Tuesday, May 20, 2014

चिंता पार्टियों की नहीं, लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने की हो

सोलहवीं लोकसभा का गठन होने को है, आजादी बाद केन्द्र में पहली बार कांग्रेस के अलावा किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला है। भारतीय जनता पार्टी को मिले इस अपूर्व समर्थन को लेकर कैसे भी आरोप लगाएं जाएं, व्यर्थ है। चुने जाने की जो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया तय है और उसकी जो सीमाएं और कमियां हैं उसका लाभ अब तक किस दल ने नहीं उठाया? जब तक दावं कांग्रेस का चलता रहा तब वैसी ही गड़बड़ियों के साथ वह शासक बनती आई है। अब कांग्रेस से बढ़कर पत्ते चलने वाला गया तो सफल होगा ही। कांग्रेस गलत-सलत तरीकों को नहीं आजमाती और मूल्य आधारित राजनीति करती तो खुद पार्टी की और देश की वह दुर्दशा नहीं होती जो हो गई और हो रही है?
चुनाव में हार के बाद कांग्रेस ने कल कार्यसमिति की बैठक की औपचारिकता पूरी कर ली है। जिस ऐजेन्डे के कयास लगाए गये, बिना हासल-पाई जोड़े-घटाए वैसा ही घटित हुआ। पहले पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हार की जिम्मेदारी ली, फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने और उसके बाद उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने। मनमोहन सिंह अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं, जो पहले से तय ही था, यदि कांग्रेस या संप्रग को बहुमत मिलता तब भी। सोनिया और राहुल ने भी हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपनेे-अपने पदों से मुक्ति का प्रस्ताव रखा या इच्छा जताई। खुद दोनों को ही यह भरोसा था कि यह महज औपचारिकता है जिसे निभाना है। अध्यक्ष-उपाध्यक्ष द्वारा जिम्मेदारी की इस स्वीकारोक्ति पर कांग्रेसी गद्गद् भले ही हों पर इससे कांग्रेस को कोई संजीवनी मिल पायेगी, मानना मुश्किल है। देशव्यापी पार्टी अपना आत्मबल कितना सहेज कर रख पाती है, इसका आकलन आगामी चुनावों में ही होगा। बचा-खुचा आत्मबल भी काम तभी आएगा जब इसके विरोधी अपने-अपने लखणों से इसकी गुंजाइश देंगे। ये विरोधी भिन्न चुनावों में भिन्न स्थानों पर अलग-अलग हो सकते हैं।
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठकें जिस तरह सम्पन्न होती हैं उन्हें कहने को अनुशासित पार्टी की बैठकें कहा जा सकता है पर यह बैठकें किसी विचारवान राजनीतिक पार्टी की कम मिलिटरी इकाई की ज्यादा लगती हैं। बहुजन समाज पार्टी, एआइडीमके, डीएमके, टीएमसी जैसी बड़ी पार्टियों की बैठकें ऐसे ही अनुशासन में सम्पन्न होती हैं। कभी जनसंघ की भी यही स्थिति थी लेकिन कह सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी में रूपान्तरित होने के बाद उसके नेताओं को अपने मन की भड़ास निकालने की गुंजाइश इस पार्टी में बन भी गई। लालू के राष्ट्रीय जनता दल और मुलायम की समाजवादी पार्टी की मीटिंगों में कुछप्रतिक्रियावादियोंके समाचार मिल ही जाते हैं, जिससे लगता है कि वहां लोकतंत्र ने अपनी सांसें पूरी तरह नहीं छोड़ी है, हालांकि ऐसों का अंजाम क्या होता है, सभी जानते हैं।
स्थापित चरित्र के विपरीत नेता भारतीय जनता पार्टी में भी अपना मत प्रकट करने की छूट लेने लगे हैं तो कांग्रेस में यह गुंजाइश क्यों नहीं बन पा रही है, जबकि कांग्रेस के पास ज्यादा विचारवान और खुले मन के नेता हैं क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि आजादी बाद से ही नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भरता अपरिहार्य मान ली गई है यदि ऐसा है, ऐसा ही है तो राहुल जैसे विचारहीन, अनुभवहीन और व्यवहारहीन के नेतृत्व में वह अपना अस्तित्व कितना और कितने दिन बचा पायेगी कांग्रेस को यह आत्मविश्वास लाना होगा कि वह नेहरू-गांधी परिवार की बैसाखियों के बिना खड़ी हो सकती है तभी वह कुछ कर पाएगी हो सकता है बैसाखियां छोड़ने पर एकबारगी लड़खड़ाए पर अन्ततः उसे भरोसा अपनी रीति-नीतियों के पैरों पर ही करना होगा, भारतीय लोकतंत्र संसदीय होते हुए भी व्यक्ति आधारित हो ही गया है, और इसी आधार पर भाजपा को हाशिए पर कर मोदी जीते हैं और इसलिए, ममता, जयललिता, मायावती, लालू, मुलायम, नवीन पटनायक, करुणानिधि और बादल पनपे हैं ऐसी पार्टियों के सुप्रीमों के वंशज होने या काबिल वंशज के होने पर बिखरते भी देर नहीं लगेगी नाकाबिल राहुल के चलते ही कांग्रेस इस हश्र को हासिल हो रही है लोकतान्त्रिक देश में लोकतान्त्रिक और मानवीय मूल्यों से पार्टियां नहीं चलवाओगे तो लोकतन्त्र को कितने दिन सहेज कर रख पाओगे?

20  मई, 2014

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