Friday, July 24, 2015

शॉर्ट फिल्म 'एग्रीमेंट' के बहाने प्यार-व्यार, भरम-वरम

रंगमंच विधा को समर्पित बीकानेर के प्रौढ़ होते युवाओं ने एग्रीमेंट नाम से शॉर्ट फिल्म बनाई जिसका कल प्रदर्शन किया गया। यू-ट्यूब के चलते इन वर्षों में विकसित इस प्रदर्शन कला से पहली वाकिफीयत गोपालसिंह की अगुवाई में कुछ माह पूर्व यहां आयोजित 'शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल' के माध्यम से हुई। शॉर्ट फिल्म की इस अवधारणा का आर्थिक अर्थ तो समझ नहीं आया लेकिन सर्जनात्मक सुख का अर्थ कल के प्रदर्शन और उस फेस्टिवल के दौरान कुछ-कुछ जरूर समझ में आया। ये सब देख समझ लगा कि मन के ऊहापोह, मूल्यगत संदेश या फिर अनुभूत आनन्ददायी दृश्यों को अन्यों से साझा करने का सुख सीमित संसाधनों से भी हासिल किया जा सकता है।
शायद इसी मकसद से निर्देशक सुधेश व्यास और पटकथा लेखक नवलकिशोर व्यास ने संपादक येशु भादानी के सहयोग से सामाजिक विधान के इस सबसे घनीभूत पति-पत्नी रिश्ते के महानगरीय संस्कृति में छिछले होते जाने को फिल्म के इन अठारह मिनटों से समझने-समझाने की कोशिश की है। फिल्म का पहला दृश्य संभवत फिल्म के नाम को मात्र टोरने के लिए फिल्माया गया, इसकी जरूरत नहीं लगी। हो सकता है अन्यों को ऐसा लगा हो।
प्रेम जैसे अमूर्त से जूझते दो दृश्य ही इस फिल्म को सार्थक करते हैं। दोनों ही दृश्य शयनकक्ष के हैंएक इस फिल्म के भीतर फिल्म के सैट का तो दूसरा नायक के अपने शयनकक्ष का। फिल्म के भीतर फिल्म के सैट को ज्यादा प्रभावी उसमें निर्देशक की भूमिका निभा रहे रवि शुक्ला बनाते हैं तो असल शयनकक्ष में प्रेम शब्द से जूझते हैं इस फिल्म के नायक। यह जूझ ही इस फिल्म का केन्द्रीय भाव है जो प्रेम के मानी पकडऩे की असफल कोशिश में लगी है।
इस फिल्म का केन्द्रीय भाव टटोलते दो स्मृतियां हरी हो गईंएक तो डेढ़-दो दशक पुरानी है। एक भारतीय बौद्धिक को पश्चिमी बौद्धिक ने जिज्ञासावश पूछा कि आप भारतीय पति-पत्नी दिन में जब भी मिलते हैं तो आपसी बात कैसे शुरू करते हैं। इस 'आन-पड़े औचक प्रश्न' पर भारतीय बौद्धिक कुछ कहते उससे पहले ही पश्चिमी बौद्धिक ने अपनी कह दी कि हमारे यहां अधिकांशत: पति जब पत्नी से मिलता है तो पहला संबोधन ऐसा-सा होता है—'डार्लिंग! आइ लव यू' यदि ऐसा कहे तो पत्नी को शंका होने लगेगी। भारतीय ने पूछ लियादिन में ऐसा कितनी बार? जवाब मिला, कई बार। इस पर भारतीय बौद्धिक ने हंसकर कहा कि यदि हमारे यहां ऐसा होने लगे तो पत्नी परेशान हो जायेगी, खुलेमन की होगी तो झिड़क देगी और यदि ज्यादा ही भारतीय होगी तो चिंतित होने लगेगी कि कुछ गड़बड़ है। इस तरह से समझें तो यह फिल्म असुरक्षा की उस आहट से रू-बरू करवाती है जो महानगरीय संस्कृति के साथ यहां घुसपैठ करने लगी है। प्रेम परोसने वाले सर्जकों की प्रेम के लिए की गई व्याख्याओं के सन्दर्भ से ढूंढ़े तो पश्चिमी और भारतीय दोनों दम्पतियों के संवादों में प्रेम शायद ही कहीं बरामद हो।
दूसरी स्मृति छह-सात माह पुरानी है। कनुप्रिया नाम की फेसबुक मित्र ने अपनी वॉल पर 'प्यार' को समझने की मंशा से एक पोस्ट डाली। कई व्याख्याएं भी आईं। उनमें एक संक्षिप्त यह भी थी—'प्यार-व्यार, भरम-वरम' इस पर कनुप्रिया की प्रतिक्रिया से लगा कि वह प्यार को भरम मानने को तैयार नहीं है।
हृदय को रूमानियत में दिल कहते हैं। शरीर विज्ञान के हवाले से बात करें तो हृदय का काम धड़क कर पूरे शरीर में रक्त पहुंचाना है। प्राकृतिक रूप से विपरीतलिंगियों में कुछ विशेष आकर्षणों के साथ गहरी अनुकूलताएं जब किशोरवय में मिलती है तो उस चुंधियाई मानसिक अवस्था मेें मस्तिष्क को खून की जरूरत ज्यादा होती है, उस जरूरत को पूरा करने के लिए हृदय को तेजी से धड़कना पड़ता हैसंभवत: इसी के चलते ये बेचारा हृदय दिल में तबदील हो गया होगा।
प्रेम में यदि दिल की ही कोई भूमिका होती तो तेज धड़कने का वह एहसास समय के साथ क्रमश: कम होते होते समाप्त क्यों हो जाता है। इसीलिए शायद प्रेम को भ्रम कहा जाने लगा है। हां, लगाव कह सकते हैं, प्रतिबद्धता कह सकते हैं जो समाज के अन्य रिश्तों में भी देखने को मिलता है, यहां तक कि पालतू पशु-पक्षियों के प्रति भी या उन सभी चर-अचर के साथ जिनसे बहुधा सामना होता है।
प्रेम के नाम पर बहुधा अहम् की तुष्टि होती है, जिद का पोषण होता है और कई बार अपने से कुछ हो लिए को पुष्ट करते रहना भी। कुछेक होते हैं जो ऐसे हुए को आजन्म पकड़े रखते हैं तो अधिकांश को तो छिटकते और सामाजिक ढर्रें का 'रूटीन' निभाते ही देखा है। प्रेम-वे्रम कुछ नहीं, भ्रम है कोरा। 'एग्रीमेंट' के आयोजक इस शॉर्ट फिल्म के माध्यम से इसी ऊहापोह के प्रस्थान बिन्दु को टटोलते लगते हैं, अन्य कइयों की ही तरह।

24 जुलाई, 2015

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