Thursday, November 6, 2014

राजस्थानी भाषा का तथ्यात्मक महत्त्व

कल के दैनिक भास्कर में मित्र त्रिभुवन की 'अंग्रेजों ने दी थी राजस्थानी भाषा को मान्यता' शीर्षक रिपोर्ट में दिए तथ्य से अपनी अनभिज्ञता पर सोशल साइट्स में संशय खड़ा किया तो त्रिभुवन ने उल्लेख के आधार को प्रामाणिक बताया। संभव है आग्रह के अपनी व्यस्तताओं के चलते वे स्रोत की प्रति उपलब्ध नहीं करवा पाए होंगे। अपनी उद्विग्नता के चलते गुगल किया तो विकीपीडिया पर इंपीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया का पेज मिल गया। इसी पेज पर इसके चौबीस खण्डों की पीडीएफ कापी भी मिल गई। ऑक्सफोर्ड से 1909 में प्रकाशित इस ग्रंथावली के इण्डियन एम्पायर खण्ड प्रथम के पृष्ठ 364 पर भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न बोली बोलने वालों के भाषावार आंकड़े दिए हुए हैं तो पृष्ठ 367-368 पर राजस्थानी का उल्लेख इस प्रकार किया हैयह अनुवाद विशेष आग्रह पर अंग्रेजी के शिक्षक महेन्द्र गहलोत ने त्वरित करके उपलब्ध करवाया है
''जब हम मध्यवर्ती भाषाओं की तरफ रुख करते हैं तो सबसे पहले हमारा सामना उन भाषाओं से होता है जिनमें (भारत के) मध्य भू-भाग की भाषा का प्रमुख लक्षण विद्यमान है। यहां पर राजस्थानी एवं गुजराती भाषाओं का विचार साथ-साथ किया जा सकता है जो इस मध्य भू-भाग के निवासियों की प्रतिनिधि भाषाओं के रूप में प्रचलित है तथा जो दक्षिण-पश्चिम के समुद्री भाग तक मिलती है। राजपूताने में जहां राजस्थानी भाषा बोली जाती है वह क्षेत्र कई रियासतों और जनजातियों में विभक्त है। इसमें से प्रत्येक अपनी खुद की अलग भाषा होने का दावा करते हैं लेकिन वास्तव में ये उन सबकी बोलियां हैं जो एक ही भाषा का अलग-अलग रूप हैं। उन्हें चार मुख्य समूहों में बांट सकते हैंउत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी पश्चिमी। उत्तर की विशिष्ट बोली मेवाती है या उसे बिधोता भी कहते हैं। जैसी कि अपेक्षा की जा सकती है राजपूताने की सभी बोलियां हिन्दी से लगभग मिलती-जुलती हैं। उत्तर-पूर्व में यह लगभग पश्चिमी ब्रज भाषा के रंग में रंग जाती है और उत्तर-पश्चिम में बांगड़ू के रंग में। दक्षिण राजपूताने की मुख्य बोली मालवी है जो कि मालवा में बोली जाती है। मालवी और मेवाती बोली का कहने को कोई साहित्य है नहीं। पूर्वी राजपूताने में जयपुरी बोली है। इसकी भी छोटी-छोटी अलग-अलग बोलियां हैं और अलग-अलग रूप हैं जिनके भिन्न-भिन्न नाम हैं। पश्चिमी बोली, मारवाड़ी सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। यह मारवाड़, मेवाड़, बीकानेर और जैसलमेर की देशी बोली है और इसे बोलने वाले व्यापारी तथा साहूकारों ने इसे भारत के सभी भागों तक पहुंचाया है। राजस्थानी बोलियों में यह बोली सबसे विशिष्ट है। विशेष स्वरूप में लिखा गया इसका साहित्य भी विपुल मात्रा में उपलब्ध है। इस साहित्य की समझ उन सभी भारतीय अधिकारियों को है जो इन साहूकारों के बहीखातों की जांच करते रहे हैं।''
ब्रिटिश एम्पायर के लिए करवाए गये इस अध्ययन का मकसद राज और व्यापार करने में अनुकूलता बनाना भर था। हालांकि उपरोक्त पाठ से यह जाहिर नहीं होता है कि राजस्थानी के लिए किसी अधिकृत मान्यता की घोषणा की गई थी और ही ऐसा सन्दर्भ मिलता है कि सरकारी अधिकारियों के लिए इस भाषा को जानने-समझने की कोई मुनादी करवाई गई थी। इन दोनों बातों के सन्दर्भ किन्हीं अन्य पृष्ठों पर हों तो जानकारी में नहीं है लेकिन रिपोर्ट में उल्लेखित पृष्ठों पर इस तरह की मान्यता या मुनादी की जानकारी नहीं मिलती।
फिर भी राजस्थानी का उपरोक्त उल्लेख भी कम सुखद नहीं हैं। चूंकि राजस्थानी बोली के उल्लेखित क्षेत्रों के लोग देश के लगभग सभी भू-भागों तक व्यापार के सिलसिले में गए और जाकर बसते रहे हैं और इनकी खास या कहें व्यापारिक गोपनीयता की गरज से ही सही इस भाषा को वे बाणिका या कहें मुडिया लिपि के माध्यम से लिखते रहे हैं। इसलिए हो सकता है कर वसूली की गरज ने इस भाषा-बोली की भिज्ञता अंग्रेजों को करवा दी हो।
गजट में अध्ययन के आधार पर उल्लेखित क्षेत्रवार बोली सन्दर्भों को समझें तो आज के राजस्थान के बड़े हिस्से में इस राजस्थानी भाषा-बोली की समानताएं तब भी थी। शायद इसीलिए मारवाड़, मेवाड़, बीकानेर और जैसलमेर क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा बोलियों का 'राजस्थानी' में वर्चस्व है और अपनी साहित्यिक धरोहर के चलते उनका ऐसा हक भी है। इस क्षेत्र के लोगों को भाषा के आधार पर नेतृत्व करना है तो उन्हें केवल विनम्र होना होगा वरन् भाषा का एक सर्व स्वीकार्य रूप भी बनाना होगा। यहां पहले की तरह फिर स्पष्ट कर दें कि इसे एकरूपता का आग्रह माना जाए। इस हेतु 'विनायक' राजस्थानी से सम्बन्धित अपने पिछले आलेखों पर कायम है, विशेष तौर से 27 सितम्बर, 2014 के 'अर्जुनदेव चारण की उपस्थिति और राजस्थानी की बात' शीर्षक आलेख पर, जिसमें सर्व स्वीकार्यता की जरूरतों पर विमर्श किया गया।
रही बात राजस्थानी की मान्यता की तो राज और व्यापार चलाने का जो मकसद अंग्रेजों का था वही मकसद 1992 के बाद बनी सरकारों का रहा है। अंग्रेज इस्ट इंडिया कम्पनी को पोसते थे तो अब ऐसी अनेक कम्पनियां हैं जो राज से या तो पोषण पा रही हैं या पाने की जुगाड़ में लगी हैं। ऐसी ही कोई मजबूरी वर्तमान सरकार की होगी तो वह मान्यता देते देर नहीं लगायेगी, भले ही पच्चीस में से पूर्वी राजस्थान के पांच-छह सांसद भीतरी तौर पर विरोध हमेशा की तरह करते रहें।

6 अक्टूबर, 2014

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