Thursday, September 17, 2015

भ्रष्टाचार की पड़ताल

नगर परिषद, बीकानेर में 1980 में एक प्रशासक लगे थे, फूलशंकर शर्मा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शर्मा रिश्ते में पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी के दामाद होते थे, जिन्हें इस पोस्टिंग के नौ महीनों बाद ही सेवानिवृत्त होना था। सरकारी सेवाओं का सामान्य कायदा है कि सेवानिवृत्ति के समय होमटाउन या आस-पास या सम्बन्धित की सुविधा की पोस्टिंग दी जाती है, इस सब को ताक पर रखकर तब राज्यपाल के शासनकाल में उन्हें बीकानेर भेज दिया गया। केन्द्र में जनताराज के बाद कांग्रेस लौट चुकी थी लेकिन राज्यपाल जनताराज के रघुकुल तिलक ही थे।
फूलशंकर शर्मा को आज इसलिए याद किया कि सूबे के एक प्रमुख सचिव अशोक सिंघवी घूस के एक मामले में कल गिरफ्तार हुए हैं। वैसे तो उच्च अधिकारियों की भ्रष्टाचार की गाथाएं आए दिन सुनते हैं और यह भी मानते हैं कि भ्रष्टाचार करना शासक-प्रशासकों का अभयदानी विशेषाधिकार-सा हो गया है। इन वर्षों में अजमेर और कोटा के पुलिस अधीक्षक ऐसे ही आरोपों में धरे गये हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा के मोहन्ती दुष्कर्म के मामले में फरार जरूर हैं लेकिन भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते अधिकांश उच्च अधिकारी निर्भय हैं। ऐसे में उच्चवर्गीय और समर्थ अशोक सिंघवी का धरा जाना कम अचम्भे की बात नहीं है।
बात फूलशंकर शर्मा की बताते हुए आगे चलते हैं। नगर परिषद, बीकानेर में ऐसे तो ईमानदार अफसर और भी आए होंगे लेकिन इस स्थानीय निकाय के कर्मचारी बताते हैं कि शर्मा जैसा ईमानदार अधिकारी आज तक तो नहीं आया, आगे भी आएगा, कह नहीं सकते। कहते हैं वे दफ्तर का पेन भी दफ्तर में ही छोड़कर जाते थे। घरेलू सामान मंगवाना तो दूर की बात, घर में या किसी तरह का व्यक्तिगत काम करवाने के लिए किसी सरकारी कर्मचारी को कहते तक नहीं थे। इस भ्रष्टतम माने जाने वाले दफ्तर का ढंगढाला उनके कार्यकाल में काफी कुछ अपने आप सुधर गयाबिना किसी प्रशासनिक चेतावनी या नोटिस के। फूलशंकर शर्मा सेवानिवृत्त होकर जब अपने मुकाम को लौट रहे थे तब नगर परिषद के अधिकांश कर्मचारी-अधिकारी रेलवे स्टेशन पर थे। बैंडबाजे के साथ जब रेलगाड़ी को रवाना किया गया तो शायद ही ऐसा कोई सम्बन्धित-जन वहां रहा होगा जिसकी आंखें नम नहीं हुई हो। नगर परिषद/निगम में इससे पूर्व और बाद में भी ऐसी कोई विदाई नहीं हुई। कहने को कह सकते हैं इस महकमे में अधिकांशजन भ्रष्ट हैं लेकिन ऐसों के अंतरतम में भी ईमानदारी और कार्यनिष्ठा के प्रति सम्मान कहीं पैठा हुआ था जिसे फूलशंकर शर्मा ने मुखर भर किया।
इसके मानी यह कतई नहीं कि फूलशंकर शर्मा जैसे अधिकारी और नहीं हुए हैंहोते ही होंगे लेकिन वैसी निर्मल छाप किसी ने नहीं छोड़ी।
भ्रष्टाचार को धन के लेन-देन तक सीमित मान लेना भी भ्रष्ट मन की अभिव्यक्ति ही है। कई अधिकारी इस तरह ईमानदार तो कहलाते हैं लेकिन 'काइंड' के उपभोग से परहेज नहीं करते। गिफ्ट लेना, सरकारी सुविधाओं को निज कामों में उपयोग लेना, अपने परिजनों और परिचितों को कृतार्थ करवाना, घूमने-फिरने ठहरने की व्यवस्थाओं का उपभोग करना आदि-आदि। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि बाकी कोई दाग नहीं भी है लेकिन व्यभिचार की लत का अपने प्रभावी पद से पोषण करना भ्रष्टाचार में ही माना जायेगा।
शासन या प्रशासन द्वारा यह सब करते हुए भी आम प्रतिष्ठा में अब कोई खास आंच नहीं आती, इसे सामाजिक स्वीकार्यता में माना जाने लगा है। लेकिन ऐसे प्रतिष्ठ नेताओं या उच्च अधिकारियों का धरे जाना धीरे-धीरे कहीं कानून व्यवस्था को चुनौती इसलिए बनने लगे कि भ्रष्टाचार की सामाजिक प्रतिष्ठा तो अब है ही।
अलावा इसके उच्च प्रशासनिक सेवाओं में जो वर्गीय द्वेष पनपने लगा है वह भविष्य की शासन-प्रशासन व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। जातीय वर्ग के आधार पर दूसरे को फंसाना या अपने फंसे हुए को एड़ी-चोटी का जोर लगाकर निकलवाने की बातें सुनी जाने लगी हैं। प्रमाण रूप में देखें तो अधिकांश उच्चाधिकारी लम्बी जांच या न्यायिक प्रक्रिया के बाद या तो बच जाते हैं या आरोपों की पुष्टि इतनी हलकी होती है कि दण्ड देने जैसा कुछ बचता ही नहीं।
इस सब में शासकों या कहें राजनेताओं की बात करना उन्हें बरी करना होगा जबकि असल जड़ वही हैं। उन्हें नियमित उगाही चाहिए होती है, खोटे-खरे करवाने होते हैं। ये सब इन उच्च अधिकारियों की हिस्सा-पांती या एवजी खोटे खरे करने की छूट से संभव होता है। भ्रष्ट ऐसे कम ही होते हैं जो अकेले जीमते होंनालों-नदियों से होता हुआ यह भ्रष्टाचारी-पानी इन नेता रूपी समुद्रों तक पहुंचता ही है।

17 सितम्बर, 2015

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