Thursday, September 24, 2015

रसहीन होता सृजनात्मक माहौल

प्रदेश के और कौन-कौन से शहर और कस्बे वाले अपनी बसावट को छोटी काशी कह कर संतुष्ट हो लेते हैं। जोधाणा की तर्ज पर बीकानेर को बीकाणा कहकर प्रफुलित होने वाले भी हैं, जबकि शहर का नाम उसकी स्थापना से ही बीकानेर है। तखल्लुस का चलन उर्दू शायरों में आम है, गजल के मकते में अपनी पहचान देने के लिए इसकी जरूरत मान ली गई है। शहरों के भी अपने उपनाम प्रचलन में आ गये हैं लेकिन उनका उपयोग रच-बसने के बाद ही होने लगाजैसे गुलाबीनगरी, सूर्यनगरी, स्वर्णनगरी आदि-आदि।
चर्चा का मुद्दा यह है भी नहीं। चर्चा तो औसतन हर दूसरे दिन बीकानेर में होने वाले साहित्यिक आयोजनों की करनी है। इससे इनकार नहीं कि पिछली सदी के छठे-सातवें और आठवें दशक की साहित्यिक-वैचारिक सभा-गोष्ठियों की परम्परा आज की तरह संख्याबल से भले ही याद न की जाती हों, तब यहां विकसित हुए लेखन-पठन के माहौल की खुशबू देशपर्यन्त थी, और है।
अब रोज-हमेस के साहित्यिक आयोजनों का कुल जमा हासिल इतना ही देखने में आता है कि इनमें या तो वे दीखते हैं जो अपने को लेखक मान चुके हैं या लेखक मनवाने को पंक्तिबद्ध हैं, अलावा इसके कार्यक्रमों में कोई आते भी हैं तो मकसद उनका साहित्यिक रुचि तो हरगिज नहीं होता। किसी अन्य-कार्य-व्यापार वालों में ऐसे आयोजनों से अपवादस्वरूप कुछ जागता है भी तो पाठक नहीं लेखक ही जाग पड़ता है। इतने सब के बावजूद शहर में पाठक नाम के जीव लुप्तप्राय हो गये हैं तो विचारना जरूरी है कि ये आयोजन केवल लेखक ही क्यों सृजित कर रहें हैं। यह बात अलग है कि इन लेखकों के भीतर ही पाठकवृत्ति कुछ विकसित जरूर हो लेती है।
हाल ही में 'कथारंगपर आयोजित कार्यक्रम पर साख और सीख के हवाले से बात करें तो पचहत्तर कहानियों के इस संग्रह के एक-चौथाई कहानीकार भी इस महती गोष्ठी में शामिल नहीं हुए। कहानी के पाठकों की शिरकत की बात ही क्या करें। लगभग ठकुरसुहाती कहने-सुनने की गरज साजने वाली इस तरह की गोष्ठियों में सचमुच में कुछ सीखने-सिखाने की गुंजाइश लगभग समाप्त होती जा रही है।
'कथारंग' की इस गोष्ठी की अध्यक्षता मालचन्द तिवाड़ी ने की। तिवाड़ी भलीभांति जानते हैं कि कहानी लेखन के क्या-क्या प्रतिमान रहे हैं और क्या कुछ संभावित हैं। होना तो यह चाहिए था कि संग्रह के स्थापित तथा पहचान बना चुके कहानीकारों को छोड़कर शेष संभावनाशील कहानीकारों की पड़ताल होती तो गोष्ठी सार्थक हो जाती। जिस तरह के साहित्यिक आयोजन शहर में होने लगे हैं उसके चलते तिवाड़ी जैसे काबिल या तो ऐसी सभा गोष्ठियों में संभवत: अपने को असहज पाते हैं और आते भी हैं तो औपचारिकता निभाने भर को ही।
शहर की साहित्यिक सभा-गोष्ठियों में यह भी देखने में आया है कि अपने लिखे पर मीन-मेख की थोड़ी बहुत गुंजाइश मजबूरी में दी जाती है, किसी बड़ी चीर-फाड़ की छूट लेने की हिम्मत कोई काबिल शायद ही कर पाए। 'म्है थनै चाटूं, तू म्हैने चाट' चलता है या फिर किसी ने कुछ कह दिया तो इसे गिरोह के किसी सदस्य पर हमले की तरह लिया जाता है। अब तो यह भी सुना जाता है कि जिस तरह मैंने लिख दिया है वह ही उस विधा का प्रतिमान हैसृजनात्मक विनम्रता जब सिरे पर ही नहीं दीखती तो तर्क और तथ्य की बात ही कहां।
याद नहीं पड़ता कि पिछले लम्बे अरसे से शहर में कोई वैचारिक गोष्ठी हुई हो और सृजन और विचार से एक दूसरे को पुष्ट किया गया हो। विचार से मतलब किसी विशेष विचारधारा से कतई नहीं। किसी मुद्दे या विचार को किसी तार्किक या तथ्यात्मक गंतव्य तक ले जाना गोष्ठी का मकसद हो सकता है। यही वजह है कि अन्य सृजनात्मक विधाओं में भी अनुशासन की बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। आध-पौन या घण्टे तक कार्यक्रमों को देरी से शुरू करना और भाषण-श्रोता वाले आयोजनों को तीन-तीन, चार-चार घण्टे तक खींचना क्या रसिकों को इन सब से दरकिनार करना ही नहीं है?

24 सितम्बर, 2015

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