Wednesday, August 26, 2015

जनगणना पर मीडिया की भ्रमित करने वाली सुर्खियां

कोई चालीसे' वर्ष पहले की बात है। बीकानेर के महात्मा गांधी रोड पर नये-नये खुले सॉफ्टी ज्यूस सेन्टर में स्थानीय व्यक्ति के साथ एक युवा विदेशी जोड़ा आया। विदेशी जोड़े ने इस जिज्ञासा जताई कि यहां लोग-बाग बच्चे ज्यादा क्यों पैदा करते हैं। इस पर स्थानीय का उत्तर था कि यहां के अधिकांश लोग शैक्षिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े हैं जिसके चलते मनोरंजन के किसी अन्य साधन को वे जुटा नहीं पाते और कामसुख से ही संतोष कर लेते हैं। जिस रस लिए जाने के लहजे में उत्तर था उसमें हीन भावना का भी अजीब घालमेल था, सुनने पर बुरा भी लगा। जबकि विदेशी जोड़े के उस प्रश्न का उत्तर यह हो सकता है कि चूंकि यहां के अधिकांश लोग पिछड़े हैं इसलिए गर्भनिरोधक जैसे उपायों के प्रति वे जागरूक नहीं हैं।
आज यह स्मरण इसलिए हो आया कि सरकार ने जनसंख्या के धर्म आधारित आंकड़े कल जारी किए हैं। इन आंकड़ों को लेकर कांग्रेस-नीत संप्रग-दो पर आरोप है कि उसने इन आंकड़ों को इस मंशा से रोके रखा कि जारी होने से मुख्य विपक्षी भाजपा को लाभ हो जायेगा। भाजपा-नीत राजग सरकार द्वारा आंकड़ों को कल जारी करने पर भी आरोप लगाया जा रहा है कि उसने अपने कम होते प्रभाव का असर बिहार चुनाव में होने देने के लिए ये आंकड़े इस समय जारी किए हैं। ऐसे राजनीतिक लाभ-हानियों के कयास पार्टियों के सही बैठते तो 2014-15 के चुनावों में कांग्रेस इस गत को प्राप्त नहीं होती। लेकिन तुच्छ स्वार्थों से घनीभूत इस तरह की गैर जिम्मेदारियां भारतीय सामाजिक समरसता को काफी नुकसान पहुंचाती हैं। जनगणना के जातीय आंकड़ों को भी ये सरकारें इसी मंशा से रोक रही हैं। धर्म और जाति भारत देश की सचाई है। समय बताता है कि इनके आंकड़ों को छुपाने से समस्याएं बजाय घटने के बढ़ी ही हैं। जिन निजी स्वार्थों के चलते ये सरकारें इन्हें रोकती हैं, वह मकसद भी उनका अधिकांशत: पूरा नहीं होता है।
यह तो हुई शासन की बात। लेकिन आज की बात का असली मकसद ऐसे मसलों पर मीडिया में दी गई गैर जिम्मेदाराना सुर्खियां और खबरों को मोड़-तोड़ कर देने पर चर्चा करने का है। '2001 से 2011 तक के दशक में हिन्दुओं की आबादी 0.7 प्रतिशत घटी और मुसलमानों की 0.8 प्रतिशत बढ़ी है।' खबरियां चैनल हों या अखबार, अधिकांश ने ऐसी ही सुर्खियां दीं, जो बेहद गैर जिम्मेदाराना हैं। ऐसी सुर्खियां देने का मकसद मीडिया का क्या हो सकता है, यह तो वही जाने। लेकिन आज की बात के शुरू में जिस घटना से आबादी बढऩे के कारणों को समझने की कोशिश की उसका कारण पिछड़ापन ही है। आर्थिक और शैक्षिक आंकड़े बताते हैं कि धार्मिक समुदायों के आधार पर देश में सर्वाधिक पिछड़े मुसलमान ही हैं। इसीलिए आबादी बढऩे की दर को कम करने की गति भी उनकी अन्यों से धीमी है। बावजूद इसके जनसंख्या के यह ही आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों में भी आबादी कम करने की जागरूकता लगातार बढ़ रही है। इन आंकड़ों में मुसलिम आबादी को लेकर सकारात्मक तथ्य यह है कि पिछली सदी के नवें दशक में मुसलमानों की आबादी बढऩे की जो दर 32.9 प्रतिशत थी वह ही पिछली सदी के आखिरी दशक में 3.6 प्रतिशत की दर से घटकर 29.3 प्रतिशत रह गई। नई सदी के पहले दशक यानी 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की आबादी घटने की यह दर 4.7 प्रतिशत पर पहुंच गई। इसके ठीक उलट हिन्दुओं की आबादी घटने की यह दर मुसलमानों की दर से कम है। पिछली सदी के आखिरी दशक में मुसलमानों की आबादी घटने की दर 3.6 प्रतिशत थी वहीं हिन्दुओं की 2.8 प्रतिशत ही थी। इसी तरह नई सदी के पहले दशक में मुसलमानों की आबादी घटने की यह दर 4.7 प्रतिशत आयी है। जबकि इस दशक में हिन्दुओं में आबादी घटने की यह दर 3.2 प्रतिशत ही बतायी जा रही है। इन आंकड़ों में एक सुखद संकेत यह भी है कि किसी भी धर्म से वास्ता बताने वालों की संख्या केवल पिछले दशक में ही चार गुना बढ़ी है।
इन आंकड़ों से जाहिर यह हो रहा है कि मुसलमान आबादी घटाने के लिए जिस गति से जागरूक हो रहे हैं, लेकिन आबादी घटाने की वैसी जागरूकता हिन्दुओं में मुसलमानों से कम है। हो सकता है दोनों समुदायों के कट्टरपंथी इन आंकड़ों का अपने-अपने मकसद से दुरुपयोग करें, करेंगे ही। क्योंकि उनका अस्तित्व ही जहर फैलाने पर टिका है लेकिन अवाम से उम्मीद की जाती है कि वह अपनी जागरूकता को बनाए रखेगा।
ऐसे में मीडिया की इस खबर से सम्बन्धित आज की सुर्खियां इससे ठीक उलट संदेश देती नजर रही हैं जो सर्वथा गैर जिम्मेदाराना और मानवता विरोधी हैं। मीडिया ऐसा जान-बूझ कर कर रहा है तो बेहद खतरनाक है क्योंकि वह लोकतंत्र के चौथे पाए की हैसियत पाए है और यदि वह किसी राजनीतिक विचारधारा को लाभ पहुंचाने का मकसद रखता है तो अपने धर्म से च्युत हो रहा है। अगर ऐसा लापरवाही के चलते हो रहा है तो अक्षम्य ही माना जायेगा।

26 अगस्त, 2015

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