Wednesday, July 8, 2015

गिरोह में तबदील हुए संगठन कितने घातक

माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान द्वारा आयोजित दसवीं की परीक्षा के दस जून को आए परिणाम में पन्द्रह की मेरिट में 102 विद्यार्थी रहे। प्रदेश के बजट का अधिकतम हिस्सा खपा जाने वाले विभागों में एक शिक्षा का यह विभाग अपने द्वारा संचालित स्कूलों से इस मेरिट में एक भी विद्यार्थी नहीं दे पाया।
सोशल साइट्स पर सक्रिय हैं और कई बार अगंभीर टिप्पणी करने का मन हो तो करते भी हैं। उक्त परिणामों पर भी 10 जून को ऐसे ही कुछ कहने का मन हुआ। बाकायदा इस बचावी शीर्षक से शुरू की—'एक अक्खड़ सलाह' टिप्पणी थी:- राजस्थान के राजकीय माध्यमिक विद्यालयों में सत्र 2015-16 पर्यन्त अध्यापकों का वेतन आधा कर दिया जाना चाहिए।
अगले वर्ष जिन-जिन राजकीय विद्यालयों में दसवीं के परिणाम अच्छे आएं उन-उन विद्यालयों के अध्यापकों का सत्र 2016-17 का वेतन फिर से पूरा कर दिया जाया (आखिर छठे वेतन आयोग द्वारा अनुशंसित तनख्वाह पाते हैं)
बचावी शीर्षक 'एक अक्खड़ सलाह' से शुरू यह टिप्पणी कइयों को नहीं झली, कई व्यक्तिगत हता-तता पर भी उतर आए। जाहिर है ऐसे सभी छठे वेतन आयोग का लाभ पाने वाले सरकारी अध्यापक ही होंगे।
लगभग एक माह बाद इस टिप्पणी का स्मरण आज तब हो आया जब दैनिक भास्कर में खबर देखी कि गुजरात सरकार का शिक्षा विभाग ऐसी ही मंशा बना रहा है। गुजरात का शिक्षा विभाग तय करने जा रहा है कि खराब परिणाम रहने पर अध्यापकों की वेतन वृद्धि रोक कर उनकी जवाबदेही तय की जायेगी। गुजरात शासन को आदर्श मानने वाले दल की सरकार राजस्थान में है, हो सकता है वैसी ही मंशा कुर्सी स्थिर हो जाने पर यहां की सरकार भी बनाए।
व्यक्तिगत बातचीत में कई अध्यापक मानते हैं, छठे वेतन आयोग के बाद वेतन इतना मिलता है कि खर्च ही नहीं होता और यह स्वीकारने में भी वे संकोच नहीं करते कि बावजूद इसके हम हरामखोरी से बाज नहीं आते। खैर, ऐसी स्वीकारोक्ति वाले अध्यापक होंगे गिने-चुने ही। कइयों की नीयत वेतन या कहें सरकारी सेवा को एक वजीफा ही मानने की होती है और कुछ ऐसे भी हैं जो इससे भी नहीं धापते। वे ऊपरी कमाई करने से बाज नहीं आते।
ऐसा केवल शिक्षा विभागीय सेवा में ही नहीं है, कमोबेश सरकारी सेवाओं के अधिकांश कर्मचारियों की नीयत ऐसी ही है या ऐसी होती जा रही है। ऐसे में जिस तरह आजकल आरोप लगने पर ठीक भाजपा प्रवक्ताओं की तरह कांग्रेस पर पूर्व में लगे वैसे ही किसी आरोप की नजीर दे देते हैं, कुछ इसी तरह एक विभाग के कर्मचारी दूसरे विभागों के कर्मचारियों और अधिकारियों की नजीर देने से नहीं चूकते, यहां तक कि यह भी कह देते हैं घाण ही बिगड़ा हुआ है।
इसी कॉलम में 'विनायक' एकाधिक बार बता चुका है कि वह इस सबके लिए मुख्यत: नेताओं और प्रकारान्तर से शासकों को मुख्य जिम्मेदार मानता है। आजादी बाद इनके मन में खोट नहीं आती तो देश आज उस भ्रष्ट मुकाम पर नहीं होता कि जहां वह आज है।
लेकिन ये क्या कि जिसे भी देखो वे सब समर्थ नेताओं की ऐसी प्रवृत्तियों को अनुकूलता देने में ही लगे हैं, सामूहिक हित साधने के लिए बने कर्मचारी और शिक्षक संघ भी और उद्योग-व्यापार में लगे समर्थ भी।
प्रशासन और समर्थ समाज में बढ़ी नकारात्मक सोच और मूल्यों की गिरावट के लिए जिम्मेदार भ्रष्टाचार है। इस संक्रमण का मुख्य स्रोत शासक वर्ग है जिसके कुरियर का काम राजनेता और लालची अधिकारी करते हैं।
लेकिन समाज का एक तबका यह भी मानता है कि शिक्षक अपनी नीयत खराब नहीं करते तो इन सबके खिलाफ आवाज तो कायम रहती। शिक्षक ने अपने छोटे-छोटे स्वार्थों, सुविधाओं और लालच में शिक्षा के सरकारी ढांचे को लुंज-पुंज होने दिया। जिस देश के प्राण गांवों में बसते हैं उन प्राणों को प्राणवायु देने वाली शैक्षिक व्यवस्था को सबसे पहले लकवाग्रस्त किया गया। हुआ यह कि खुद शिक्षकों के बच्चे इन स्कूलों में पढऩे नहीं जाते। परिणाम-स्वरूप गांवों के मूलभूत ढांचे को मजबूत करने का काम गड़बड़ा गया। गांवों में डॉक्टर रहना चाहता है और ही अन्य कर्मचारी। ऐसों का एक बहाना यह भी है कि पढ़ाई के माहौल वाले स्कूल नहीं हैं सो बच्चों को शहर में रखना होता है और इस तरह सभी ने अपने को शहर का मुहताज बना लिया।
ऐसी नीयत के चलते ही देश में सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाएं चरमरा गई इनकी साख खत्म हो गई, विकल्प निजीकरण में देखा जाने लगा है। निजीकरण समर्थ को लाभ पहुंचाने और उनके लालच को पूरा करने के लिए ही होता है। देख लीजिए जो समर्थ नहीं है उसके लिए शिक्षा है और ही स्वास्थ्य। ऐसे में रोजगार की वह सोच ही नहीं सकता। अन्त में फिर इसे दोहराने में संकोच नहीं है कि ये अधिकांश कर्मचारी-अधिकारी और शिक्षक संघ लगभग गिरोहों में तबदील हो लिए हैं। अगर अधिकारों के साथ-साथ ये अपने कर्तव्यों की बात भी करते तो देश का सामथ्र्यहीन, गरीब और बेरोजगार वर्ग इस गत को प्राप्त नहीं होता। ये भूल रहे हैं कि जब कर्मचारी ही नहीं रहेंगे तो कर्मचारी संघों के अस्तित्व का क्या होगा। देश की व्यवस्था उसी ओर बढ़ रही है। अब भी ये गिरोही प्रवृत्ति से बाहर आने की सोच तो दूर स्वीकार ही नहीं करते कि ये संघ गिरोह में तबदील हो गए हैं। सरकारी ओर सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार देने वाले शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग दोनों को ही सरकारों ने मृत्यु की ओर प्रवृत्त मान लिया है और चाहती भी ऐसा ही हैं। कर्मचारी संघ भी जो कुछ कर रहे हैं उसे अगली पीढ़ी के रोजगार के अवसर की शवयात्रा की सीढ़ी बंधवाने में लगे होना कहें तो गलत क्या। काश, ये अपनी सेवाओं की साख बनाए रखते तो कोई भी व्यवस्था उस अवस्था में इन्हें खत्म करने की मंशा करने का साहस नहीं जुटाती।

8 जुलाई, 2015

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