Friday, August 14, 2015

बुरे दौर में संसदीय लोकतंत्र

भारतीय संसद यूं तो पिछले पांच वर्ष से तमाशाघर बनी हुई है। यद्यपि पिछले एक वर्ष में भ्रम हुआ कि वह अपनी उद्देश्यी निष्ठता की ओर लौट रही है। लेकिन जब मानसून सत्र के हश्र को देखा तो साफ हो गया कि वह तो विपक्षियों की हार की स्तब्धता भर थी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी लगभग दो माह के अन्तर्धान से लौटे तो अपने संग कुछ भिन्न ऊर्जा तो साथ ले आए लेकिन यह समझ लेकर नहीं लौटे कि ऊर्जा उत्प्रेरक तो हो सकती पर मूल समझ नहीं।
दूसरी ओर कोरे आत्मविश्वास से काम चलाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जैसे-तैसे समझ में आने लगा कि देश को चलाना गुजरात को हांकने से बहुत ज्यादा मुश्किल है वैसे-वैसे ही उनका आत्मविश्वास डोलते हुए हीनता ग्रंथि पर आश्रित होने लगा। इसका प्रमाण मानसून सत्र का दिया जा सकता है, जिन नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा सदस्य चुने जाने के बाद लोकसभा में अपने पहले पदार्पण से पूर्व धोक दी वही मोदी संसद के रू-बरू होने से बचने लगे। पूरा सत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया और मोदी उसे टीवी पर निहारते रहे। सप्रंग-दो के बाद के चार वर्षों में संसद में जो भाजपा ने किया, कांग्रेस वैसा ही करके उतर-पातर करने पर उतारू है। इन स्थितियों को संसदीय लोकतंत्र में उचित नहीं कहा जा सकता।
आचरण के मामले में कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियों के कबाड़े एक से हैं, कम-ज्यादा उतने ही हैं जितने अवसर इन्हें करने को मिले या मिलते हैं। वामदलों को थोड़ा छोड़ दें तो अन्य पार्टियां भी कमोबेश ऐसी ही हैं। विचारवान राजनेताओं का अकाल दिखने लगा है। थोड़े-बहुत हैं भी तो उन्हें या तो किनारे लगा दिया गया या थिंक टेंक बना कर बिठा दिया गया। कांग्रेस में जब से राहुल की चलने लगी तब से ही वे अपनी तंग समझ से ऊपर वालों को हाशिये पर लगाने लगे, वहीं हीनता ग्रंथि से गहरे ग्रसित नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की कमान ही इस शर्त पर संभाली कि उनका निर्णय ही अन्तिम होगा और इसी के चलते पार्टी में वरिष्ठों और अपने नापसंदों को ठिकाने लगा दिया गया।
आपातकाल को छोड़ दें तो भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए ऐसा प्रतिकूल समय इससे पहले कभी देखा नहीं गया। तब भी नहीं जब पिछली सदी के नवें दशक में बोफोर्स कांड को उजागर किया गया। तब भी राजीव गांधी ने संसद से मुंह नहीं छुपाया, जिसकी जांचों से बाद की विपक्ष की सरकारें भी कुछ निकल नहीं पाई। नरेन्द्र मोदी मुखातिब होने से बचते हैं, फिर वह चाहे संसद हो, टीवी हो या पत्रकारों का समूह। क्या उन्हें लगता है कि राहुल गांधी की ही तरह उनके पोत भी कहीं चोड़े आने लगे। इस बात के तोड़ में कहा जा सकता है कि आम सभाओं में मोदी मुखातिब होते हैं और बोलते भी हैं, ऐसा मानने वाले ये भूल जाते हैं कि भीड़ का चरित्र गूंगा होता है, वे या तो मुग्ध होती हैं या इससे उलट होगी तो हूटर से ज्यादा क्या हो लेगी, ऐसे में भी मंच से सौ मीटर दूर सुरक्षा दलों से घिरे बाड़ों में बैठी जनता तमाशबीन से ज्यादा किस भूमिका में सकेगी।
महंगाई कम नहीं हो रही, विकास को गति नहीं मिल रही, किसानों की आत्महत्याएं थम नहीं रही, कालेधन पर कुछ नहीं हो रहा, पड़ोसी देश पहले से ज्यादा परेशान करने लगे। इन सबके बावजूद चुनावों में जनता के सामने जाना पड़ रहा है। उक्त असफलताएं मोदी के भाव-भंगिमाओं और बोलों में साफ दिखने लगी हैं। बिहार चुनाव अभियान में मोदी के मुज्जफरपुर और गया में दिये भाषणों को देखने-सुनने से ये सब साफ दिखने लगा है।
उम्मीद करते हैं मोदी 'स्वतंत्रता दिवस' पर कल जब लाल किले से देश को संबोधित करेंगे तो अपने पद और इस उत्सव की गरिमा को सहज कर रख पाएंगे। विपक्ष तो वैसा ही जैसे आप विपक्ष में थे। लोकतंत्र में जिम्मेदारियां और बड़प्पन सत्ता को ही निभाने होते हैं। सत्तासीन भाजपा अपने पर लगे हर आरोप के बदले में कांग्रेस की वैसी ही करतूतें गिनाती है, इसे खंभा नोचना ही कहा जायेगा। कांग्रेस ने कबाड़े किये इसीलिए चौवालीस पर सिमटी बैठी है। यह भी कि भाजपा को अवाम ने देश इसलिए नहीं सौंपा कि कांग्रेस ने जो कबाड़े छप्पन वर्ष में किये भाजपा को उतने ही छप्पन महीने में करने है।

14 अगस्त, 2015

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