिस गुजरात मॉडल के भ्रम के साथ देश पर काबिज हुए हैं, उसी गुजरात में श्रमिक नीतियों की धज्जियां सबसे ज्यादा उड़ाई जाती है। इस सबके चलते हो यह रहा है कि निजी क्षेत्र के श्रमिक लगातार शोषित होने के लिए मजबूर होते जा रहे हैं। उन क्षेत्रों का हाल और भी बुरा है जहां श्रमिक आसानी से मिल जाते हैं। ऐसे में वेतन और सुविधाओं के मोल-भाव की गुंजाइश लगभग खत्म हो गई। दूसरी ओर सीमित होती सरकारी नौकरियों में तनख्वाहें सरकारें केवल इसलिए बढ़ाती चली जा रही है ताकि बाजार रोशन रहें। इसके चलते सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के मुकाबले निजी क्षेत्र की नौकरियों के वेतन-भत्तों और सुविधाओं में जमीन-आसमान का अन्तर गया। इस जमीनी हकीकत के मद्देनजर सार्वजनिक क्षेत्र सरकारी कार्मिकों के मुद्दे निजी क्षेत्र के कार्मिकों के समान हो सकते हैं, ये भ्रमित करने वाला है। इससे बड़ा भ्रम नहीं है।
टे्रड यूनियनें और कर्मचारी-अधिकारी संगठन अवाम में अपनी साख लगातार इसलिए खो रहे हैं क्योंकि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अच्छे वेतन और सुविधाओं के बावजूद भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता लगातार बढ़ रही है। तीस-चालीस वर्ष पूर्व जब श्रमिक हड़तालें होती थी तो जनता की सहानुभूति उनके साथ होती थी। लेकिन अब अवाम को लगता है कि ये सफेद हाथी बने उपक्रम कर्मी और सरकारी कर्मचारी हड़ताल करके रोजमर्रा के उनके कार्यकलापों में बाधा ही बनते हैं। मीडिया भी ऐसी हड़तालों की छवि खराब करने में कम सहायक नहीं है। इस तरह की हड़तालों की सुर्खियां वे आर्थिक नुकसान का हवाला देकर श्रमिक संघों को अर्थव्यवस्था के खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने में लगे हैं। कल की हड़ताल के नुकसान का तलपट पचीस हजार करोड़ का दिया गया है, हो सकता है श्रमिक संघ खुद ही नियोजकों को ये बताना चाहते हों कि देख लो हमने एक ही दिन में तुम्हारा कितना नुकसान कर दिया है। वैसे आधुनिक अर्थव्यवस्था के ऐसे सभी आंकड़े आम आदमी के लिए उतने ही रंजक होते होंगे जितने एकता कपूर के सीरियलों के ऐसे सैकड़ों-हजारों करोड़ के उल्लेख होते हैं। लेकिन जो लोग जागरूक दीखने की घसकाई लगाते हैं उन पर ऐसे आंकड़ों का असर जरूर नकारात्मक होता होगा।
जैसा कि 'विनायक' पहले भी लिखता रहा है कि इन श्रमिक संघों और टे्रड यूनियनों को अपनी बची-खुची साख को बचाने के लिए इस पर भी बातचीत शुरू करनी ही चाहिए कि श्रमिकों और कार्मिकों को देश और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन निष्ठा, ईमानदारी के साथ करना चाहिए। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे समय पर दफ्तर में मिलें, आगन्तुकों के साथ सम्मानजनक सही, कम से कम अपमानजनक व्यवहार तो ना करें, बिना वजह किसी को चक्कर कटाएं, रिश्वत मांगें। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को नष्ट करने में सरकारों की आर्थिक नीतियां जितनी जिम्मेदार हैं उससे कम जिम्मेदार इन उपक्रमों की भ्रष्ट कार्यप्रणाली नहीं है। श्रमिक, कर्मचारी ओर अधिकारी ड्यूटीफुल रहते तो ऐसे उपक्रमों को बन्द करने और इनका विनिवेश करने का साहस सरकारें शायद ही कर पाती। केवल और केवल अधिकारों की बात करना और कर्तव्यों की और झांकना भी नहीं, इसी के चलते देश में रोजगार के इन सम्मानजनक अवसरों में केवल कमी की जा रही है बल्कि खत्म ही होते जा रहे हैं। ये सरकारें यह तय कर चुकी हैं कि देश को केवल इन ब्यूरोक्रैट्स के माध्यम से ही हांक लेंगे।

3 सितम्बर, 2015

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