Wednesday, July 29, 2015

समाज, परिवार और आधुनिकता

शहर का स्मार्ट होना क्या होता है और महानगर होना क्या। ऐसे जुमले बहलाने के लिए तो ठीक हैं लेकिन आधुनिकता और रूढि की चौखट पर खड़ा व्यक्ति सावचेती के अभाव में, सामाजिक-पारिवारिक झंझटों में फंसे बिना नहीं रहता। आधुनिक सभी तौर-तरीके और उपकरण मुक्ति की युक्तियां हैं, ये युक्तियां कब स्वच्छंदता को हासिल हो जाएं, कह नहीं सकते।
यह तो तय ही है कि हमारा यह समय गोपनीयता जैसी व्यवस्था की गुंजाइश को लगातार समाप्त करता जा रहा है। पहले गोपनीयता साधना कोई बड़ा काम नहीं था। संचार के साधनों और उपकरणों के चलते आधुनिकता को हासिल शासन, प्रशासन, समाज और व्यक्ति प्रत्येक को इस ओर प्रयासरत देखा जा सकता है कि उनके क्रिया-कलाप और करतूतें गोपनीय कैसे रह सकती हैं। इंटरनेट, सोशल साइट्स, मोबाइल, स्पाइ कैमरे और रिकार्डिंग आदि की सुविधाएं दुविधाएं साबित होते भी देर नहीं लगाती। यानी जहां कहीं भी आत्म संयम और आत्म नियन्त्रण चूका, समस्या हाजिर है।
भारतीय समाज की बात करें तो इसकी समर्थ इकाई पुरुष है, पुरुषों में भी वह जो जाति, वर्ग, शासन, प्रशासन, धनबल, बाहुबल आदि में समर्थ है। ऐसे सामथ्र्यवान हिसाब से अपनी हैसियत का सदुपयोग-दुरुपयोग करता और मन के कमजोर क्षणों में विचलन को प्राप्त होता और अपने से कमजोर को शिकार के रूप में देखता है। आजादी बाद उम्मीद तो यह थी कि ऊंच-नीच, गरीब-अमीर, लिंगभेद आदि-आदि का फासला घटेगा लेकिन देश को जिन आर्थिक पटरियों पर चढ़ाया गया उसका गंतव्य उलट ही दीख रहा है।
इस आधुनिक तामझाम में जहां स्त्री सम्मान की गुंजाइश बनी है वहीं इसकी बड़ी शिकार भी स्त्रियां ही होती हैं, वय भी कोई बचाव नहीं। समर्थ की स्त्री की श्रेणी ही जब दोयम दर्जें को हासिल हो तो कम समर्थ की स्त्री के दर्जें का और गिरते जाना चिन्ताजनक ही है।
आज ये सब बात तब की जा रही है जब किशोरियों, युवतियों और स्त्रियों को बरगलाने की घटनाएं आए दिन अखबारों में पढऩे को मिल जाती ही हैं और इस तरह बरगलाने को आज के संचार साधनों ने आसान किया है। चौड़े आई अधिकांश घटनाओं में पीडि़त स्त्री मध्यम वर्ग के इर्द-गिर्द की होती है। यानी जो पूरी तरह समर्थ हैं वे ऐसी घटनाओं को अपने तईं साध लेते हैं और जो कमजोर हैं वे उसे नियति मान कर बर्दाश्त कर लेते हैं। लेकिन टूटना स्त्री को ही पड़ता है, पीडि़ता फिर चाहे वह किसी भी वर्ग की हो।
आधुनिक संचार संसाधनों को कोसने से कुछ होना-जाना नहीं है। क्योंकि हम इन्हें दिनचर्या का हिस्सा बना चुके हैं, या बनाने को तत्पर रहते हैं। जिस तरह चाकू दोनों तरह का काम कर सकता है उसी तरह संचार के इन साधनों का भी उपयोग-दुरुपयोग दोनों हो सकते हैं। चाकू के प्रयोग का विवेक-अविवेक जहां संस्कारों का हिस्सा है, वहां संचार के साधनों ने जिस तरह जीवन में प्रवेश किया है उसमें विवेक की गुंजाइश की अपनी सीमाएं हैं जो केवल रोक-टोक से संचालित नहीं होती। समाज को इन साधनों के अनुरूप ही अपने संस्कार और सोच में बदलाव लाना होगा, नहीं लाएगा तो तनाव को झेलेगा और औचक आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों को भी। आधुनिकता का हस्तक्षेप रूढ सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके उसे अपने अनुकूल बनाने में लगा है तो समाज अब भी बंधे-बंधाए सामाजिक-पारिवारिक ढर्रे में जीना चाह रहा है। जीत उसी की होनी है जो लगातार बढ़त बनाएगा। ऐसे में बदलना सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को ही है। देखते हैं कि इसके लिए मन से तैयार कब होते हैं।

29 जुलाई, 2015

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