Saturday, May 10, 2014

लहर, लोकतंत्र और नया मीडिया

व्यापार-व्यवसाय का दायरा और उसका लक्षितसमूह सीमित होता है, यानी मात्र अपने उपभोक्तावर्ग तक। कोशिश उनकी यही होती है कि उनके इस समूह में बढ़ोतरी हो और यह भी कि उनके प्रतिस्पर्धी व्यापारिक समूहों के उपभोक्ता छिटक कर उनके पाळे में जाएं। यह प्रतिस्पर्धा स्वस्थ रहे तब तक तो लाभ उपभोक्ताओं को होता है। ज्यों ही होड़ लालच में बदलती है यह 'गलाकाटू' हो जाती है। प्रथम दृष्टया यही लगता है कि गला प्रतिस्पर्धी एक-दूसरे का काट रहे हैं पर असल में उपभोक्ता का ही काटते हैं। व्यापार का प्रथम और एकमात्र लक्ष्य और अस्तित्व का आधार मुनाफा कमाना होता है, इसे वे कायम नहीं रख पाएंगे तो जिन्दा ही नहीं रह पाएंगे। इसीलिए दो प्रतिस्पर्धी व्यापारियों की होड़ से उपभोक्ता का खुश होना भ्रमित होना है।
उक्त बात आज मीडिया समूहों के बहाने से कर रहे हैं। सोलहवीं लोकसभा के इन चुनावों में जहां खबरिया टीवी चैनलों ने चांदी काटी वहीं अखबारों को वैसे लाभ हासिल नहीं हुए। खबरियां टीवी चैनलों के कार्यक्रम देखें तो अधिकांश में साफ लगने लगेगा कि उन्होंने दिन के चौबीस घण्टे के अधिकांश समय का भुगतान पा लिया है। जो धन विज्ञापन से रहा है वह लेन-देन ऑन रिकार्ड है, शेष जो साक्षात्कारों को दिखाने की बारम्बारता है या रैलियों को दिया जाने वाला समय है, इनके भुगतान का प्रकार ऐसा है कि इसे देखा तो नहीं, पर समझा जरूर जा सकता है। ऊपरी लेन-देन के माहिर और चतुरों से 'कैश या काइंड' जैसे उपमित नाम-विकल्प अकसर सुनते हैं। इसी विकल्पी उपमा से मीडिया के लेन-देन को समझा जा सकता है। जो विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं उनका भुगतान कैश और शेष जो भी वह अनुकम्पाएं हैं वह काइंड में। कैश के दो जरीये हो सकते हैं, नकद या बैंक के माध्यम से जबकि काइंड के विकल्प हजार हो सकते हैं, यदि आपके पास शासन है तो यह और आसान हो जाता है।
कालेधन की बात फैशन हो गई है। इसका राग ज्यादा वही अलापते हैं जो इसमें लिप्त हैं। आजादी बाद के इन छासठ सालों में देखा गया है कि ऐसे धन के सबसे बड़े पोषक राजनेता हैं और संवाहक है राजनीति पार्टियां। बिना अनाप-शनाप धन के राजनीति और नेतागिरी संभव ही नहीं है। पर कालेधन की अपनी सीमाएं हैं, इसे कुरियर करने के अपने खतरे हैं, क्योंकि इसे देखा जा सकता है-'काइंड' का कुरियर आसान है और इसे सिद्ध करना भी मुश्किल।
मीडिया के सन्दर्भ से 'विनायक' ने पहले भी कहा कि अधिकांश अखबारी समूह या तो शुद्ध अखबारी समूह हैं या दूसरे धन्धे हैं तो इसी से खड़े किए हैं यानी 'काइंड' की भूमिका हो सकती है। लेकिन अधिकांश खबरिया चैनल तो धंधेबाजों के ही हैं। उनके लालच असीमित हैं तो इनके लिए कैश से ज्यादा 'काइंड' का महत्त्व है। देश की भोली जनता जिन नेताओं को अपना देश-प्रदेश और स्थानीय निकाय सौंपती है, सत्ता हासिल होने पर वे अपनी जवाबदेही जनता के प्रति कम मानने लगते हैं और स्वार्थ साधकों को कृतार्थ करना ज्यादा जरूरी।
ये खबरिया चैनल इन नेताओं के स्वार्थ साधक की बड़ी भूमिका में गये हैं। इनमें लहर पैदा करने का माद्दा है फिर चाहे वह किसी भी राजनेता या पार्टी के पक्ष में क्यों हो। क्षेत्रीय नेताओं के लिए क्षेत्रीय चैनलों की बाढ़ सी रही है। नेताओं और गैर पेशेवर मीडिया (चैनल) के इस अमानवीय गठबंधन को ध्वस्त करना जरूरी है। नहीं तो आर्थिक विषमताएं कम होंगी और ही सामाजिक। इनका एक सीमा तक समाधान राजनीति में आने वाले अच्छे लोग कर सकते हैं पर उन्हें इस 'राजनीति' में टिके रहने के लिए क्या वही सबकुछ करना नहीं होगा जो स्थापित राजनेता अब तक करते रहे हैं? इसलिए जरूरी है कि आम वोटर या आमजन इनकी करतूतों को समझे और इन्हें टोकना और नकारना शुरू करे, बदलाव तभी सम्भव है।

10 मई, 2014

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