सोशल साइट्स पर सक्रिय कॉमरेड मित्रों में से कुछ ने केन्द्र में राजग सरकार बनने पर प्रतिक्रिया दी कि
‘जिन्दा कौमें पांच वर्ष इन्तजार नहीं करती है। इस प्रतिक्रिया पर तत्काल स्थानीय जुमला कौंधा कि ‘थां कनै समान कांईं है’ (आपके पास तैयारी क्या है?)। बहुमत से चुनी सरकार को हटाने के लिए जिस तरह का जनसमर्थन हासिल करना होता है उसकी तजबीजें वामपंथी लगातार खोते जा रहे हैं। ‘राइट टू रिकॉल’ मतदाताओं को मिला हुआ होता तो जरूर इससे कुछ उम्मीदें बन सकती थी पर मतदाताओं के इस हक के व्यावहारिक होने पर सवाल भी कम नहीं हैं। लेकिन इसके मानी यह भी नहीं कि जागरूक आम-आवाम निढाल होकर बैठ जाए। सतत जागरूक सक्रियता लोकतंत्र को सींचने का काम करती है।
खैर-क्षेत्र और शहर की ओर लौटना है। प्रदेश में लगभग तीन-चौथाई बहुमत के साथ वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भाजपा सरकार के बाद अब केन्द्र में भी अपने बूते की भाजपानीत राजग सरकार काबिज हो गयी है। जैसा कि कल जिक्र किया कि बीकानेर के सांसद की इस सरकार में भागीदारी की संभावनाएं लगभग क्षीण हो चुकी हैं। अर्जुन मेघवाल के पास उनके पिछले कार्यकाल की तरह अपनी पार्टी की सरकार न होने की इस बार आड़ भी नहीं है। 2019 के चुनावों में जरूरी नहीं कि ऐसी ही अनुकूलता हो कि तमाम अकर्मण्यताओं के बावजूद जनता उन्हें चुन कर भेज देगी। अर्जुन मेघवाल अकसर अपने को विशिष्ट जनप्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की कवायद में लगे रहते हैं। मेघवाल चाहें तो बिना मंत्री पद पाए ही अपनी इस आकांक्षा को न केवल अमलीजामा पहना सकते हैं बल्कि सचमुच के श्रेष्ठ सांसद भी बन सकते हैं। इस तकमे के प्रबन्ध के लिए उन्हें दक्षिण में जाने की जरूरत नहीं है। सांसद के असल रूप में श्रेष्ठ वे तभी माने जाएंगे जब उन्हें यहां की जनता मानने लगेगी। पिछले कार्यकाल में भी वे अपने क्षेत्र के लिए कुछ करते तो, न तकमों के लिए दक्षिण दौड़ना पड़ता और न ही उन्हें अपना क्षेत्रबदल कर श्रीगंगानगर के लिए हाथ-पांव मारने पड़ते।
सांसद मेघवाल को अच्छे सांसद की साख खुद ही बनानी होगी क्योंकि उन्होंने अपने क्षेत्र के अधिकांश पार्टी विधायकों से ऐसा आदान-प्रदान ही नहीं रखा कि वे सहयोगी बन सकें-रखते तो भी बीकानेर लोकसभा क्षेत्र के अधिकांश विधायक उन्हीं की जोड़ के हैं। शहर से शुरू करें तो पश्चिम के विधायक गोपाल जोशी की अपने इस अन्तिम विधायकी काल में एकमात्र आकांक्षा यही है कि वे किसी तरह मंत्री बन जाएं, इसलिए नहीं कि वे जनता की सेवा ज्यादा कर सकें। ऐसा भान तो 1962 से जब से उन्होंने अपनी राजनीति शुरू की तब से शायद ही कभी हुआ होगा। केवल ‘स्टेटस’ के लिए राजनीति करने वाले गोपाल जोशी को मंत्री केवल इसीलिए बनना है ताकि अपनी ‘सारी खुदाई’ यानी साले साहब डॉ. बीडी कल्ला और उनके अग्रज जनार्दन कल्ला को यह दिखा सकें कि लो मैंने भी झंडी-डंडी हासिल कर ली है। मोटा-मोटा समझा जाय तो बहनोई-सालों का राजनीति करने का मकसद एक-सा ही, उनके मकसद में आम-आवाम और शहर हित का कहीं किसी को आभास हुआ तो अवश्य साझा करें।
अब बात कर लेते हैं पूर्व की विधायक सिद्धीकुमारी की। सिद्धीकुमारी का राजनीति करने का मकसद कमोबेश गोपाल जोशी और डॉ.
बीडी कल्ला सा ही है। हालांकि जनप्रतिनिधि बनने और बने रहने की छटपटाहट उन जैसी नहीं है। यानी सिद्धीकुमारी के लिए राजनीति गाजर की पूंगी के समान है, जितने दिन बजेगी बजा लेंगी और बजनी बंद हुई तो उसे खाने में देर नहीं लगाएंगी। यह फितरत उनकी आनुवंशिक है। सिद्धीकुमारी के दादा डॉ. करणीसिंह भी ऐसी ही राजनीति करते रहे थे। हां, दादा-पोती के अवसरों में एक अंतर जरूर है कि राजनीति में दादा के कोई ‘गॉडफादर’ और ‘गॉडमदर’ जैसा चरित्र नहीं था, सिद्धीकुमारी के पास ‘गॉडमदर’ की भूमिका में वसुंधरा राजे हैं। सिद्धीकुमारी के बारे में ‘अपनी बात’ में एक बार से अधिक पहले भी बताया है कि वह जनप्रतिनिधि के अपने पिछले कार्यकाल में आम-आवाम के लिए सुलभ तो क्या क्षेत्र में भी बहुत कम रहीं। अपनी प्रजा के लिए इन नये अन्नदाताओं के पास न भाव है और न ही समय। विधायकी के इस दूसरे कार्यकाल के छह महीनों में सिद्धीकुमारी बीकानेर कितनी रही पता कर लें जरा। अपना चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कुछ क्षणों के लिए पहले दर्शन अर्जुन मेघवाल के नामांकन के समय दिए तो दूसरी बार वोट देते समय।
(क्रमश:)
28 मई, 2014
No comments:
Post a Comment