नगर निगम चुनाव के लिए मतदान शनिवार को है। प्रचार-प्रसार के लिए उम्मीदवारों के पास आज आखिरी दिन है। सांसद से पार्षद तक के चुनावों में एक अन्तर यह है कि इस क्रम में पार्टी का महत्त्व कम और उम्मीदवार पर दारोमदार बढ़ जाता है। लोकसभा चुनावों में मतदाता सामान्यत: जो महत्त्व पार्टी को देता है उतना विधानसभा चुनावों में नहीं देता विधायक को चुनने में मतदाता उम्मीदवार को भी देखता है और पार्षद चुनाव तक आते-आते पार्टी का महत्त्व और भी कम हो जाता है। अपवाद के उदाहरण दिए जा सकते हैं।
ऐसे ही बीकानेर की बात करें तो घने अन्दरूनी और कॉलोनियों के छितराए आबादी क्षेत्रों में वोट देने की मानसिकता में अन्तर देखा जा सकता है। कॉलोनियों के बाशिन्दे पार्टी पर भी विचार कर लेते हैं। वहीं घने अन्दरूनी क्षेत्र में व्यक्ति को देखने का हिसाब ज्यादा दिखता है। कॉलोनी क्षेत्रों में जहां घर-घर सम्पर्क कर तसल्ली कर ली जा रही है वहीं शहर के अन्दरूनी वार्डों में इन दिनों धमौली और छालोड़ी का मिला-जुला माहौल है। बल्कि शहर से गुजरें तो लगेगा कि चुनावी आचार संहिता जैसी बाधाएं रहीं ही नहीं। हां दीवारों पर इश्तिहार लगाने और रंगों से अपीलें लिखने से छुटकारा अभी तक कायम है। शहर के अन्दरूनी वार्ड हों या बाहरी, अधिकांश वार्डों में दुपहिया, तिपहिया और चौपहिया वाहनों का धड़ल्ले से उपयोग व जीमणों में माल उड़ाने की चकाचक बदस्तूर जारी है। यहां तक कि कुछ उम्मीदवारों ने अपने कार्यकर्ताओं की थकान उतारने के लिए रात को नशा-दारू की व्यवस्थाएं भी कर रखी हैं। डीजे पर रैलियां निकलना और बोछर्डे़ कार्यकर्ता तो दबे मुंह जाति-धर्म के दम्भ और विद्वेष के नारे लगाने से भी नहीं चूक रहे हैं। आचार संहिता मानों दुबकी बैठी है और प्रशासन आंखें मीचे। मानों प्रशासन ने चुनावी बोछडऱ्ों
को लोकसभा और विधानसभा चुनावों की बची बायड़ निकालने की छूट दे रखी है।
लग यही रहा है कि इस छूट का दुरुपयोग हो सकता है। मतदान तक बदमजगियां होती हैं तो इसके लिए मुख्य जिम्मेदार प्रशासन की जरूरत से ज्यादा दी गई यह छूट ही होगी और यह भी हो सकता है कि मतदान के दिन मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक अपने वाहनों से लाने की 'जिम्मेदारी'
उम्मीदवार बेधड़क होकर निभाएं।
पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मोटामोट यही प्रशासन था जिले की मुख्य निर्वाचन अधिकारी यही थीं, हां अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट नगर और प्रशासन दोनों जरूर बदल गये हैं, लेकिन क्या इतने भर से प्रशासन में इतनी ढिलाई आ जाती है।
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है कि पार्षद का चुनाव लगभग व्यक्तिगत हो जाता है। ऐसे में उसका सामथ्र्य, उसकी दबंगई, उसका धर्म और उसकी जाति-इन सभी कारकों के नकारात्मक पहलू उभरते देर नहीं लगती है। और जब लगे कि आचार संहिता का हौवा नहीं है और प्रशासन भी सचेत नहीं है तो ऐसा सन्देश उत्प्रेरक का काम करता है।
फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि शहर समन्वय और सामंजस्य की अपनी तासीर कायम रखते हुए छिटफुट घटनाओं के साथ इन चुनावों को भी निबटवा लेगा। लेकिन प्रशासन को यह नहीं भूलना चाहिए कि राज इकबाल से चलता है, चुनाव के इन आखिरी दो दिनों में भी मुस्तैद नहीं हुआ तो पिछले दोनों चुनावों में बनी उनकी साख के बट्टे खाते जाते देर नहीं लगेगी। और यह भी कि अन्दरूनी क्षेत्र के वार्डों की कानून-व्यवस्थाओं की पेचीदगियां अलग हैं और बाहरी क्षेत्रों के वार्डों की अलग, सावचेती तद्नुसार ही बरतनी होगी।
20 नवम्बर, 2014
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