Wednesday, August 5, 2015

आजाद देश का शासन और प्रशासन

'विनायक' इस बात को बार-बार उठाता रहा है कि आजादी बाद से ही जनता को जो उम्मीदें अपने चुने जन- प्रतिनिधियों से करनी चाहिए थीं वे अधिकारियों से क्यों करते हैं। शहर की जरूरतें हों या समस्याएं, फिर चाहे प्रदेश और केन्द्र स्तरीय नीतिगत मसले ही होंझंडा-बैनर उठाते और चल देते हैं कलक्ट्री की ओर। यह कोई ब्रिटिश या सामन्ती राज तो है नहीं कि जनता के पास उसके अलावा कोई चारा ही हो।
विकेन्द्रीकृत लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में अवाम की हर जरूरत की जिम्मेदारी के लिए खुद अपना प्रतिनिधि चुनती हैगांव में सरपंच, शहर-मुहल्ले के लिए पार्षद, क्षेत्रवार सभापति, महापौर, प्रधान, जिलाप्रमुख प्रदेश स्तर के मसलों के लिए विधायक और केन्द्रीय मसलों के लिए सांसद तक। फिर ऐसा अनायास हुआ या जनप्रतिनिधियों की चतुराई से कि एक जनतांत्रिक शासन व्यवस्था अधिकारिगण-केन्द्रित कर दी गई। नतीजतन जनप्रतिनिधि अपना ही बल भूल गए। इन्हें अधिकारियों को बजाय निर्देशित करने के, गिड़गिड़ाना पड़ता है। इस व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों की माथापच्ची कम तो जरूर हो गई लेकिन उन्होंने इसकी बड़ी कीमत अधिकारियों पर निर्भर होने के रूप में चुकाई। इससे हुआ यह कि ये अधिकारिगण लगातार अपनी ताकत में इजाफा करते रहे और जनप्रतिनिधि असहाय होते रहे। अब तो सरकारें भी पूरी तरह अधिकारियों पर ही निर्भर हो गई हैं।
पोस्टिंग पर अधिकतम दो-तीन वर्ष के लिए आए अधिकारी अपने-अपने तरीके से इस तरह दक्ष हो लिए होते हैं कि उन्हें किसको किस तरह निबटाना है उसके लगभग फार्मूले तय हैं, पद, समय और परिस्थितिनुसार उसमें थोड़ा फेरबदल करते हैं और प्रशासन को हांकते रहते हैं, 'जनप्रतिनिधि को उसके माजने के मायने के अनुसार परोट लेते हैं। जनता अपनी समस्या लेकर आए या ज्ञापन देने' अधिकांशत: प्रशासन उन्हें संबंधित तक पहुंचाने का काम ही करता है। इस पूरी प्रक्रिया में जनप्रतिनिधि की तो कोई खास भूमिका होती है और ही कोई जिम्मेदारी। बाजदफा तो ये जनप्रतिनिधि खुद ही धरनार्थियों के बीच बैठ हास्यास्पद हो लेते हैं। इसमें भी मकसद इनका इतना ही रहता है कि आक्रोशित लोग ये मान लें कि जिसे हमने चुना वह कम-से-कम हमारे बीच आकर बैठा तो सही। जनता इतने में संतुष्ट हो लेती है जबकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जिसे उसने चुना है, असल कर्ता-धर्ता और सर्वेसर्वा होना वही चाहिए।
आजादी बाद के शासकों की लापरवाही कहें या भूल कि उन्होंने उसी प्रशासनिक ढांचे को थोड़े बहुत बदलावों के साथ अपना लिया जो राजशाही का था। और अफसोस इसी बात का है कि इन अड़सठ वर्षों में इसके पुनर्गठन की बात तो दूर, विचार करने की भी जरूरत नहीं समझी गई। इसी का ही नतीजा है कि शासक वर्ग चुना तो जनता के द्वारा जाता है, लेकिन उसके तौर-तरीके और ठाट-बाट सामन्त जैसे हो लेते हैं। ऐसा होने का एक बड़ा जिम्मेदार हमारे देश का यह प्रशासनिक ढांचा है। नेतागण अपने तुच्छ स्वार्थों को प्रशासनिक अधिकारियों से साधते हैं, बदले में प्रशासनिक अधिकारी अपनी ताकत को बनाए रखते हैं। भ्रष्टाचार और हरामखोरी की प्रवृत्ति को इस जुगलबंदी से कम शह नहीं मिलती। आजाद देश की जनता को अपने काम के लिए सरकारी कारकुन के आगे हाथ जोड़े ही खड़ा रहना पड़ता है। आजादी के मायनों का इसी तरह क्षरण होता गया और हो रहा है। जो असमर्थ हैं, जिसकी कोई पहुंच नहीं है, कमजोर वर्ग से है, गरीब हैं, ऐसे सब उस होने को ही अपनी नियति मान संतोष कर लेते हैं। जबकि जरूरत इस व्यवस्था को नकार अपनी असल ताकत हासिल करने की है। चुनाव में जब इसके हासिल का अवसर आता है तब मतदाता खुद पूरी तरह लापरवाह हो वोट डालकर चले आते हैं।

5 अगस्त, 2015

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