Wednesday, August 19, 2015

अभिव्यक्त से भय मंशाओं को उघाड़ता है

संसद के मानसून सत्र के अंतिम दिन प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि आपातकाल जैसे हालात दीखने लगे हैं। मोदी के इस कहे का आशय तब संदिग्ध लगा। स्पष्ट नहीं था कि वे कोई आशंका जता रहे हैं या कि चेतावनी दे रहे हैं। वैसे उनके संगी-साथी प्रतिकूल बात कहने वालों को पाकिस्तान चले जाने और भेज देने की सलाह-धमकियां जब-तब देते ही हैं। दक्षिण के एक विश्‍वविद्यालय की अम्बेडकर पीठ पर रोक लगाकर इरादा जाहिर कर ही दिया था कि उनके हिसाब से न विचारने-चलने वालों के लिए आपातकाल लग ही गया समझो!
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का पहला प्रमाण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को माना गया है। लेकिन अपने प्रतिकूल बात पर मोदीनिष्ठ किस तरह से पेश आते हैं, इससे भिज्ञ सोशल साइट्स पर सक्रियों में से अधिकांश है। राज में आते ही अखबारों के विज्ञापन कम करके जहां उनकी ढेबरी कसना शुरू किया वहीं खबरिया चैनलों को नोटिस भी थमाने शुरू कर दिए हैं। भारी-भरकम खर्चे वाले इन धंधों को चलाना है तो दबाव भुगतना होगा। सरकार धार-विचार ले तो कान किसी भी तरह से उमेठे जा सकते हैं। वैसे वर्तमान सरकार के लोग जिन विचारों से प्रेरणा पाते हैं उनके शब्दकोश में आजादी, अभिव्यक्ति जैसे शब्दों को कोई खास जगह कभी हासिल थी भी नहीं। जब कभी इन शब्दों को बरतते भी हैं तो हाथी के दांत माफिक ही।
संतोष यही है कि देश की लोकतांत्रिक चूलें इतनी पैठी हुई हैं कि उन्हें बेदखल करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। 1975 में भी ऐसे ही बहुमत से बौराई इन्दिरा गांधी को तब ऐसा ही लगने लगा था, दुस्साहन भी कर लिया। लेकिन उनके संस्कार लोकतांत्रिक थे सो चांके पर उन्नीस महीने में ही लौट आयीं।
आज यह उकत इसलिए आन पड़ी कि इण्डिया टुडे (हिन्दी) के पूर्व कार्यकारी सम्पादक और सोशल साइट्स पर समाज-उपेक्षितों के तीखे प्रवक्ता दिलीप सी मण्डल के फेसबुक अकाउंट को नियन्ताओं द्वारा ऐसों के ही दबाव में बन्द कर दिया गया, ऐसा माना जा रहा है। जानकारी मिलने के तुरत बाद से कल फेसबुक पर बजाय मोदी द्वारा बिहार की कल लगाई बोली पर, दिलीप सी मण्डल के साथ इस घटित का विरोध छा गया।
दिलीप सूचनाओं से अद्यतन तो रहते ही हैं, पक्के स्वाध्यायी मालूम होते हैं। बात के साथ उनके अपने आग्रह-दुराग्रहों की लपेट भी होती है। इसलिए उनसे कई बार असहमतियां भी होती हैं तो कुछेक बार बदमजगी भी हो जाती है। फिर भी उनकी अधिकांश पोस्टों से सहमत ही होना पड़ता है। कुछ ऐसी भी होती हैं जिन्हें साझा करने का लोभ छोड़ नहीं पाते। दुराग्रही और मकसद विशेष से उनके द्वारा लिखी पोस्टों की उपेक्षा भी की जाती है। बावजूद इस सबके वे अपनी पोस्टों को देखने-पढ़ने का कौतुक बनाए रखते हैं। शासन से ज्यादा वे समाज व्यवस्था पर तीखे प्रहार करते हैं और यही बात शायद रूढ़ विचार प्रेरकों के गले नहीं उतरती। अब चूंकि राज ऐसों का ही है तो ऐसे लोगों को जिनका लिखा असहज करता है, उन्हें रोकने के कुत्सित प्रयास होने लगे हैं।
मानते हैं अपनी कही में कई बार दिलीप अति करते हैं, लेकिन जिस समाज के उच्च वर्ग ने सदियों तक उनकी पूर्वज पीढ़ियों के साथ जैसा घोर अमानवीय आचरण किया, उसके सामने दिलीप की अतियां कहीं नहीं ठहरती। एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में उनके रोष के हक को इतनी छूट के साथ स्वीकारना चाहिए। यदि वह अवैधानिक कुछ कहते हैं तो उसके लिए कानून है, हालांकि ऐसा कभी देखा नहीं गया। अलावा इसके फेसबुक ने भी अपने आदतियों को अनफॉलों करने, अनफ्रेंड करने और अति हो जाए तो ब्लॉक करने तक के विकल्प दे रखे हैं। ऐसे में जिन्हें दिलीप असहनीय लगते हैं वे इन विकल्प का प्रयोग कर सकते हैं। अकाउंट सीज करवा देना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरे की घंटी से कम बात नहीं है। उम्मीद करते हैं कि फेसबुक अपनी इस भूल को अविलम्ब सुधारेगा और उम्मीद केन्द्र सरकार के विचार प्रेरकों से भी की जाती है कि सीना छप्पन का चाहे वे न नपवाएं, दिल को ही बड़ा कर लें।

19 अगस्त, 2015

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